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________________ चिन्हविशुद्धि ० सीमा यो पेतम् ॥ १९ ॥ कृष्णाश्विनत्रयोदश्यां चन्द्रे हस्तोत्तरास्थिते । स देवशिला गर्भे, स्वामिनं निभृतं न्यधाद् ॥ २९ ॥ गजो वृषो हरिः साभि षेकश्रीः स्रक् शशी रवि । महाध्वजः पूर्णकुम्भः पवसरः सरित्पतिः ॥ ३० ॥ हिमालय, निर्धूमोऽग्निरिति क्रमात् । ददर्श स्वामिनी स्वमान् मुखे प्रविशतस्तदा ॥ ३१ ॥ इन्द्रः पत्या च तज्ज्ञैव तीर्थकजन्मलक्षणे । उदीरिते स्वफले, त्रिशलादेव्यमोदत ।। ३२ ।। गर्भस्थेऽथ प्रभो शक्रा -ऽऽज्ञया जृम्भकनाकिनः । भूयो भूयो निधानानि, न्यधुः सिद्धार्थवेश्मनि ॥ ३४ ॥ यदि हम देवानन्दा की कुक्षि में उत्पन्न होना कल्याणक मानते हैं और त्रिशला की कुक्षि में संक्रमण होना कल्याणक नहीं मानते हैं तो यह कितना अयुक्त होगा ? जहां हरण को अतिनिन्य कार्य स्वीकार करते है वहां विप्र कुल में उत्पन्न होना भी नीच गोत्र कर्मविपाक के उदय से मानते हैं दोनों ही जघन्यता की कोटि में आते हैं। उस अवस्था में एक का अंगीकार और एक का त्याग कदापि युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता । दूसरी बात, च्यवन के पश्चात् जो देवोचित कर्तव्य होते हैं वे हरण के पश्चात् ही हुए हैं, ऐसा शात्रों में चलेख मिलता है, तथा गर्भापहरण यदि कल्याणक न होता तो आचार्य भद्रबाहुस्वामी जैसे इस अधिनिन्य कार्य का शानों में विस्तार से वर्णन कदापि नहीं करते, उनका यह प्रतिपादन हमें एक नूसन दृष्टिप्रदान करता है कि प्रभु महावीर के कल्याणकों की संख्या दंगे ५ ही • स्वीकार हो तो देवानन्दा की कुक्षि में उत्पन्न होने से न मान कर गर्भहरण के बाद से ही संख्या मानें। २. शास्त्रीय चल्लेखों में हम किसी गच्छ के अथवा आचार्यों के उल्लेख न देकर कतिपय शास्त्रीय उलेखों पर ही विचार करते हैं: 40 उपोद्घात' वषट् कल्याणक सिद्धि । ॥१९॥
SR No.090361
Book TitlePindvishuddhi Prakaranam
Original Sutra AuthorUdaysinhsuri
AuthorBuddhisagar
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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