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________________ उपोषाव ग्रंथकवि पेतम् । विचार। ॥३१॥ पिण्ड- जिनवल्लभेन' लिख कर प्रमाणित करते हैं कि सुमतिगणि का लिखना पूर्ण सत्य है, गच्छममत्व से मृषा अत्युक्ति नहीं, तो फिर विशुद्धि भ्रम या प्रम का अवकाश दी कहा। यह प्रश्न तो इस बात का प्रतिपादन करता है कि 'हम खरतरों के सुपजीव्य न हों, क्यों टीकाद्वयोकि पिण्डविशुद्धि का अमणपरम्परा की दृष्टि से पढना अत्यावश्यक है। अतः प्रणेता पृथक् हैं बता कर, सनुरुन्मीलित कर कुछ | क्षणिक शान्ति भले ही उत्तरदाता के अनुयायी प्राप्त कर लें। पिण्डविशुद्धिदीपिकाकार आचार्य उदयसिंहसूरि, (र. सं. १२९५) जैसे भिन्न गच्छीय प्रौद विद्वान् भी पिण्डविशुद्धि के प्रणेता का " सुविहितविधिसूत्रधार" विशेषण बतलाते हैं जो निश्चित रूप से खरतरगच्छीय जिनवल्लभसूरि से ही संबंधित है। क्यों कि सुविहितपथप्रकाशक या विधिमार्गप्ररूपक विशेषण धर्मसागरजी मी प्रवचनपरीक्षा में खरतरगच्छीय जिनवल्लभसूरि के लिये ही स्वीकार करते हैं। अतः प्रकरणकार वे ही हैं यह भलीभांति सिद्ध होता है। देखिये दीपिकाकार के वचन:"सुर्विहितविधिसूत्रधार, स जयति बिनवल्लभो गणियन । पिण्ड विशुद्धिप्रकरण-मकारि चारित्रनृपमवनम् ॥ २॥" जगड कवि ( १२७८-१३३१) स्वप्रणीत सम्यक्त्वमाई चउपई में लिखते हैं:"धन्नुसुजिणवल्लहवक्खाणि, नाणस्यण केरी छइ खाणि । यइतालीस सुद्धपिंड विहरेड, त्रिविधु मंदिरु अग प्रगटु करे ।। खरतरगच्छीय युगप्रवरागम श्रीजिनपतिसूरि के शिष्य श्रीनेमिचन्द्र भंडारी प्रणीत पष्टिशतक प्रकरण के ऊपर तपागच्छीय सुप्रसिद्ध आचार्य श्रीसोमसुन्दरसूरिने बालावबोध की सं. ११९६ में रचना की है । इस अन्यके वालावर्बोध की प्रारंभिक अव यह षष्टिचतकप्रकरण 'त्रण बालावबोध सहित ' महाराज सयाजीराव विश्वविद्यालय वडोदरा तरफ से प्रकाशित हुआ है। SERIES ASSISTAN
SR No.090361
Book TitlePindvishuddhi Prakaranam
Original Sutra AuthorUdaysinhsuri
AuthorBuddhisagar
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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