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________________ HERA ANS * उपरि उल्लिखित टीकाकार के शब्दों से यह स्पष्ट है कि जिस यवासी संघ को हमने व्याघ्र की उपमा दी है उम संघ में यदि जिनाशानुसार चालित, सुविहित साधु-समुदाय नहीं रहता है अथवा ये चैत्यवासी कहते हैं कि ' से सुविहित साधु संघ थाय हैं ' तो वह सुविहित-गण के लिये दूषण नहीं है किन्तु भूषणरूप ही है। क्योंकि यदि सुविहित गण उस संघ को स्वीकार करता है और उसकी आम्नायानुसार चलता है तो वह संसार का वृद्धिकारक है। वस्तुतः आचार्य जिनपठिसूरि का यह कथन उपयुक्त ही है, अन्यथा आचार्य हरिभद्रस्त्रि और आचार्य जिनेश्वरसूरि जैसे प्रौढ़ सुविहित, चैत्यवासियों की बापरणाओं का क्यों विरोध करतो ? विरोध के कारण यह वस्तु भी उपयुक्त है कि चैत्यवासी समुदाय इन सुविहितों को संघबाह्य करता है तो बद्द सुविहितों के लिये दूषणरूप नहीं है, क्योंकि उनका मत-व्यामोह एकान्स दृष्टि से कहने को उन्हें बाधित करता है। इस से यह सिद्ध है कि चैत्यवासी संघ से जिनवाठमसूरि आदि सुविहित बहिष्कृत अवश्य थे किन्तु ये सुविहित संघ के अन्दर और उसके प्रमुख । धर्मसागरजीने न जाने अपनी किस असाधारण विद्वत्ता के बल पर इस पञ्च में से सङ्क-बहिष्कृत का अर्थ निकाला ? मैं तो समझता कि स्वयं सागरजी अपने को चैत्यवासियों के प्रमुख समझते हो या उनके अनुयायी हों तो उन्हे कुसंघ और व्याघ्र की उपाधि सम न हुई हो? इसीलिये स्वयं व्याघ्र बनकर अपनी रढमुद्रा ( लेखनी ) द्वारा सुविहितपथप्रकाशक को संघबाम करने का अपना अधिकार बताया हो । में तो सागरजी के विचारों के अनुयायी समस्त विनप्रेमियों का आह्वान करता हूँ कि उनके पास कोई भी या किसी भी प्रकार का प्रमाण हो तो उपस्थित करें, अक्श्य ही सद्भावना के साथ मैं विचार करूंगा। 57
SR No.090361
Book TitlePindvishuddhi Prakaranam
Original Sutra AuthorUdaysinhsuri
AuthorBuddhisagar
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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