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________________ पचात् एक जटिल समस्या उनके सम्मुख और आई कि ऐसे प्ररूपक तो संघ गण- बहिष्कृत हुआ करते हैं तो क्यों न इनको संवहिष्कृत सिद्ध कर दूं ? इसको सिद्ध करने के लियेकी साहिब सागर में काफी मोठा उगाया पर निष्फल हुए, अन्त में उनको एक प्रमाण मिल ही गया । वह यह था— " मङ्घत्राकृतचैत्यकूटपतितस्पान्तस्तरां ताम्यतः स्तन्मुद्रापाव्यनवः शच्च चन्दि कल्पितानी तपसोऽप्येतत्कस्थायिनः सम्भावनपुरवावस्व गोषः कुतः ॥३ यह आचार्य विनककुभसूरिप्रणीत सङ्घट्टक की ३३ वीं कारिका है। इसका अ समस्त टीलाने निहै:जून दोन- आचारवाडे चैत्रवासियों को देने के लिये बनवाये गये ल-कूद वर्षाबाट बो जो अन्यःकरण से उप रहे हैं परन्तु इन चैत्यवासियों को मुद्रा अर्थात्ः! हमारे चैन को र राज्यारू बन्म से यन्पे हुए होने के कारण जरा मी हिन्दु नहीं सकते है कि करते है परन्तु छूट दीपारियों के संघ की परम्परा में पड़े हुए है। ऐसे उसे वे वचनीय डंकल दीनभारित लिने जो दान कास-कहां ? अर्थात् जैसे दरिब समूह जब ध्यानक्रमहोता है प्रकार इन तापारियों के इलाके या बाा है उब सका प्राणीरूप हरियों को केटीका कतिचित् वपूर्ण
SR No.090361
Book TitlePindvishuddhi Prakaranam
Original Sutra AuthorUdaysinhsuri
AuthorBuddhisagar
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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