SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यस्य श्रीनरवर्मभूपतिशिरःकोटीररत्नाङ्कर- ज्योतिर्जालजलैरपुष्यत सदा पादारविन्दद्वयी ॥ १ ॥ कश्मीरानपदाय सन्ततहिमन्यासङ्गवैराग्यतः, प्रोन्मीलगुणसम्पदा परिचिते यस्यास्यपङ्केरुहे । सान्द्रामोदतरङ्गिता भगवती वाग्देवता तस्थुषी, वाराला मलभव्य काव्यरचनाव्याजादनृत्यच्चिरम् ॥ २ ॥ आचार्यपद और स्वर्गवास जनवल्लभमणि की प्रसिद्धि और प्रभाव को सुनकर श्रीदेवभद्राचार्य को अपने गुरु प्रसन्नचन्द्राचार्य का अन्तिमवाक्य सारण हो आया 1. उन्होंने सोचा कि मैं अभी तक अपने गुरुश्री के आदेश के अनुसार जिनवल्लभगणि को श्री अभयदेवाचार्य का पर नहीं बना सका । ऐसा विचार कर उन्होंने जिनवल्लभगणि को पत्र लिखा । उस पत्र में लिखा था-" तुम शीघ्र ही अपने समुदाय सहित विहार कर चित्रकूट आओ, मैं भी वहीं पर आरहा हूं । " जिनवल्लभगण उस समय नागपुर ( नागोर ) में थे । करके चित्रकूट ( चितोड़ ) पहुँचे । देवभद्राचार्य भी अपने समुदाय सहित वहां पधारे। देवभद्राचार्य उस समय परम प्रतिष्ठित् गीतार्थसाधु और विद्वान थे । इनके द्वारा रचित महावीरचरियं, पासनाहचरियं, कहारयणकोस इत्यादि महाआज भी रेल कर्या-साहित्य में आदर की दृष्टि से देखे जाते हैं । उन्होंने उस समय पं. सोमचन्द्र ( जो कि आगे चल जिनषडमसूर के पहर युगप्रधान भीजिनदत्तसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए ) को भी बुलाया था परन्तु वे किसी कारणवश आ सके । आचार्य देवभद्रसूरिने विधिवत् श्रीजिनवल्लभमणि को श्रीअभयदेवसूरि के पट्ट पर स्थापित किया और उस समय श्री जिनवल्लमसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए । परन्तु वे इस पद पर अधिक समय तक न रह सके । उन्होंने ज्योतिष गणना 25
SR No.090361
Book TitlePindvishuddhi Prakaranam
Original Sutra AuthorUdaysinhsuri
AuthorBuddhisagar
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy