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of rest अधिकारों हो; यहाँ अधिकार प्रदान करने के लिये उन्हें वाचनाचार्य बनाकर भेजा । जिवबलमणि के साथ उनके गुरुभ्राता बिनशेखर भी गये ।
न दिनों चत्यवासियों और वसदिवासियों में पर्याप्त संघर्ष रहा करता था, अतः एक चैत्यवासी आचार्य के शिष्य को ● आगम की याचना देना स्वीकार कर लेना एक वसतिवासी आचार्य के लिये संकट से खाली नहीं था। इसलिये श्रीअमयदेव'सूरि के मन में भी संशय उठा कि वह जिनवल्लभ को वाचना दें या नहीं ? परन्तु जब उनको विश्वास हो गया कि जिनमे के मन में सिद्धान्त-वाचना के लिये उत्कट अभिलाषा है और उसके लिये उपयुक्त पात्रता भी; तो उन्होंने सोचा कि-
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" मरिजा सह विजाए, कालम्मि आगए विऊ। अपतं च न वाइजा, पत्ते च न विमाणए |
अर्थात् अवसान समय के आने पर विद्वान् मनुष्य अपनी विद्या के साथ भले मर जाय, परंतु अपात्र को शास्त्रवाचना न कराय और पात्र के आने पर उसका ( बाचना न कराके ) अपमान न करे । इसलिये उन्होंने गणि जिनवल्लभ को वाचना देना 'स्वीकार कर लिया । और जैसे जैसे जिनवल्लभमणि अपने विद्याभ्यास से उन्हें सन्तुष्ट करते गये वैसे ही वे विद्यादान में अधिकाधिक उत्सादी होते गये। इसका परिणाम यह हुआ कि उन्होंने थोड़े से समय में ही सारे सिद्धान्त-प्रन्थों का अध्ययन पूर्ण कर लिया । जिनवभगणि की प्रखरबुद्धि और ज्ञान-पिपासा को देखकर आचार्यने उन्हें एक बहुत बड़े ज्योतिषज्ञ के पास -भेजा। इस विद्वानने आचार्य से पहिले ही कह रखा था कि आपका कोई योग्य शिष्य हो तो उसे मेरे पास भेजें जिससे में + यहाँ से आपकी ख्याति विपक्रम पनि के नाम से हुई।
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