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________________ CRkORGAREKe KNESCRcार ही इसकी रचना हुई है। अर्थात् अन्धकार और टीकाकार दोनों समक, आचाई उसमें ११९वें पच की व्याख्या करते हुए वे लिखते हैं: जिणवल्लहगणि" ति जिनवल्लभगणिनामकेन मतिमता सकलार्थसमाहिस्थानाङ्गाद्यङ्गोपाङ्गपञ्चाशकादिशात्रवृत्ति विधानावातावदातकीर्तिसुधाधवलितधरामण्डलानां श्रीमदभयदेवसूरीणां शिष्येण · लिखितं' कर्मप्रकृत्यादिगम्भीरशास्त्रेभ्यः समुद्धत्य हुन्छजिनबल्लभगणिलिखितम् .........।" अर्थात-सार्द्धशतक के प्रणेता स्थानांगसूत्रादि अंगोपांग और पंचाशक आदि के व्याख्याकार आचार्य अभयदेवसूरि के ही शिष्य थे। इससे भी यह बात अत्यन्त सष्ट हो जाती है कि अभयदेवसूरि इनको तपसम्पदा प्रदान कर अपना शिष्य घोषित कर चुके थे। केवल ये ही नहीं किन्तु धर्मसागरजी के ही पूर्वज तपगच्छीय श्रीहेमसमरि। ) अपने कल्पान्तर्वाच्य में लिखते हैं।"नवानीवत्तिकारक श्रीअभयदेवसूरि जिणे थमण सेढी नदीने उपकंठी श्रीपार्श्वनाथ तणी स्तुति करी, धरणेन्द्र सहाथै श्रीपार्थबिम्ब प्रत्यक्ष कीधो, शरीरतणौ कोढ रोग उपशमाव्यौ, तच्छिष्य जिनवल्लभसूरि हुआ, चारित्रनिर्मल अनेकनन्धतणी निर्माण कीधौ। और इसी प्रकार तपागच्छीय आचार्य मुनिसुन्दरसूरि स्वप्रणीत त्रिदशतरङ्गिणी गुर्वावली में लिखते हैं:"व्याख्याताऽमयदेवसूरिस्मलप्रज्ञो नवाङ्गथा पुन-मेव्यानां जिनदत्तसुरिरददादु दीक्षा सहस्रस्य त । प्रौढः श्रीजिनवल्लंभो गुरुरभृद्ज्ञानादिलक्ष्म्या पुन-ग्रन्थान् श्रीतिलकश्चकार विविधांश्चन्द्रप्रभाचार्यवत ॥१॥" ४ उ. जयसोमकृत प्रश्नोत्तरे अन्य देखें, जो स्वरूप काल में ही प्रश्नोत्तर-चत्वारिंशत् शतक ' के नाम से इस संपादक द्वारा प्रकाशित होने वाला है। 33 CSCIE
SR No.090361
Book TitlePindvishuddhi Prakaranam
Original Sutra AuthorUdaysinhsuri
AuthorBuddhisagar
PublisherJindattsuri Gyanbhandar
Publication Year
Total Pages290
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size8 MB
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