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________________ 0 तरणिका में ही वे हिम्दते है: “नेमिचन्द्र मंडारी पहिललं तिस्यउ धर्म न जाणतउ । पछइ श्रीजिनवल्लभमरिना गुण सांभलि अनइ तेहना। कीधा पिण्डविशुद्धि प्रमुख अन्धनई परिचइ साचत धर्म जाणित ।" और इसी प्रकार इसी ग्रन्धके १२९ वें पद्य का बालावबोध करते हुये वे लिखते हैं: "विठ्ठा० केतकाइ गुरु साक्षात् दीठाइ हुँता तत्त्वना जाणनइ मनि रमइ नहीं, हीयइ हर्ष न करइ । केचि. अनइ केतलाइ पुण गुरु अणदीठाइ हुँता हीइ रमई वसई, वेहना गुण सांभलि नह होइ हर्ष उपजइ । जिम श्रीजिनवल्लभसूरि । ते जिनवल्लभसूरि नेमिचन्द्र भंडारीयी पहिला हुआ भणी अदृष्टइ हूंता पंण नेमिचन्द्र मंधारीनइ मनि तेहना कीधा पिण्डविशुद्धि आदिक प्रकरण देखता वरया । इसिउ भाव । " जेसलमेर के सं. १४९७ में प्रतिष्ठित संभवनाथ जिनालय के प्रशस्ति शिलालेख में लिखा है: "ततः क्रमेण श्रीजिनचन्द्रसूरि-नवाङ्गीवृत्तिकार-श्रीस्तम्भनपार्श्वनाथप्रकटीकार-श्रीअभयदेवसूरिशिष्य-श्रीपिण्डं. विशुवादिप्रकरणकारश्रीनिनवलमसूरि......" और यदि विचार करें कि पिण्डविशुद्धिकार पृथक् है ? तो फिर वे कौन थे ? किस गच्छ के थे? इत्यादि अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं जिमका समाधान करने के लिये किसी भी प्रकार का कोई भी प्रमाण नहीं है। तत्कालीन तीन चार शताब्दियों में खरतर गणि जिनवल्लम के अतिरिक कोई आचार्य की उपलब्धि ही जैन-साहित्य में नहीं होती है जो पिण्वविशुद्धिकार हो सके और खरतर
SR No.090361
Book TitlePindvishuddhi Prakaranam
Original Sutra AuthorUdaysinhsuri
AuthorBuddhisagar
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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