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________________ उपोद्घात विविचैत्य | स्थापना। - - पिण्ड-16 विधिचैत्यों की स्थापना विशुदिन इस घटना से जिनवल्लभगणि के प्रावकों को अपनी उपासना के लिये एक स्वतंत्र देवगृह की आवश्यकता प्रतीत हुई। टीकाद्वयोः 'अतः उन्होंने गणिजी के सामने वो देवालय बनाने की इच्छा प्रकट की । गणिजीने भी उनके इस पुष्य प्रयत्न को श्रावकों का यावश्यक कर्त्तव्य व आचार बतलाया और श्रावकों ने भी निर्माण का कार्य प्रारंभ कर दिया। सत्कार्य में वित्र होते ही हैं। इन कार्य में मी अकारण ही वसुदेव नामक सेठ वित्ररूप बन कर उपस्थित हुआ और उसने इन देवगृह-निर्माण करने वाले भावकों | को कापालिक तक कह डाला । एक दिन बाहर जाते हुए गणिजी को वह मिल गया, तो उन्होंने बड़े प्रेम-पूर्वक उससे कहा कि भने वसुदेव ! गर्व करना ठीक नहीं है । जो श्रावक देवालय धनवा रहे हैं उनमें कोई ऐसा भी होगा जो तुम्हें कभी बन्धनमुक्त करेगा 1' उस समय तो वसुदेव संभवतः इन शब्दों के मर्म को न समझ सका। परन्तु कुछ दिनों बाद जब वह किसी अपराध के कारण राजा का कोपभाजन हुआ और उसे ऊंठ के साथ बांधकर के लेजाने की आशा हुई तो जिनवल्लमगणि के भक्त श्रावक साधारण नाम के सेठने ही उसको छुड़ाया। अन्त में उक्त दोनों मन्दिर पूर्ण हो गए और वाचनाचार्य जिनवल्लभ .गणि ने पार्श्वनाय और महावीर विधिचैत्यों की स्थापना कर दी। षड्यन्त्र का भण्डाफोड जिनवल्लभ मणि के बढ़ते हुए प्रभाव को कुछ लोग सहन न कर सके और वे उसको कम करने के लिये तरह तरह के | उपाय करने मे । किन्हीं मुनिचन्द्राचार्य ने अपने दो शिष्यों को जिनवल्लभजी के पास भेजा । प्रत्यक्ष में तो वे गणिजी से 14
SR No.090361
Book TitlePindvishuddhi Prakaranam
Original Sutra AuthorUdaysinhsuri
AuthorBuddhisagar
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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