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________________ पिण्डविशुद्धि ० .. टीकाद्वयो पेतम् ॥ १७ ॥ श्रमण भगवान महावीर का जीव दशम देवलोक से व्युत होकर आषाढ शुट्टा पट्टी के दिवस माहणकुण्डग्राम के निवासी कोडाल गोत्रीय ऋषभदत्त विप्र की पत्नी जालंधरा गोत्रीय देवानन्दा की कुक्षि में उत्पन्न हुए । देवानन्दाने चौदह स्वप्न देखे | ८२ दिवस पश्चात् देवलोकस्थ सौधर्मेन्द्र अवधिज्ञान से भगवान को देवानन्दा के गर्भ में स्थित देखकर प्रसन्न होता है और श्रद्धापूर्वक नमुत्यु आदि से स्तुति करता है ! पञ्चात् विचार करता है कि तीर्थंकर का जीव किसी अशुभ कर्मोदय के कारण श्रेष्ठ क्षत्रियों का त्यागकर विप्रादि नीच कुलों में उत्पन्न हो सकता है, परन्तु उस निम्न कुल की माता की योनि से उनका जन्म कक्षपि नहीं होता। मैं इन्द्र हूं, भगवान का भय हूं, अतः मेरा जीताचार ( कर्तव्य ) है कि मैं गर्भसंक्रमण ( अपहरण कर अन्य स्थान पर प्रक्षेप ) करवाऊं ? इत्यादि विचार कर अपना आज्ञाकारी हरिणगमेषी नामक देव को बुलाता है और आदेश देता है कि तुम जाकर देवानन्दा के गर्भ में स्थित भगवान के जीव को लेकर क्षत्रियकुण्ड के अधिपति. ज्ञातवंशीय काश्यप गोत्रीय सिद्धार्थनरेश की पत्नी वाशिष्ठ गोत्रीय त्रिशला क्षत्रियाणी को कुक्षि में स्थापित करो और त्रिशला की कुक्षि में स्थित पुत्री के गर्भ को देवानन्दा ब्राह्मणी के उदर में स्थापित करो ! आदेश प्राप्त कर दरिणगमेवी देव आता है और आश्विन कृष्णा त्रयोदशी की मध्यरात्रि में यह कार्य पूर्ण करता है। इसी रात्रि में त्रिशला क्षत्रियाणी १४ स्वप्न देखती है, राजा सिद्धार्थ से निवेदन करती है। नृपति सिद्धार्थ भी स्वप्नलक्षण पाठकों को बुलाकर स्वप्न फल पूछता है। तब मालूम होता है कि सव्वा पाछे तित्थयरमाया " इस नियमानुसार, और पंचाशकोक कल्याणक के " कलाणफला य जीवाणं " इस लक्षण से युक्त गर्भाधान हा १४ स्वप्न त्रिशलामाता न देखती संपादक । 36 उपोद्घात । - कल्याणकं निरूपण ।
SR No.090361
Book TitlePindvishuddhi Prakaranam
Original Sutra AuthorUdaysinhsuri
AuthorBuddhisagar
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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