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________________ चैत्यालयों में आचारभ्रष्टता बहुत आगई थी और प्रलोभन आदि देकर भी शिष्यों को फांसना बुरा न समझा जाता था, इसलिये जिनेश्वराचार्यने न केवल उस बालक को द्राक्ष, खजूर आदि देकर वश में किया अपितु उसकी माता को भी द्रव्य देकर और मीठी-मीठी बातें बनाकर जिनवल्लभ को अपने अनुकूल कर लिया और तुरन्त ही उसको दीक्षा दे दी। विद्याभ्यास जिनेश्वराचार्यने बड़े मनोयोग के साथ जिनवल्लभ को पढाना प्रारंभ किया। उनके शिष्यत्व में शीव ही उन्होंने तर्क, अलङ्कार, व्याकरण, कोष आदि अनेक शानों का अध्ययन कर लिया। जिनवल्लभ की प्रखरबुद्धि जैसी विद्याध्ययन में सफल होती थी वैसी ही RAMANहारिक क्षेत्र में भी एक बार जिनेश्वराचार्य किसी काम से आसिका से बाहर गये। जाते समय उन्होंने उस चैत्यालय तथा के सेवेवित पाटिका, बिहार, कोष्ठागार इत्यादि की व्यवस्था का सारा भार जिनवल्लभ को सौंप दिया। जब वे वापिस आये तो RISHNAजनिकर पीत प्रसाए कि जिनवामने सारा प्रबन्ध बड़ी कुशलता के साथ किया और उसमें कोई भी कमी नहीं आने दी। अपने गुरु प्रवास काल में बालक जिनवल्लभ को संयोगवश एक वस्तु और मिली, जिसका महत्त्व संभवतः उस समय । PASTIपनका न मलिना होगा। परन्तु कौन कह सकता है कि उनके जीवन की विशा को बदलने में उम्रने अप्रत्यक्षरूप से बहुत SHESH दा काम नहीं किया पिटेना इस प्रकार है-..- . . . . . . . . . नेश्वराचार्य पसरे ग्राम में चले गये तब बाल-सुलम कौतुइलवज्ञ उन्होंने एक पुस्तकों से भरी हुई पेटी की छान-बीन प्रारम की। इसमें उनको एक सिखान्त-पुस्तक मिली । उस पुस्तक मैं सन्होंने जो पढा- उससे उन्हें पता चला कि चैत्यवासियों
SR No.090361
Book TitlePindvishuddhi Prakaranam
Original Sutra AuthorUdaysinhsuri
AuthorBuddhisagar
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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