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________________ हुए और व्यवहार कुशल व्यक्ति का ही काम था, जो चैत्यवासियों के प्रधानाचार्य आचार्य द्रोणसूरि तक से समुचित सन्मान प्राप्त कर सके और अपने नवाड़ों की टीका पर उनकी छाप लगवा कर चैत्यवासियों द्वारा मान्य भी करा सके। जहां श्रीभदेवाचार्य के इस प्रयत्न को स्तुत्य कहना पड़ता है वहां यह भी मानना पड़ता है कि उन्हें उसके लिये कई बार अपने सिद्धन्तों को बलि देकर आचार-शैथिल्य भी स्वीकार करना पडा था परन्तु जिनवल्लभगणि दूसरे ही प्रकार के व्यक्ति थे, वे जिसका विरोध करते थे उसका बडे उप्ररूप में; और उन्हें किसी विषय में और किसी समय शिथिलता तनिक भी पसन्द नहीं थी। इनकी असफलता का एक कारण यह भी होता है कि वास त्याग करने से चैत्यवासी इनको अपना शत्रुसा समझने लगे होंगे और चैत्यवास के संसर्ग में रहने के कारण वसतिमार्गियों से उन्हें समुचित आदर और सहयोग न मिला होगा। इसी कारण संभवतः उन्होंने गुर्जरप्रदेश को छोड़कर मेदपाट ( मेवाद ) में जाना स्वीकार किया । यद्यपि वहां भी सर्वत्र चैत्यवासियों का जोर था, परन्तु नये प्रदेश में एक प्रतिभाशाली व्यक्ति के लिये अपना स्थान बना लेना अधिक सरल होता है। ' घर का जोगी जोगिया, आन गांव का सिद्ध ।' यह कहावत प्रसिद्ध ही है । इसीके अनुसार महात्मा गौतम बुद्ध को जो आदर बाहर मिला वह उनकी जन्मभूमि कपिलवस्तु में नहीं; भगवान महावीर को भी लिच्छवी गण मैं सफलता तब ही मिली जब वे अन्यत्र प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके थे । यही बात आधुनिक काल में आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी - दयानन्द के जीवन में भी हुई। अतः जिनवल्लभगणि को मेदपाट में अधिक सफलता प्राप्त होना स्वाभाविक ही था । • पाटप्रदेश में जाकर उन्होंने पहिले पहल चित्रकूट ( चित्तोड ) में कुछ दिन बिताने का निश्चय किया । वहां पर उनके •
SR No.090361
Book TitlePindvishuddhi Prakaranam
Original Sutra AuthorUdaysinhsuri
AuthorBuddhisagar
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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