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________________ उपोद्घात कस्वा समीपेऽमय देवसरे येनोपसम्पद्ग्रहणं प्रमोदात् । पप रहस्यामृतमागमानां सूरिस्ततः श्रीजिनवल्लभोऽभूद् ॥' पिण्डविशुद्धि का यह उपोदूधात लिखते हुए मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है । इस ग्रन्थ के यशस्वी लेखक के व्यक्तित्व और कृतित्व की ओर मैं बहुत दिनों से आकृष्ट रहा हूँ । यही कारण है कि मैंने और मेरे विद्यागुरु श्रद्धेय डॉ. श्री फतहसिंहजी पम. ए, डी. लिट् ने वल्लभभारती के नाम से आचार्य श्रीजिनवल्लभरि की समस्त रचनाओं का एक आलोचनात्मक संग्रह प्रकाशित करने की योजना कई वर्ष बनाई थी और यह हर्ष की बात है कि वह अब शीघ्र ही पूरी भी होने जा रही है । अतः श्रीबुद्धिनिजी गणिने जब मुझ से यह अनुरोध किया कि उनके द्वारा सम्पादित इस पुस्तक की भूमिका में लिखूं तो मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया । सच पूछिये तो मैं गणिजी का अत्यन्त आभारी हूँ कि उन्होंने सुविहित संघ के पुनरुद्धारक नवाङ्गवृत्तिकार श्री अभयदेवाचार्य के पट्टधर कविचक्रवर्ति श्रीजिनवल्लभरि के प्रति अपनी श्रद्धाली भेट करने का अवसर प्रदान किया । कवि का जीवन-वृत्त जिनवाभरि के जीवन-चरित्र के विषय में अधिक खोज करने की आवश्यकता नहीं, उनके योग्य शिष्य युगप्रधान दादोनामधारक भीजिनदत्तसूरिने श्रीगणधर सार्द्धशतक में ६९ पथों में अपने गुरु की जो स्तुति की है उसकी टीका करते हुए क्षार्थी ।
SR No.090361
Book TitlePindvishuddhi Prakaranam
Original Sutra AuthorUdaysinhsuri
AuthorBuddhisagar
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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