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________________ ja सिद्धान्तवाचना के लिये आये थे परन्तु अप्रत्यक्ष में वे एक षड्यन्त्र का आयोजन कर रहे थे। जिनवल्लभगणि शुद्ध मन से उन दोनों को सिद्धान्तों का अध्ययन कराते थे, परन्तु वे दोनों येन केन प्रकारेण जिनवल्लभगणि के श्रद्धालु श्रावकों में उनके प्रति असद्भाव उत्पन्न करने में लगे हुए थे, और अपने सब कारनामों का समाचार अपने गुरु मुनिचन्द्राचार्य को लिखते रहते थे । एक वार संयोगवश उनका लिखा पत्र जिनवल्लभजी के हाथ आगया और सारा भण्डाफोड हो गया। सारा प्रसंग जानकर उनके मन में खेद उत्पन्न हुआ और उनके मुख से निकल पडा:-- आसीज्जनः कृतघ्नः, क्रियमाणतस्तु साम्प्रतं जातः । इति मे मनसि वितर्कों, भवितालोकः कथं भविता १ ॥ १ ॥ जिन लमगणि बड़े स्पष्टवादी थे और उनकी आलोचना बड़ी कटु होती थी। सभी विद्वान लोग बैठे हुए थे, बहुत से ब्राह्मण विद्वान भी आए हुये थे। इस वार व्याख्यान में निम्नलिखित गाथा आगई: विईण गिहीणं जाणं [१ ज ] पासथाईण वावि दद्दृणं । जस्स न मुज्झह दिडी, अमृतदिद्धिं तयं चिंति ॥ १ ॥ इस गाथा की व्याख्या उन्होंने बड़े विस्तार के साथ की और इस प्रसंग में चैव्यवासियों के साथ साथ ब्राह्मणों की मी तीव्र आलोचना की । ब्राह्मण लोग इस बात को सहन न कर सके और क्रुद्ध होकर व्याख्यान से उठ गये । उन्होंने एकत्र होकर सोचा कि किसी प्रकार बिनवहम के साथ विवाद करके इनको निष्प्रभ करना चाहिये । परन्तु जिनवल्लमगणि इससे तनिक भी "भयभीत नहीं हुए और उन्होंने निम्निलिखित पथ भोजपत्र पर लिखकर उनके पास भेजा: मर्यादाभीरमृतमयतया धैर्यगाम्भीर्ययोगाद्, न क्षुम्यन्ते च तावन्नियमितसलिला: सर्वदेते समुद्राः । 19 •
SR No.090361
Book TitlePindvishuddhi Prakaranam
Original Sutra AuthorUdaysinhsuri
AuthorBuddhisagar
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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