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इन ग्रन्थों में सार्द्धशतक, पडशीति और पिण्डविशुद्धि ये तीनों ही सैद्धान्तिक अन्य बहुत ही महत्व के हैं। इन ग्रन्थों पर आचार्य मलयगिरि, धनेश्वराचार्य, हरिभद्राचार्य, मुनिबन्छावा, ओपन्द्राचार्य, यशोदेवाचार्य आदि ने तत्काल ही अर्थात् १२ वी शती में ही टीकाएं रचकर इनकी सार्वजनिक उपयोगिता सिद्ध की। और भी इनके प्रायः समग्र ग्रन्थों पर अनेक टीकाएं प्राप्त होती हैं, उन सब का उल्लेख, और गणिजी के काव्यशिल्य पर वल्लभभारती की प्रस्तावना में हम प्रकाश डालेंगे । अतः यहाँ पर कवि की विशदनाक्षता और टीकाकारों के व्यक्तित्व आदि पर विचार नहीं कर रहे हैं।
विरोधियों के असफल प्रयत्न आचार्य जिनवल्लभसूरि के व्यक्तित्व और असाधारण-प्रतिभा से उत्पीडित परवर्ती कई लेखकोंने असंभाव्य कल्पनाएं उत्पन्न कर उनके व्यक्तित्व को दूषित करने का प्रयत्न किया है। इस प्रकार के अवांछनीय दुधयत्न करनेवालों में, ( साहित्य में शोध करने पर ) हमें सर्वप्रथम उपाध्याय धर्मसागरजी के दर्शन होते हैं । धर्मसागरजी जैसे उद्भट विद्वान थे वैसे ही यदि शान्तिप्रिय
और शासनप्रेमी होते तो निश्चित ही महापुरुषों को कोटि में आते। पर शोक!!, उस शताब्दि में उनके जैसा दुराग्रही, कलहप्रेमी, उच्छखल और निहब दूसरा व्यक्ति नहीं हुआ, जिसको तत्कालीन गणनायकों-विजयदानमरि तथा विजयीरसूरि जैसों कोवारंवार बोल (आदेशपत्र) निकाल कर गच्छ बहिष्कृत करना पड़ा और उनके उत्सूत्र प्ररूपणामय ग्रन्थों को जलशरण करवाना पड़ा । अतः ऐसी अवस्था में धर्मसागरजी कल्पित विकल्पों का उत्तर देना तो नहीं चाहिये किन्तु आज भी उन्हीं के वचनों | का उद्धरण देकर समाज में विष फैलानेवाले मानविजयजी आदि कई विनप्रेमी मौजूद है। अतः उनका कुछ समाधान होजाय
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