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________________ Robl विवद्धि -टीकाइयो पेठस् ॥ १२ ॥ -के अनुसार अपनी आयु छह वर्ष और समझी थी, परन्तु छह महीने ही बीते थे कि एकाएक उनका शरीर अस्वस्थ हो गया । यह देखकर उनको आश्चर्य हुआ और उन्होंने पुनर्गणना की तो पता चला कि पहिले कुछ अह छूट गये थे जिसके कारण छ महीने के स्थान पर छ वर्ष आये। ऐसा निश्चय होजाने पर उन महानुभावने अपने शरीरत्याग की तैयारी धैर्य और सन्तोष के साथ कर दी। संघ एकत्र हुआ; सर्व जीवों के प्रति आपने मैत्रीभाव को प्रकट करते हुए अपराधों की क्षमा याचना की, अरिहंत, सिद्ध, साधु और केवलीप्रणीत धर्म का झरण अंगीकार किया और तीन दिन का अनशन किया। इस प्रकार तैयार होकर सं. १९६७ कार्तिक कृष्णा अमावास्या- दीपावलि की मध्यरात्रि में पचपरमेष्ठि का स्मरण करते हुए इस असार संसार को स्याग कर श्री जिनवल्लभरिने चतुर्थ देवलोक की यात्रा की । शाविरुद्ध आचरण करनेवाले चैत्यवासियों के विरोध में आचार्य हरिभद्रसूरिने जो प्रचण्ड आवाज उठाई थी वह सफल हुई या नहीं कह नहीं सकते, परन्तु आचार्य जिनेश्वरसूरिने पत्तन में जाकर चैत्यवास, और चैत्यवासियों का समूलोच्छेदन करने के लिये जो चिनगारी छोड़ी थी उसको अपने प्रकाण्डपाण्त्यि और अपूर्व प्रतिभा से विभूषित जिनवल्लभमणि जिस प्रबल प्रभञ्जन को लेकर आगे बढे, उसमें चैत्यवास का महाद्रुम निर्मूल होकर धराशायी हो गया और उसके रहेसहे अवशेष आचार्य जिनदत्तसूरि से लेकर द्वि. बाचार्य जिनेश्वरसूरि तक के आचार्यादिने (गणिजी के अनुयायियोंने) सफाया कर दिया । अतएव जिनवल्लभगणि का जीवन एक क्रान्तिकारी जीवन था, जिसकी पवित्र और प्रभूत देनों के लिये जैन समाज उनका सदा के लिये ऋणी होगा । वे एक सये सत्यप्रेमी साधु थे । आडम्बर से उन्हें घृणा थी और मिध्याचरण से था हार्दिक विरोध । उन्होंने जिसको 26 उपोद्घात । ग्रंथ रचना | ॥ १२ ॥
SR No.090361
Book TitlePindvishuddhi Prakaranam
Original Sutra AuthorUdaysinhsuri
AuthorBuddhisagar
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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