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________________ विनादि टीकाद्वयोः पैतम् उपोषात। अंथोत्र | विषय प्रतिपादन । गच्छीय गुरुपरम्पराओं के अतिरिक्त इनके संबंध में कोई उल्लेख भी नहीं मिलता। अत: यह सिद्ध है कि पिण्डविशुद्धिकार जिन- वल्लभगणि कोई पृथक् आचार्य नहीं है किन्तु अभयदेवाचार्य के शिष्य खरतरगाछीय ही है, तथा इनके सिद्धान्त मी सर्वमान्य है। पिण्ड विशुद्धिप्रकरण । आत्मसाधना की दृष्टि से पिण्ड-भोजन की शुद्धि होना अत्यावश्यक है, अन्यथा ' जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन' की उक्ति के अनुसार मानसिक शुद्धि नहीं हो सकती । इसीलिये श्रमण संस्कृति एवं श्रमण परम्परा में संयमी मुनियों का यह प्रमुख अंग माना गया है । पूर्व में भुतघर श्रीश-यभवरिने दशवकालिक सूत्र में और आचार्य भद्रबाहुस्वामीने पिण्डनियुक्ति में इस विषयका बहुत ही विस्तृत और सुन्दर पद्धति से प्रतिपादन किया है । परन्तु वह विस्तृत होने के कारण कण्ठस्थ करने में अल्प बुद्धिवालों की असमर्थता देख कर आचार्य जिनवल्लभसूरिने पिण्डविशुद्धि नाम से इस प्रकरण की स्वतन्त्र रचना की। इस प्रकरण में कुल १०३ पञ्च है। १-१०२ तक आयर्या छन्द में है और अन्तिम पद्य शार्दूलविक्रीडितवृत्त में। इस में प्रन्थकारने प्रथम और द्वितीय पद्य में नमस्कार और प्रयोजन कथन कर, ३-४ पद्य में गृहस्थाश्रित उत्पादन के १६ दोषों का नामोल्लेख मात्र किया है और ५ से ५७ तक इनका विस्तृत विवेचन किया है। पद्य ५८-५९ में साधु आश्रित उद्गम के १६ दोषों का नामोल्लेख है और ६० से ७६ तक इनका विस्तृत विवेचन है। इस प्रकार कुल गवेषणा और एषणा के मिला कर ३२ दोषों का वर्णन यहाँ पूर्ण होता है। तदनन्तर ग्रहणषणा के १० दोषों का ७७ वें पध में उल्लेख कर ७८-९३ तक इनका विस्तृत प्रतिपादन किया है। पश्चात् ९४ व पन में भक्षण-प्रासैषणा के ५ दोषों का उल्लेख और १०१ वक उनका विवेचन है।। X * *
SR No.090361
Book TitlePindvishuddhi Prakaranam
Original Sutra AuthorUdaysinhsuri
AuthorBuddhisagar
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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