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फलस्वरूप वहां की सारी जनता में गणिजी के प्रति अपार श्रद्धा और स्नेह का वातावरण बन गयो ।
इसके पश्चात् उनकी कीर्ति दिन-प्रतिदिन बढती गई और वे अपने ज्ञान और चारित्र के लिये प्रसिद्ध होते गये। दर-दर स्थानों से श्रावक लोग उनको आमन्त्रित करने लगे । नागपुर( नागोर ) में जाकर उन्होंने नेमिनाथ विधिचैत्य की प्रतिष्ठा की,
और तत्रस्य संघने पादर-पूर्वक सर्व सम्मति से इनको गुरु-रूप में स्वीकार किया। इधर नरवरपुर के श्रावकों के हृदय में भी राह पाभिवाया या पुर्द दिल निनवल्लभजी को अपने गुरु-रूप में स्वीकार करके उनके द्वारा देवमन्दिर और देवप्रतिमा की स्थापना करवाय। उनकी प्रार्थना स्वीकार हुई और जिनवल्लभगणिने नरवरपुर जाकर उनको कृतार्थ किया । जिन जिन मन्दिरों में उन्होंने प्रतिष्ठा करवाई, उनकी विशेषता यह थी कि उनमें यह स्पष्ट आदेश लिखवा दिया गया था कि । वहां रात्रि के समय पूजा-अर्चन, श्री का प्रवेश तथा ऐसे ही अन्य कार्य जो चैत्यवासियों के मन्दिरों में होते थे-नहीं होंगे।' इस प्रकार अब जिनवल्लभगणि का सन्देश स्पष्टतया सफल होने लगा था । अब उनको सन्तोष हो चला था कि उन्होंने अपने गुरु अभयदेवाचार्य को जो वचन दिया था, वे उसके अनुसार आचरण करने में पूर्ण सफल हो रहे हैं। - १ जिसका नाम सूरिजी के पट्टपर बंबिकाप्रकटित युगप्रधान पद विभूषित दादा श्रीजिनदससूरिजी को प्राप्त हुआ। -. २ इसका उल्लेख तत्कालीन दी देवालय के निर्मापक सेठ धनदेव के पुत्र कवि पद्मानन्द अपने वैराग्यशतक में भी करते है:
“सिकः श्रीजिनवलमस्य मुगुरोः शान्तोपदेशामृतः । श्रीमन्नागपुरे चकार सदनं श्रीनेमिनाथस्य यः। श्रेष्ठी श्रीधनदेव इत्यभिषया ख्यातय तस्याङ्गजा, पद्मानन्दातं व्यषत सुधियामानन्दसम्पत्तये ॥१॥".
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