Book Title: Lonkashahka Sankshipta Parichay
Author(s): Punamchandra, Ratanlal Doshi
Publisher: Punamchandra, Ratanlal Doshi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // ॐ सिद्धेभ्यः // धर्म सुधारक-महान् क्रान्तिकार श्रीमान् लोकाशाह का संक्षिप्त परिचय न्नति और अवनति यह दो मुख्य प्रव. स्थाएँ अनादिकाल से चली आती हैं। जो जाति, धर्म या देश कभी उन्नत अवस्था में थे, वे समय के फेर से अवनत अवस्था को भी प्राप्त हुए, इसी प्रकार जो अस्ताचल HERECEIAS में दिखाई देते थे. वे उन्नति के शिखर पर भी पहुँचे, एकसी अवस्था किसी की नहीं रहती ! जैन इतिहास को जानने वाले अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी की. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 2 ) उन्नत अवनत अवस्थाओं से भली भांति परिचित हैं / तदनुसार जैन धर्म को भी कई बार अनुकूल और प्रतिकूल अवस्थाओं में रहना पड़ा / इतिहास साक्षी है कि भगवान् / पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी के मध्यकाल में कितना परिवर्तन होगया था, श्रमण संस्कृति में कितनी शिथिलता श्रा गई थी, धर्म के नाम पर कितना भयंकर अंधेर चलता था, नर हत्या में धर्म मी ऐसे ही निकृष्ट समय में माना जाता था. ऐसी दुरावस्था में ही अहिंसा एवं त्याग के अवतार भगवान् महावीर स्वामी का प्रादुर्भाव हुआ, और पाखण्ड एवं अन्ध विश्वास का नाश होकर यह वसुन्धरा एक बार और अमरापुरी से भी बाजी मारने लगी, मध्यलोक भी उर्द्धलोक (स्वर्ग धाम) बन गया, परमैश्वर्यशाली देवेन्द्र भी मध्यलोक में प्राकर अपने को भाग्यशाली समझने लगे, यह सब जैनधर्म की उन्नत अवस्था का ही प्रभाव था, ऐसे उदयाचल पर पहुँचा हुआ जैन धर्म थोड़े समय के पश्चात् फिर अवनत गामी हुश्रा, होते 2 यहां तक स्थिति हुई कि धर्म और पाप में कोई विशेष अन्तर नहीं रहा / जो कृत्य पाप माना जाकर त्याज्य समझा जाता था, वही धर्म के नाम पर श्रादेय माना जाने लगा। हमारे तारण तिरण जो पृथ्वी श्रादि षटकाया के प्राण वध को सर्वथा हेय कहते थे, वही प्राण वध धर्म के नाम पर उपादेय हो गया / मन्दिरों और मूर्तियों के चक्कर में पड़कर त्यागी वर्ग भी हम गृहस्थों जैसा और कितनी ही बातों में हम से भी बढ़ चढ़ कर भोगी हो गया। स्वार्थ साधना में मन्दिर और मूर्ति भी भारी सहायक हुई, मन्दिरों की जागीर, लाग, टेक्स, चढ़ावा आदि से द्रव्य प्राप्ति अधिक होने लगी / भगवान् के नाम पर भक्तों को उल्लू बनाना Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 3 ) बिल्कुल सहज होगया। बिना पैसे चढ़ाये धर्म की कोई भी क्रिया असफल हो जाती थी। धन, जन, सुख एवं इच्छित कार्य साधने के लिए दुखीशक्त जन विविध प्रकार की मान्यताएँ ( मांगनी ) लेने लगे। इस प्रकार त्यागी वर्ग ने धर्म के वास्तविक स्वरूप को भुलाकर विविध प्रकार से मन्दिर मूर्तियों का पूजना पूजाना और इस प्रकार पाखण्ड एवं अंध विश्वास का प्रचार करना ही अपना प्रधान कर्त्तव्य बना लिया था। धर्मोपदेश में भी वही स्वार्थ पूरित नूतन ग्रन्थ, कथाएँ, चरित्र और रास महातम्य श्रादि जनता को सुनाने लगे जिससे जनता बस मन्दिरों के सुन्दराकार पाषाण को ही पूजने में धर्म मानने लगी। सत्य धर्म के उपदेशक ढूंढने पर भी मिलना कठिन होगये, इस प्रकार अवनति होते होते जब भयंकर स्थिति उत्पन्न होने लगी, जब ऐसे निकृष्ट समय में जैन शासन को फिर एक महावीर की आवश्यता हुई, बिना महावीर के बहुत समय से गहरी जड़ जमाये हुए पाखण्ड का निकन्दन होना असम्भव था, ऐसे विकट समय में इसी जैन समाज को प्रकृति ने एक वीर प्रदान किया। विक्रमीय पन्द्रहवीं शताब्दी के वृद्धकाल में जैन समाज को उन्नत बनाने, और भगवान् महावीर के शास्त्रों में छिपे हुए पुनीत सिद्धांतों का प्रचार कर पाखंड का विध्वंस करने के लिये इसी जैन जाति में दूसरा धर्म क्रांतिकार श्रीमान् लोकाशाह का प्रादुर्भाव हुआ / श्रीमान् अपनी प्राकृतिक प्र. तिभा से बाल्यकाल ही में प्रौढ़ अनुभवियों को भी मार्ग दर्शक बन गये, आप रत्न परीक्षा में निपुण एवं सिद्धहस्थ थे एक बार इसी रत्न परीक्षा में आपने बड़े 2 अनुभवी एवं वृद्ध Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 4 ) जौहरियों को भी अपनी परीक्षा बुद्धि से चकित कर दिया। फलस्वरूप आप राज्यमान्य भी हुए, कुछ समय तक आपने राज्य के कोषाध्यक्ष के पद को भी सुशोभित किया, तदनन्तर किसी विशेष घटना से संसार से उदासीनता होने पर राज्य काज से निवृत्त हो, श्रात्मचिन्तन में लगे / श्रीमान् पठन मनन के बड़े शौकीन थे, उचित संयोगों में आपने जैन आगमों का पठन एवं मनन किया, जिससे आपके अन्तर्चक्षु एकदम खुल गये, पुनः 2 शास्त्र स्वाध्याय एवं मनन होने लगा, साथ ही वर्तमान समाज पर दृष्टिपात की / शास्त्रों के पठन मनन से श्रीमान् की परीक्षा बुद्धि एकदम सतेज होगई / समाज में फैले हुए पाखंड और अन्धविश्वास से आपको अपार खेद हुआ, ओर से छोर तक विषम परिस्थिति देखकर आपने पुनः सुधारकर धर्म को असली स्वरूप में लाने के लिये पूज्य वर्ग से तत् विषयक विचार विनिमय किया, परिणाम में शिथिलाचारिता एवं स्वार्थपरता का ताण्डव दिखाई दिया, जब वीतराग मार्ग की यह अवस्था इस वीर श्राद्धवर्य से नहीं देखी गई, तब स्वयं दृढ़ता पूर्वक कटिबद्ध हो प्रण किया कि-" मैं अपने जीतेजी जिन मार्ग को इस अवनत अवस्था से अवश्य पार कर शुद्ध स्वरूप में लाउंगा, और शुद्ध जैनत्व का प्रचार कर पाखंड के पहाड़ को नष्ट करूंगा, इस पुनीत कार्य में भले ही मेरे प्राण चले जांय पर ऐसी स्थिति मैं शक्ति रहते कभी भी सहन नहीं कर सकता" शीघ्र ही आपने सुधार का सिंहनाद किया, पाखंड की जड़ें हिल गई,पाखंडी घबड़ा गये, इस वीर का प्रण ही पाखंड को तिरोहित करने का श्री गणेश हुआ / लगे सद्धर्म का प्रचार करने, जनता भी मूल्यवान् वस्तु की ग्राहक होती है। जब तक सच्चे रत्न, Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की परीक्षा नहीं हो तभी तक कांच का टुकड़ा भी रत्न गिना जाता है, पर जब असली और सच्चे रत्न की परीक्षा हो नाती है तब कोई भी समझदार कांच के टुकड़े को फेंकते देर नहीं करता / ठीक इसी प्रकार जनता ने आपके उपदेशों को सुना, सुनकर मनन किया, परस्पर शंका समाधान किया परीक्षा हो चुकने पर प्रभु वीर के सत्य, शिव, और सुन्दर सिद्धांत को अपनाया, पाखंड और अन्धश्रद्धा के बंधन से मुक्ति प्राप्त की / एक नहीं सैकड़ों, हजारों नहीं, किन्तु लाखों मुमुतुओं ने भगवान महावीर के मुक्तिदायक सिद्धांत को अपनाया, सैकड़ों वर्षों से फैले हुए अन्धकार को इस महान् धर्म क्रांतिकार लोकमान्य लोकाशाह ने लाखों हृदयों से विलीन कर दिया / मूर्तिपूजा की जड़ खोखली होगई / यदि यह परम पुनीत श्रान्मा अधिक समय तक इस वसुन्धरा पर स्थिर रहती तो सम्भव है कि-निह्नव मत की तरह यह जड़पूजा मत भी सदा के लिये नष्ट हो जाता, किन्तु काल की विचित्र गति से यह महान् युगसृष्टा वृद्धावस्था के प्रातः काल ही में स्वर्गवासी बन गये, जिससे पाखंड की दृढ़ भित्ति बिलकुल धराशायी नहीं हो सकी। श्रीमान् के शानबल और श्रात्मबल की जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है, इसी श्रात्मबल का प्रभाव है कि एक ही उपदेश से मूर्तिपूजकों के तीर्थयात्रा के लिये निकले हुए वि. शाल संघ मी एकदम जड़पूजा को छोड़ कर सच्चे धर्मभक्त बन गये / क्या यह श्रीमान् के आत्मबल का ज्वलन्त प्रमाण नहीं है ? यद्यपि स्वार्थप्रिय जड़ोपासक महानुभावों ने इस नर नाहर की, सभ्यता छोड़कर भर पेट निन्दा की Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, किन्तु निष्पक्ष सुश जनता के हृदय में इस महापुरुष के प्रति पूर्ण श्रादर है / इतिहास इस अलौकिक पुरुष को सुधारक मानते हैं / यही क्यों ? हमारे मूर्तिपूजक बन्धुओं की प्रसिद्ध और जवाबदार संस्था 'जैनधर्म प्रसारक सभा भावनगर' ने प्रोफेसर हेलमुटग्लाजेनाप के जर्मन ग्रन्थ 'जैनिज्म' का भावान्तर प्रकाशित किया है उसमें भी श्रीमान् को सुधारक माना है, और सारे संघ को अपना अनुयायी बनाने की ऐतिहासिक सत्य घटना को भी स्वीकार किया है, देखिये वहां का अवतरण-- शत्रजयनी जात्रा करीने एक संघ अमदाबाद थइने जतो हतो तेने एणे पोताना मतनो करी नाख्यो” (जैन धर्म पृ० 72) ऐसे महान् आत्मबली वीर की द्वेषवश व्यर्थ निन्दा करने वाले सचमुच दया के ही पात्र हैं। हम यहां संक्षिप्त परिचय देते हैं / अतएव अधिक वि. चार यहां नहीं कर सकते / किन्तु इतना ही बताना आवश्यक समझते हैं कि-- श्रीमान् लोकाशाह ने, जैन धर्म को अवनत करने में प्रधान कारण, शिथिलाचार वर्द्धक, पाखण्ड और अन्ध वि. श्वास की जननी, भद्र जनता को उल्लू बनाकर स्वार्थ पोषण में सहायक ऐसी जैनधर्म विरुद्ध मूर्तिपूजा का सर्व प्रथम बहिष्कार कर दिया, जो कि जैन संस्कृति एवं प्रागम श्राज्ञा की घातक थी. यह बहिष्कार न्याय संगत और धर्म सम्मत था, और था प्रौढ़ अभ्यास एवं प्रबल अनुभव का पुनीत फल / क्योंकि मूर्तिपूजा धर्म कर्म की घातक होकर मानव Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को अन्धविश्वासी बना देती है और साथ ही प्राप्त शक्ति का दुरुपयोग भी करवाती है / मूर्तिपूजा से आत्मोत्थान की आशा रखना तो पत्थर की नांव में बैठ कर महासागर पार करने की विफल चेष्टा के समान है। .. . श्रीमान् लोकाशाह द्वारा प्रबल युक्ति एवं अकाट्य न्यायपूर्वक किये गये मूर्तिपूजा के खण्डन से जड़पूजक समुदाय में भारी खलबली मची / बड़े 2 विद्वानों ने विरोध में कई पुस्तकें लिख डाली किन्तु आज पांच सौ वर्ष होने आये अब तक ऐसा कोई भी मूर्तिपूजक नहीं जन्मा जो मूर्ति पूजा को वर्द्धमान भाषित या पागम विधि (आशा) सम्मत सिद्ध कर सका हो / श्राज तक मूर्ति पूजक बन्धुत्रों की ओर से जितना भी प्रयत्न हुआ है सब का सब उपेक्षणीय है। बस इसी बात को दिखाने के लिए इस पुस्तिका में श्रीमान् लोकाशाह के मूर्तिपूजा खण्डन के विषय में मूर्तिपूजकों की कुतर्कों का समाधान और श्रीमान् शाह की मान्यता का समर्थन करते हुए पाठकों से शांतचित्त से पढ़ने का निवेदन करते हैं / Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // श्री॥ . श्री लोकाशाह मत-समर्थन गुजराती संस्करण पर प्राप्त हुई सम्मतियाँ (1) भारत रत्न शतावधानी पंडित मुनिराज श्री रत्नचन्द्रजी महाराज और उपाध्याय कविवर मुनि श्री अमरचन्द्रजी महाराज साहब की सम्मति-- "लोकाशाह मत-समर्थन" अपने विषय की एक सुन्दर पुस्तक कही जाती है, लोकाशाह के मन्तव्यों पर जो इधर उधर से आक्रमण हुए हैं, लेखक ने उन सब का सचोट उत्तर देने का प्रयत्न किया है। और लोकाशाह के मंतव्यों को श्रागम मूलक प्रमाणित किया है / उदाहरण के रूप में जो मूल पाठ दिए हैं वे प्रायः शुद्ध नहीं हैं / अतः अगले संस्करण में उन्हें शुद्ध करने का ध्यान रखना चाहिए / Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 2 ) मतभेदों को एकान्त बुरा नहीं कहा जा सकता, और उन पर कुछ विचार चर्चा करना यह तो बुरा हो ही कैसे सकता है ? जहां मिठास के साथ यह कार्य होता है वह उभय पक्ष में अमिनन्दनीय होता है, और आगे चलकर वह मत भेदों को एक सूत्र में पिरोने के लिए भी सहायक सिद्ध होता है / हम आशा करेंगे कि--इस चर्चा में रस लेने वाले उभय पक्ष के मान्य विद्वान् इस नीति का अवश्य अनुसरण करेंगे। (2) श्रीमान् सेठ वर्धमानजी साहब पीतलिया रतलाम से लिखते हैं कि हमने लोकाशाह मत समर्थन पुस्तक देखी, पढ़कर प्र. सन्नता हुई / पुस्तक बहुत उपयोगी है अलबत्ता भाषा में कितनी जगह कठोरता ज्यादे है वो हिंदी अनुवाद में दूर होना चाहिए, जिससे पढ़ने वालों को प्रिय लगे। पुस्तक प्रकाशन में प्रश्नोत्तर का ढंग और प्रमाण युक्ति संगत है। (3) युवकहृदय मुनिराज श्री धनचन्द्रजी महाराज की सम्मति-- श्रापकी लोकाशाह मत समर्थन पुस्तक स्था० समाज के लिए महान् अस्त्र है। जो परिश्रम आपने किया उसके लिए धन्यवाद / ऐसी पुस्तकों की समाज में अत्यन्त आवश्यकता है। आपकी लेखनी सदैव जिनवाणी के प्रचार के लिए तैयार Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी जैन कार्यालय अहमदाबाद में पाई हुई सम्मतियों में से कतिपय सम्मतियों का मार (४)पूज्य श्री गुलाबचन्दजी महाराज (लिंबड़ी सम्प्रदाय ) लोकाशाह मत-समर्थन पुस्तक वाचतांघणो श्रानन्द थयो, आवा उत्तम प्रयास बदल लेखक रतनलाल दोशी ने धन्यवाद घटे छे, अनेक प्रमाणो सहितश्रा पुस्तक थी स्था. जैन समाज नी धर्म श्रद्धा दृढ़ थशे / .. (5) पूज्य श्री नागजी स्वामी ( कच्छ मांडवी) श्री लोकाशाह मत-समर्थन जैन जनता माटे घगुंज उपयोगी अने प्रमाणित पुस्तक छ। (6) पूज्य श्री उत्तमचन्द्रजीस्वामी, (दरिया पुरी सम्प्रदाय) लोकाशाह मत समर्थन नामनुं पुस्तक घणुंज सारुं छे। (7) श्रीयुत भाईचन्द, एम. लखाणी करांची लोकाशाह मत-समर्थन नामनुं पुस्तक वांची घणोज आनन्द थयो छ। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8) श्रीयुत रागवजी परसोत्तमजी दोशी प्राका लोकाशाणोज खुमती हालमां लोकाशाह मत समर्थन नी चोपड़ी छपायेल छे, ते मारा वांचवा थी घणोज खुशी थयो छु, रुपया 2) मोकलुं छं तेनी जेटली प्रतो आवे तेटली गामड़ामां प्रचार करवो छे माटे फायदे थी मोकलशो, श्रा बुक मां सूत्र सिद्धान्त अनुसार घणा सारा दाखला प्राप्या छे ते वांची हुं खुशी थयो र्छ / (8) श्रीयुत जेचन्द अजरामर कोठारी सिविल स्टेशन राजकोट से लिखते हैं कि आपनुं लोकाशाह मत-समर्थन अने मुखवस्त्रिका सिद्धि बन्ने पुस्तक वांच्या, बेत्रण वार अथ इति वांच्या, तेमां सिद्धांतों ना दाखला दलीलो अने विशेष करीने विरोधी पक्ष ना अभिप्रायो जणावी न्याय थी श्रमणोपासक समाजनी पूरे पूरी सेवा बजावी छे तेने माटे रतनलाल डोशी ने अखण्ड धन्यवाद घटे छ, समाजे कोई न कोई रूपमा तेमनी कदर करवी जोइए, श्री डोशी जेवा निडर पुरुष जमानाने अनुसरी पाकवाज जोहए। . (10) श्रीयुत बेचरदासजी गोपाखजी राजकोट से लिखते हैं कि-- लोकाशाह मत समर्थन पुस्तक वांच्यु छ, वांची मने धणोज अानन्द थयो छ, आमां जे काई पुरावा आप्या छ, ते बघा बराबर के, मुखवस्त्रिकासिद्धि छपायुं होय तो जमर मोकलशो। .. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 5 ) (11) सदानन्दी जैन मुनि श्री छोटालालजी महाराज एक पत्र द्वारा निम्न प्रकार से स्था. जैन के संपादक को लिखते हैं-- // अभिनन्दन // पोतानी महत्ता वधारवामां अंतराय पड़े, अने चैतन्य पूजानी महत्ता वधे ते मूर्तिपूजक समाजना साधु महापुरुषों अने गृहस्थों ने कोई पण रीते रुचतुं न होवा थी कोई न कोई बहानुं मलतां स्थानकवासी समाज ऊपर भाषानो संयम गुमावीने अनेक प्रकारना आक्षेपो बारम्बार कर्यांज करे छे, अने जाणे स्थानकवासी समाजनुं अस्तित्वज मटाडी दे, होय तेवो प्रयत्न सेवी रहेल छ। श्रा अाक्रमणनो न्याय पुरःसर भाषासमिति ने साचवी ने पण जवाब आपवा जेटलीए अमारी समाजना पण्डितो विद्वानो, अने नवी नवी मेलवेली पदवीना पदवीधरो ने जराए फुरसद नथी, मोटे भागे अपवाद सिवाय दरेक ने पोताना मान पान वधारवानी अने वधुमां पोताना नाना पाड़ाने येन केन प्रकारे जालवी राखवानी अने एथीए वधु मारा जेवाने अनेक अतिशयोक्ति भरेला पोतानी कीर्तिना बणगा फुकाववानी प्रवृत्ति प्राडे जराए फुरसद मलती नथी, एवा वखते-- Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. श्रीमान् रतनलाल दोशी सैलाना वाला शास्त्रीय पद्धतिए स्थानकवासी समाजनी जे पूर्व सेवा बजावी रहेल छे, ते अति प्रशंसनीय छ, अने एना माटे मारा अन्तःकरणना अभिनन्दन छ। घणां वर्षो पहेला प्रसिद्ध वक्ता श्रीमान् चारित्रविजयजी महागजे मांगरोल बंदरे जनसमूह वच्चे व्याख्यान करतां कहेलु के श्वेताम्बर जैन समाजना बे विभाग स्थानकवासी भने देरावासी 100 मा 18 बाबतोमा एक छे, मात्र बे बाबतो मांजःविचार मेद छे तो 68 बाबत ने गौण बनावी मात्र बे बाबतो माटे लडी मरे छे ते खरेखर मुर्खाई .छे, तेमनुं श्रा कहे, हाल वधारे चरितार्थ थतुं होय तेम जोवाय छे। टुंकामां श्रीयुत रतनलाल दोशीने तेमनी स्थानकवासी समाजनी, अप्रतिम सेवा माटे फरीवार अभिनन्दन प्रापी पोते श्रादरेल सेवा यक्ष ने सफल करवा, तेमां श्रावता विघ्नोथी न डरवा सूचना करी स्थानकवासी समाजना मुनिवर्ग अने श्रावक वर्गने श्राग्रह भरी विनन्ती करुं र्छ के-श्री रतनलाल दोशी ने बनती सेवा कार्यमां सहाय करवी, अने वधु नहीं तो छेवट स्थानकवासी जैनधर्मनी अभिवर्धा अर्थे तेनी सत्यता अर्थे तेमना तरफथी जे जे साहित्य प्रकट थाय तेनो वधुमां वधु फेलावो करवों, एक पण गाम एवं न होवू जोइए के ज्यां ए दोशीनां लखेल साहित्यनी 2-5 नकलो न होय / हिंदीमा होय तो तेनो गुजरातीमां अनुवाद करीने तेनो प्रचार करवो। . श्री रतनलाल दोशी ने तेमना समाज सेवानां कार्यमां साधन, संयोग, समय, शक्ति ए सर्वनी पूरनी अनुकूलता मले एवी श्रा अन्तरनी अभिलाषा छ / ॐ शान्ति ! Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० पू० जैन पत्र की विरोधी पालाचना "जैन" भावनगर ता. ८अगस्त 1637 पृष्ठ 733 अभ्यास अने अवलोकन अन्तर कलेश नोतरतुं ए योग्य प्रकाशन .. [ले० अभ्यासी ] . आजे एक मारा मित्रे स्थानकवासी जैन पत्रनी चौथा वर्षनी भेटनुं पुस्तक मने मोकल्युं छे, या पुस्तकनुं नाम छे "लोकाशाह मत-समर्थन". पुस्तकनुं नाम जोता मने घणीज खुशाली उपजी के ठीक थयु, श्रा पुस्तक लेखके लोकाशाहसंबंधे प्राचीन अर्वाचीन प्रमाणो शोधी काढी खास लोकाशाह नुं मन्तव्य प्रकशित कर्यु हशे, पाखुं पुस्तक उत्साह भरे पुरु वांची नाख्युं परन्तु श्राखा पुस्तकमां क्यांय लोकाशाहना मत नुं समर्थन नथी, समर्थन तो दूर रह्य किन्तु लोकाशाहना एक पण सिद्धांत नुं विधान पण नथी कर्यु. आपुस्तक वाचवा पछी मने लाग्युं के लोकाशाहनो कोई सिद्धांतज नथी, कवि. वर लावण्यसमये तो खास लख्युं हतुं के लोकाशाहे पूजा प्रतिक्रमण, सामायिक, पौषध, दया आदिनो लोपज कों छे, श्रा बधानो लोप लोकाशाहे को छे, तो पछी तेना मतनुं समर्थन शानुं थाय ? एटले भाई रतनलाल ने शोधवा नीकलबुं पड्यं छे, के लोंकानो मत शो ? अन्ते तेमां निराशा सांपड़वाथी तेओने श्वेताम्बर मत निन्दा पुराण रचवू पड्य होय एम लागे छ। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राजथी त्रण वर्ष पहेलां स्थानकवासी समाजना मनाता यशस्वी लेखक संतबालजीए स्थानकवासी कोन्फ्रेन्सना मुखपत्र 'जैन प्रकाशमां' श्रीमान् लोकाशाहना नामनी लांबी लेखमाला लखी हती ते वखते पण तेमणे लख्युं हतुं के लोंकाशाहनुं जीवन चरित्र नथी मलतुं छतांय तेमणे स्थानक मार्गी समाज ने पसंद पड़े तेवू सुन्दर कल्पनाचित्र दोरी ए चरित्र लांबी लेखमाला रुपे रजु कयु हतुं, अने तेमां केटलाक श्वेताम्बर प्राचार्यो माटे अमर्यादित ल खाण लखायेल! जेनो सुन्दर जवाब श्वे० समाजना विद्वान् साधुओए अने श्रावको प प्राप्यो हतो, अने चार एबुं तीव्र स्वरूप लीधुं हतुं के उभय पक्षने नजीक श्राववाना अाजे जे प्रयासो थाय छे ते ' शुभ मुदार वर्षो माटे दूरने दूर ठेलाय / ___आ कड़वो प्रसंग हजु क्षितिज पर थी दूर थतो आवे छे त्यां ए वितण्डावादमांज शासन सेवा होय तेम मानीने के गमे ते आशय थी अाजे श्रा पुस्तक प्रकट करी जैन समाजना दुर्भाग्यनो एक कड़वो प्रसंग उभो कर्यो छे। श्रा पुस्तक वांचनार कोई पण भाई स्हेजे कहेशे के प्रावा "लोकाशाह मत-समर्थन" ना नाम नीचे श्वेताम्बर प्राचार्यो नी पेट भरीने निन्दा करवामां आवी छे, मूर्तिपूजार्नुज मर्यादित शैलीए खण्डन करवामां आव्युं छे, मूर्तिपूजा, खंडन ए कांई भारतनी प्राचीन आर्य संस्कृति नथी, इस्लामी समयथी जगतमां मूर्तिपूजानो विरोध शुरु थयो अने ते अनार्य संस्कृतिना फल स्वरूप इस्लामी संस्कृतिमांज उत्पन्न थयेल इस्लामी युगमांज फलेल फूलेल ढुंढक मतना उपासकोए Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्ममा मूर्तिपूजानो विरोध दाखल कर्यो ए वस्तुना निरू. पण माटेज स्थानकवासी जैन पत्रे या पुस्तक प्रगट कर्यु होय तेम स्पष्ट जणाइ श्रावे छ। "सूरि महात्माअोना बहेकाववाथी' 'शुद्ध श्रद्ध थी पतित प्रात्मारामजी' 'भणावी राखेला तोता' 'श्रा गरबड़ गोटालो सावध गुरु घंटालो एज कर्यो' 'मूर्ति वांदवानो अडंगो लगायो छे' 'मूर्तिपूजा करवान शास्त्रीय विधान छे एवी डींग मारवीए मूर्खता छे' 'स्वामीजीए (आत्मारामजीए) डींग मारी छे तेमनुं कथन मिथ्या छे' 'चैत्यशब्द थी व्हेकी जइने मूर्तिपूजा, पाखण्ड सिद्ध कर, ए अन्याय छे' 'नियुक्तिनो अर्थ करतां आ स्थानकमार्गी पण्डित पोतानी पण्डिताइ बतावे छे' 'निर्गता युक्तिर्यस्याः नियुक्ति' 'खरी रीते स्थानकमार्गी समाज व्याकरणने व्याधिकरण माने छे एनाज श्रा प्रताप छे" . "श्रावी रीते श्रेणिक राजानु हमेशा 108 स्वर्ण जवथी पूजवानु कथन गपोड़ शस्त्र छे' 'महानि शिथमा मूर्तिपूजानुं खण्डन तथा स्वार्थीपोना पोकलो खुल्ला करवामां श्राव्यां छे' 'मूर्तिनी गुणगाथाओं कल्पित कहाणीयोज छे' प्रा देशमा गुलामीनू आगमन प्रायः मूर्तिपूजानी अधिकता थी थयुं छे' 'त्रिषष्ठिशलाका पुरुषना रचनार ने एबुं कयुं दिव्य ज्ञान प्रगट थयुं हतुं के जेथी तेमणे मरिचि ने वन्दन करवानी गप्प हाकी ? आ तो केवल गप्प सिवाय बीजु कशु नथी' 'पा मान्यता ( पूजानी ) एकान्त मिथ्यात्वोपासक तथा धर्म घातक छे' 'अरे स्वार्थीजनों! मिथ्या कुतर्क उत्पन्न करी हिंसाने केम प्रोत्साहन पापो छो'? 'सूरिश्रोए प्रा अन्धेर खातुं केम चलाव्यु'? Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (10) अमने तो तेमां तेमनी विषय लोलुपता तेमज स्वार्थान्धता जणाइ आवे छे' 'माटे ए जिनमूर्तिनो उपदेश आपनार नामधारी त्यागियो भोगियोनी अपेक्षाए वधारे पातकी सिद्ध थाय छे' 'श्रा आत्मारामजी महाराजना धर्मोपदेशनो नमुनो छ ? एमना अन्धश्रद्धालु भक्तो कदी पोतानी बुद्धि थी xxx विचारता नथी' 'ए गुरुवर्योए पोताना स्वार्थ पोषण तथा इन्द्रिय विषयोमे पूर्ण करवानो मार्ग काढ्यो छे" ___ "मा कलिकाल सर्वज्ञ तथा महान् प्राचार्यनी पदवी धारण करनार नामधारी जैन साधुओए केवी रीते पोताना साधुत्व ने लांछन लगाड्युं छे ? हेमचन्द्राचार्य, हतातो सर्वश? नहीं तो सर्वक्ष वगर भावी बात कोण कहे ? पक्षान्धता शुं नधी करावती" जैनधर्मना आत्मकल्याणकारी तीर्थो अने तीर्थ यात्रा माटे लेखक प्रा प्रमाणे लखे छे:___ "पहाड़ोमां रखड़ता, आत्मारामजीए पोते पण मूलमां धूल मेलवी ने अनन्त संसार परिभ्रमण करवा रूप फल प्राप्त कर्यु छे, मनमानी हांकी अर्थनो अनर्थ को छे, उत्तराध्ययन नियुक्तिकारे गौतम स्वामीने माटे साक्षात् प्रभुने छोड़ी पहाड़ोमां भटकवानुं लखी मार्यु" .. आवश्यक नियुक्तिकारे श्रावकोने मन्दिर बनावया, पूजा करवी वगैरे विषयोमा अडंगा लगाव्या' मूर्तिपूजक गुरुगरिष्ठ पं० न्यायविजयजी--न्यायनो खून करनार न्यायविजयजी' 'न्यायविजयजीए न्यायनुं खून कर्यु छ, श्रावी अभिनिवेशमां उन्मत्त व्यक्तियो' 'शुद्ध श्रद्धाथी पतित आत्मारामजी' 'मूर्तिपूजक बन्धुओ हमणा मूर्तिपूजा मानवा रूप उन्मार्ग पर छ। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 11 / श्रावी अावी घणीए पुष्पांजलिश्रो पा पुस्तकमां भरी छे, श्री सागरानन्दसूरिजी, श्री वल्लभसूरिजी, मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी, मुनि श्री दर्शनविजयजी. श्री लब्धिसूरिजी आदि श्वेताम्बर समाजना विद्वानो ने निंदवामां श्रा लेखक पागल वध्या छ। भावी रीते कोई पण वितण्डावाद उभो करवामां स्था० मार्गी समाज पहेल करे छे, कलेश नोतरे छे, अने तेनो कोइ जवाब आपे एटले दलीलना अभावे घबराह जाय, अशांति अशांतिनी बांग. पोकारे, संतबालनी लेखमालाना जवाबो अपाया पछी समाज शांत हती, पण प्रा नवा पंडितने ए शांति न गमी, एटले मूर्तिपूजाना खण्डननुं अने श्वेताम्बरा. चार्योनी निन्दानुं पुराण रची नाख्युं, खरी रीते संतबालना जवाबमां मुनिराज श्री ज्ञानसुन्दरजी चित मूर्तिपूजा का इतिहास अने श्रीमान् लोकाशाह बन्ने पुस्तको छे, आ बन्ने पुस्तको ढुंढक समाजने पवा सचोट उत्तर श्रापनारा छे के पंडित रतनलाल जेवानां सैकडो पुस्तको तेनी सामे झांखा पडी जाय तेम छे, मूर्तिपूजाना जे पाठो जेठमलजीए समकित. सारमां, हरखचन्दजीए राजचन्द्र विचार समीक्षामां, अमो. लखऋषिए पोतानी अागम बत्रीसीमां छप.व्यां तेज पाठों अने अर्थोथी ए पुस्तकोमा सिद्ध कर्यु छ के जिनमूर्तिना पाठो शास्त्रोमां छे, श्रा पाठो ने जुठा ठराववा श्रा पंडित बहार पड्या छे, पंडित बेचरदासना मूर्तिपूजा- विचारो माटे राय पसेणीय सूत्रनो तेमनो अनुवाद जोवानी हुंभलामण करुं छु / मुनि सम्मेलन द्वारा स्थापित प्रतिकार समिति ने खास सूचना छ के श्रा ग्रन्थर्नु अवलोकन करी तेमां शास्त्रना पाठो Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( 12 / ना नामे जे भ्रम जाल उभी करी छे तेनो जवाब प्रापे, श्रा भ्रम जाल खास करीने कानजी स्वामी ढुंढक मत छोडी निकल्या अने तेमनी पाछल बीजो समाज न जाय तेमने माटेज रचाणी छे, बाकी श्रा पुस्तकनो खरो जवाब नो कानजी स्वामी आदिए ढुंढक मत त्यजी, मूर्तिपूजा स्वीकारी ने भापीज दीधो छ। उक्त विरोधी लेख का उत्तर "स्थानकवासी जैन" पत्र में गुजराती में ता० 21-8-37 के पृष्ट 52 में और हिंदी में जैन पथ प्रदर्शक" में ता० 25-8-37 के अङ्क के पृष्ठ 5 के दूसरे कोलम से निम्न प्रकार से दिया गया है। मि अभ्यासी की अवलोकन दृष्टि . 'लोकाशाह मत-समर्थन पर मूतिपूजक 'जैन' पत्र के किसी पर्देनशीन अभ्यासी (विद्यार्थी की दृष्टि पड़ी। अ. भ्यासी महोदय ने ता०८ अगस्त 37 के अङ्क में 'अभ्यास अने अवलोकन' शीर्षक में जो कलम चलाई है वह वास्तव में उनके अपूर्ण अभ्यास की सूचिता है / यद्यपि अभ्यासी बन्धु ने लोकाशाह मत-समर्थन के लिए ऐसा कोई प्रयत्न नहीं किया, जिससे उसकी सत्य एवं प्रमाणिकता में बाधा पहुंचे, और मुझे अपने निबन्ध की सत्यता के विषय में लेखक को कुछ सूचना देनी पड़े, तथापि अभ्यासी महोदय के अभ्यास की अपूर्णता एवं तत् सम्बन्धी दृषणों को दूर करने के लिए निम्न पंक्तियां लिख देना उचित समझता हूँ। .: १-अभ्यासी बन्धु को 'लोकाशाह मत-समर्थन में लोंकाशाह के मत: का समर्थन ही नहीं सूझा यह तो है अवलोकन Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (13) की बलिहारी / इस पर से इतना तो सहज ही मालूम देता है कि-अभ्यासक महोदय कदाचित अभ्यास सम्बंधी प्रथम श्रेणी के ही छात्र (बालक) हों। जिस समाज के वे सपूत हैं उसके ग्रन्थकार ही श्रीमान् धर्मप्राण लोकाशाह को मूर्तिपूजा उत्थापक, मूतिपूजा के निषेधक कहकर सम्बोधन करते हैं, वे सब यह मानते हैं कि श्रीमान् लोकाशाह ने मूर्तिपूजा के विरुद्ध आवाज उठाई थी, बस अभ्यासी भाई को समझ लेना चाहिए कि उसी सत्य एवं सिद्धांत मान्य आवाज के समर्थन रूप यह पुस्तक है। इतना भी ज्ञान यदि अभ्यासी बंधु को होता तो उन्हें अपनी कलम कृपाण को चलाने का मौका नहीं आता। आगे चलकर अनऽभ्यासी बन्धु, श्रीमान् लोंकाशाह को सामायिक, पौषध, दया, दानादि के लोप करने वाले कहते हैं, पोर प्रमाण में लावण्यसमय का नाम उच्चारण करते हैं, यह सर्वथा अनुचित है। हमारे इन भोले भाई को ध्यान में रखना चाहिए कि-लोकाशाह के शत्रु उन पर चाहे सो श्रा. क्षेप करें पर वह प्रामाणिक नहीं कहा जा सकता, जिस प्रकार अभी थोड़े दिन पहले आपके इसी 'जैन' पत्र के किसी तुच्छ लेखक ने इस महान क्रांतिकार को वेश्या पुत्र कह डालने का दुःसाहस किया था ( और फिर दाम्भिक दिल गिरी प्रकट कर अपनी मृषावादिता प्रकट की थी) वैसे ही आगे चलकर फिर कोई महानुभाव आपके जैन पत्र के पूर्व के नीच आक्षेप वाले लेख का प्रमाण देकर लोकाशाह को वेश्या पुत्र सिद्ध करने की कुचेष्टा करे तो क्या वह प्रमाणित हो सकेगी ? हरगिज़ नहीं / इसी प्रकार जिन मूर्तिपूजकों ने Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (14) श्रीमान् लोकाशाह के विषय में पूर्व व पश्चात् . लेखनी उठाई है और गालियां प्रदान की है उनका प्रमाण देना सर्व. था अन्याय है। यदि अभ्यासी बन्धु जरा प्रौढ़ बुद्धि से विचार करते तो उन्हें सूर्यवत् प्रकट मालूम देता कि-जिन महापुरुष को मैं सामायिक, दया, दानादि के उत्थापक कहने की धृष्ठता करता हूं; जरा उनके अनुयाइयों की ओर तो मेरी अवलोकन दृष्टि डालूं कि- वे उक्त क्रिया करते हैं या नहीं? यदि इतना कष्ट भी आपने किया होता तो यह बृहद् भूल करने का अवसर नहीं पाता। * अरे अनऽभ्यासी बन्धु ! जरा लोकाशाह के अनुयाइयों की ओर तो अांख उठाकर देखो, उनके समाज में सामा. यिक, प्रतिपूर्ण पौषध, प्रतिक्रमण, त्याग, प्रत्याख्यान, दया, दान श्रादि किस प्रकार प्रचुर परिमाण में होते हैं / उनके सामने तो आपकी सम्प्रदाय में उक्त क्रियाएं बहुत स्वल्प मात्रा में होती हैं / फिर आपका अभ्यास रहित वाक्य किस प्रकार सत्य हो सकता है ? क्या जिस समाज में जो क्रियाएं प्रचुरता से पाई जाती हैं उनके लिए उनके पूर्वजों को उत्था पक कह डालना मूर्खता नहीं है ? अतएव लोकाशाह मतसमर्थन में जो मूतिपूजा विषयक विचार किया गया है वह लोकाशाह मत-समर्थन अवश्य है। . २-अनऽभ्यासी बन्धु लोकाशाह के लिए इस्लाम संस्कृति की दुहाई देते हैं, इस विषय में अधिक नहीं लिख. कर केवल यही निवेदन किया जाता है कि भाई साहब ! Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 15) प्रथम यह तो बताइए कि--यह पीतवसन, गृहस्थों से पम चम्पी, भार वहन अनर्थ वचन, दण्ड प्रयोग, आदि किस जैन साधुत्व संस्कृति का परिणाम है। महाशय ! न तो मूर्तिपूजा ही जैन संस्कृति है, न तत् सम्बंधी उपदेश देना जैन साधुत्व संस्कृति है। यह है केवल अजैन एवं सांसारिक संस्कृति ही, जिनके प्रभाव में आकर यह हेय प्रवृत्ति जैन समाज में इतनी वृद्धि पाई है। . ३-अभ्यासी महाशय भाषा शैली के लिए ऐतराज करते हैं, किन्तु इसके पूर्व इन्हें अपने कहे जाने वाले न्यायांभो. निधि, युगावतार महात्मा रचित सम्यक्त्व शल्योद्धार का भाषा माधुर्य देख लेना चाहिए, जि लमें उन मिष्ट भाषी महा. नुभाव ने साधुमार्गी समाज के परम माननीय पूजनीय श्री. श्रीमद् ज्येष्टमल्लजी महाराज के लिए निम्न शब्द काम में लिए हैं___ “जेठा, मूढ़मति, जेटा निव, जेठे के बाप के चौपड़े में लिखा है" आदि / ___ इसी प्रकार श्रीमनी महासती पार्वती जी को दुर्मतिजी श्रादि दुर्शब्द अमरविजयजी ने लिखे हैं, और जैन ध्वज में प्रसिद्धि प्राप्त बल्लभविजय जी का तो कहना ही क्या है ? उन्होंने तो पुराना रिकार्ड ही तोड़ डाला। इसके सिवाय अभ्यासी महानुभाव को ज्ञानसुन्दरजी के तुच्छ प्रकाशनों के शब्द तो मधुर ही भाषित होते होंगे, क्यों कि वे तो इनके गुरु हैं, और लिखा गया है इनके विरोधियों ( स्थानकवासियों) के विरुद्ध, उनके शब्द तो अश्लील होते हुए भी इन्हें अमृत सम मिष्ट लगते हैं, पर जरा उनका Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (16) सेम्पल भी तो चखिये, वे हमारे पूज्य लोकाशाह को निहव हमारे पूज्य महात्माओं को कुलिंगी, नास्तिक, उत्सूत्र प्ररु. पक, शासन भंजक, प्रादि नीच सम्बोधनों से याद किया है, जिसका कटुफल तो अभी उन्हें भोगना बाकी ही है। इसके लिए आपको व उन्हें तैयार रहना चाहिए / ४-जिस ज्ञानसुन्दरजी के वर्तमान प्रकाशन की अभ्यासी भाई सराहना करते हैं, उसमें कितनी कल्पितता भरी है, यह तो उसके उत्तर के प्रकट होने पर ही आपको मालूम होगा। ५--अभी तो अभ्यासी भाई में अर्थ समझने की भी शक्ति नहीं है, इसीसे वे वाक्यों का अनर्थ कर रहे है, मैंने अप्रमाणित नियुक्ति के लिए "निर्गतायुक्तिर्यस्याः" लिखा है पर हमारे अभ्यासी भाई इसे ही नियुक्ति का अर्थ समझ रहे हैं, क्या इससे हमारे अभ्यासी बन्धु प्रथम कता के अभ्यासक सिद्ध नहीं होते ? अन्त में मैं अभ्यासी महाशय को यह बतला देना चाहता हूँ कि- आपने बूंघट की ओट में रह कर मू० पू० प्रतिकार समिति से इसके खण्डन करने की जो प्रेरणा की है, इससे हमें किसी प्रकार का भय नहीं है / यदि कोई भी महाशय अनुचित रुप से कलम चलावेंगे तो उनका उचित सत्कार करने को हम भी तत्पर हैं / मैं अपने प्रेमी पाठकों से भी निवेदन करता हूं कि वे कथित अभ्यासी महाशय के झांसे में नहीं आकर शुद्धांतः करण से उसे अवलोकन कर सत्य के ग्राहक बनें / इति , रतनलाल डोशी, सैलाना-- Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (17) हिंदी संस्करण के विषय में लेखक का किंचित् निवेदन प्रस्तुत पुस्तक का गुजराती संस्करण प्रकाशित होने के थोड़े दिन बाद ही कई मित्रों की ओर से हिंदी संस्करण प्रकाशित कर देने की सूचनाएं मिली। यद्यपि मेरी इच्छा इस पुस्तक के हिंदी संस्करण प्रका. शित करने की नहीं थी, क्योंकि मैं चाहता था कि--मू० पू० श्री ज्ञानसुन्दरजी के मूर्तिपूजा के प्राचीन इतिहास में मूर्तिपूजा को लेकर हम पर जो अाक्रमण हुए हैं, उसी के उत्तर में एक ग्रन्थ निर्माण किया जाय, जिससे इस पुस्तक के हिंदी संस्करण की आवश्यकता ही नहीं रहे, किन्तु मित्रों के अत्याग्रह और उस ग्रन्थ के प्रकाशन में अनियमित विल. म्ब होने के कारण इस पुस्तक का हिंदी संस्करण प्रकाशित किया जारहा है। सर्व प्रथम मैंने "लोकाशाह मत-समर्थन" हिंदी में ही लिखा था, उसका गुजराती अनुवाद "स्थानकवासी जैन" के विद्वान तन्त्री श्रीमान् जीवणलाल भाई ने किया था, किन्तु असल हिंदी कॉपी वापिस मंगवाने पर बुक पोष्ट से भेजने से मुझे प्राप्त नहीं हो सकी, इसलिए गुजराती संस्करण पर से ही पुनः हिंदी अनुवाद किया गया। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस अनुवाद में मैंने बहुत से स्थानों पर बहुत परिवर्तन कर दिया है, परिवर्तन प्रायःभावों को स्पष्ट करने या विस्तृत करने के विचार से ही हुआ है, इसलिए गुजराती संस्करण वाले भाइयों को भी इसे देखना आवश्यक हो जाता है। जो सजन विद्वान् और संकेत मात्र में समझने वाले हैं उनके लिए तो प्रस्तुत पुस्तक ही ज्ञानसुन्दरजी की पुस्तक के उत्तर में पर्याप्त है, किन्तु जो भाई उन्हीं की पुस्तक का उत्तर और उनकी उठाई हुई कुतर्कों का खण्डन स्पष्ट देखना चाहें उन्हें कुछ धैर्य धरना होगा, क्योंकि--यह ग्रन्थ मात्र एक ही विषय का होने पर भी बहुत बड़ा हो जाने वाला है, अतएव ऐसा कार्य विलम्ब और शांति पूर्वक होना ही अच्छा है, अब तक उसका प्रकाशन नहीं हो जाय पाठक इससे ही संतोष करें। प्रस्तुत पुस्तक के विषय में जिन जिन पूज्य मुनि महाराजात्रों और श्राद्ध बन्धुओं ने अपनी अमूल्य सम्मति प्रदान की है उन सबका मैं हृदय से आभारी हूं। इसके सिवाय इस हिंदी संस्करण के प्रकाशन में आर्थिक सहायदाता अहमदनगर निवासी मान्यवर सेठ लालचन्दजी साहब का भी यहां पूर्ण आभार मानता हूं कि-जिनकी उदारता से 'आज यह पुस्तिका प्रकाश में आई। बस इतने निवेदन मात्र को पर्याप्त समझ कर पूर्ण करता हूं। विनीत लेखक Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (16) Do logo0ooooo ooooo 2@og Da QCXG DANG समर्पण NEKpoorycosycycocycocococonome * - --0000wwwcom तीर्थकर प्रभु द्वारा स्थापित, चतुर्विध संघ रूप तीर्थ की परम पवित्र सेवा में-- मूर्ति के मोह में पड़कर स्वार्थपरता, शिथिलता, और प्रशता के कारण कई लोग हमारी साधुमार्गी समाज पर अनुचित एवं असत्य आक्षेप करके सम्यक्त्व को दुषित करने की चेष्टा करते रहते हैं, उन आक्षेपकारों से हमारी समाज की रक्षा हो, और शंका जैसी सम्यक्त्व नाशिनी राक्षसी की परछाई से भी वञ्चित रहें, इसी भावना से यह लघु पुस्तिका भक्ति पूर्वक समर्पित करता हूं। 'किंकर-- --रत्न Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका जिस प्रकार सृष्टि सौन्दर्य में प्रार्यावर्त की शोभा अत्यधिक है, उसी प्रकार धार्मिक दृष्टि से भी यह देव भूमि तुल्य माना गया है / ऐतिहासिक क्षेत्र में भारत मुख्य रहा है और दूसरे देशों के लिये अनुकरणीय दृष्टान्त रूप है। धार्मिक दृष्टि से तो भारतवर्ष कैलास के समान इस अवनी पर सुशोभित रहा है / इतना ही नहीं सर्व धर्म व्यापक सिद्धान्त "अहिंसा परमोधर्मः' का पालन भी आर्यावर्त में ही बहुत काल से प्रचलित है। सभी धर्म वालों ने अहिंसा को महत्व दिया है। जैन धर्म का तो सर्वस्व अहिंसा धर्म ही है, और इसके लिये जितना भी हो सका प्रचार किया है। जिससे भारत के पुण्यशाली राजाओं ने अपने राज्य शासन में अहिंसा को जीवन मुक्ति का साधन मान कर प्रथम पद दिया है। * जब जब अहिंसा का महत्व घटकर हिंसा का प्राबल्य हुआ है तब तब किसी न किसी महान आत्मा का जन्म होता है, वे महात्मा विकार जन्य-हिंसा जनक-प्रवृत्तियों का विरोध कर नई रोशनी, नया उत्साह पैदा करते हैं। जिस समय वैदिक धर्मावलम्बियों ने हिंसा को अधिक महत्व दिया था, धर्म के नाम पर यज्ञ, याग द्वारा गौ, घोड़े तथा मनुष्य तक को भी अग्नि देव के स्वाधीन करने लगे थे, उस Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) समय भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध जैसी प्रबल व्यः क्तियों का प्रादुर्भाव हुश्रा। उन्होंने यज्ञ यागादिक का जोरशोर से विरोध किया। धर्म के नाम पर होने वाले प्रत्याचारों को नेस्तनाबूद कर दिया। धर्म तीर्थ व्यवस्था पूर्वक चलता रहे इसके लिये साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध श्रीसंघ की स्थापना की। दीर्घ काल तक उस संघ का नेतृत्व समर्थ मुनियों द्वारा होता रहा, और संघ का कार्य सुचारु रूप से चलता रहा / किन्तु धीरे-धीरे संघ में मत भिन्नता होने लगी, और उस मत भिन्नता ने कदाग्रह का रूप पकड़ कर एकता की शंखला को तोड़ डाला। यहां से अवनति का श्री गणेश हुा / जब साधुओं में आपस में भिन्नता हो गई तर स्वच्छन्दता के वातावरण का उन पर भी असर हुए बिना नहीं रहा। आखिरकार किसी समर्थ पुरुष का दबाव नहीं रहने से स्वछन्दता युक्त शिथिलाचार बढ़ने लगा। बढ़ते बढ़ते श्रीमान् हरिभद्रसूरि के समय में तो प्रकट रूप से बाहर भागया। उस समय शिथिलता का कितना दौर दौरा था, इसका वर्णन हम अपने शब्दों में नहीं करते हुए श्रीमान् हरिभद्रसूरि के ही शब्दों में बताते हैं। प्राचार्य हरिभद्रसूरिजी ने "संबोधप्रकरण" में बहुत कुछ लिखा है उसके थोड़े से वाक्य यहां उद्धत किये जाते हैं। ___ "श्रा लोको चैत्य अने मठ मां रहे छ / पूजा करवानो प्रारम्भ करे छे / फल फूल अने सचित्त पाणी नो उपयोग करावे छे / जिन मन्दिर अने शाला चणावे छ / पोतानो जात माटे देव द्रव्यनो उपयोग करेछ / तीर्थना पंड्या लोकोनी माफक अधर्म थी धननो संचय करे छे / पोताना भक्तो पर भभूति पण नाखे छ, सुविहित साधुश्रोनी पासे पोताना Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) भक्तो ने जवा देता नथी। गुरुश्रोना दाह स्थलो पर पीठो चणावे छे। शासननी प्रभावना ने नामे लड़ालड़ी करे छ। दोरा धागा करे छ / . .."आदि" इस प्रकार श्री हरिभद्राचार्य ने उस समय की श्रमण समाज का चित्र खींचा है। साथ ही इन बातों का खण्डन करते हुए लिखते हैं कि "ये सब धिक्कार के पात्र हैं, इस वेदना की पुकार किसके पास करें। इससे स्पष्ट मालूम होता है कि उस जमाने में शिथिलाचार प्रकट रूप से दिखाई देने लगा था / पूजा वगैरह के बहाने धन वगैरह भी लिया जाता था। यह हालत चैत्यवाद के नाम पर होने वाली शिथिलता का दिग्दर्शन करा रही है, किन्तु उन साधुओं की निजी चर्या कैसी थी, इसका पता भी श्रीमान् हरिभद्रसूरि जी के शब्दों में “संबोध प्रकरण" नामक ग्रन्थ से और जिनचन्द्रसूरि के "संघपट्टक" में बहुत-सा उल्लेख मिलता है। उनमें से कुछ अंश यहां उद्धत करते हैं, जिससे यह स्पष्ट हो जाय कि उस समय साधुओं की शिथिलता कितनी अ. धिक बढ़ गई थी। ____ "ए साधुओ सवारे सूर्य उगतांज खाय छ। बारम्बार खाय छ / माल मलीदा अने मिष्टान्न उड़ावे छे / शय्या, जोड़ा, वाहन, शस्त्र अने तांबा वगेरेना पात्रो पण साथे राखे छ। अत्तर फुलेल लगावे छ। तेल चोलावे छ। स्त्रीरोनो अति प्रसंग राखे छे। शालामां के गृहस्थी अोना घरमा खाजां वगेरेनो पाक करावे छ / अमुक गाम मारुं, अमुक कुल मारु, एम अखाड़ा जमावे छ / प्रवचन ने बहाने विकथा निन्दा करे छ / भिक्षा ने माटे गृहस्थ ने घरे नहिंजतां उपाश्रय Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) मां मंगावी ले छे / क्रय-विक्रयना कार्यों मां भाग ले छे / नाना बालकों ने चेलां करवा माटे वेचता ले छे। बैदु करे छ / दोरा धागा करे छे। शासननी प्रभावना ने वहाने लड़ालड़ी करे छ / प्रवचन संभलावीने गृहस्थो पासे थी पैसानी आकांक्षा राखे छे / ते बधामां कोई नो समुदाय परस्पर मलतो नथी। बधा अहमिंद्र छे / यथा छन्दे वर्ते छ / " आदि, इस प्रकार बतला कर अन्त में वे प्राचार्य ऐसा कहते हैं कि "श्रा साधुओ नथी पण पेट भराशोनुं टोलुं छे / " श्रीमान् हरिभद्रसरि के समय में ही जब स्वच्छन्दता एवं शिथिलता इतनी हद तक अपनी जड़ जमा चुकी थी तब श्रीमान् लोंका. शाह के समय तक यह कितनी बढ़ गई होगी, इसका अनुमान पाठक स्वयं ही कर सकते हैं। श्रीमान लोकाशाह को भी इसी शिथिलाचार को हटाने के लिए क्रान्ति मचानी पड़ी। उनसे ऐसी भयंकर परिस्थिति नहीं देखी गई। उन्होंने देखा, धर्म के नाम पर पाखण्ड हो रहा है। अव्यवस्था, रूढियों के ताण्डव नृत्य, स्वार्थ और विलास का श्रमणों पर अत्य. धिक अधिकार हो गया है। इसी के फल स्वरूप जैन धर्म का महत्व एक दम उतर गया। धर्म के नाम पर गरीब और निर्दोष प्रजा पर अत्याचार हो रहा है। कुरूढ़िये, वहम, अन्ध श्रद्धा और सत्ताशाही श्रादि से जनता त्रास को प्राप्त हो चुकी / शांति के उपासक श्रमण प्रचण्ड बन गये / समाज सर्व संघ के रक्षक होकर संघ की शक्तियों का भक्षण करने लगे। ऐसी हालत, वह भी धर्म के नाम पर, भला इसे एक सत्य धर्म का उपासक कैसे सहन कर सके ? श्रीमान शाह भी स्वच्छन्दता के ताण्डव को सहन नहीं कर सके / यही कारण है कि उन्होंने स्वछन्दता को दूर करने के लिये अपना तन, मन, धन, Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) सर्वस्व अर्पण कर दिया। क्रियोद्धार में मंलग्न होकर विकार को निकाल फेंका। उस समय विरोधी बलने भी तेजी से प्रतिवाद किया, किन्तु अन्त में विजय तो सत्य ही की होती है, यही हुआ। विरोधियों के विरोध के कारण ये हैं(१) श्रमण वर्ग का शैथिल्य (2) चैत्यवाद का विकार (3) अहं. भाव की श्रृंखला। इन विरोधी बलों ने कई ज्योतिधरों को निरुत्साही बना दिये थे। कयों को अपने फंदे में फंसा लिया था। और कइयों को पराजित कर दिया था। किन्तु श्रीमान् लोकाशाह इन सब विरोधी बलों को धकेलते हुए रास्ता साफ करते गये / और जैन धर्म को फिर से देदीप्य. मान बनाते गये। श्रमणवर्ग के शिथिलाचार का प्रबल बिरोध किया, तथा सत्य सिद्धांतों का प्रचार किया। धन्य है इन धर्म प्राण लोकाशाह को कि जिन ने धर्म के नाम पर अपने तन, मन, धन और स्वार्थ की बाजी लगा दी, और परार्थवृत्ति धारण कर फिर से जैन धर्म का सितारा चमका दया / इस प्रकार शिथिलाचार को दूर फेंकने वाले श्रीमान् लोकाशाह कितने वीर पुरुष थे, उनमें धीरता और गम्भीरता केतनी थी, इस विषय में कुछ लिखना सूर्य को दीपक दिखाके के समान है। ऐतिहासिक रष्टि से एक अंग्रेज लेखिका श्रीमान् शाह के विषय में लिखती है कि "About A. 1). 1452 x The Lonka Seot arose ind was followed by the Sthanakwasi sect, dated wbich coincide strikingly with the Lutheran and Paritan movements in Europe. [Heart of Jainism] इस पर से स्पष्ट मालूम होता है कि श्रीमान् लोका शाह ने हम पर बहुत उपकार किया / हमें ढोंग और धतिंग से पंचाया। धर्म निवृत्ति में ही है, इस बात को बताकर बाह्य Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आडम्बरों से पिण्ड छुड़वाया। इतनी क्रांति मचा कर भी लोकाशाह ने अपना मत या सम्प्रदाय स्थापित नहीं किया। किन्तु सत्य सनातन जैन धर्म के सिद्धान्तों का ही प्रचार किया / उन महानुभाव ने धर्म क्रांति में मूर्ति-पूजा का प्रबल विरोध किया, साधु संस्था का शैथिल्य दूर किया, नथा अधिकारवाद की शृंखला को तोड़ फेंकी / इतना करने पर भी धे एक संकुचित वर्तुल में ही बंधे हुए नहीं रहे, किन्तु विशाल क्षेत्र में पदार्पण किया, और निर्भय होकर धर्म सुधार किया। जिससे धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा रुकी, और अहिंसा धर्म का फिर से. उद्योत हुना / ऐसे अहिंसा धर्म को वृद्धिगत करने वाले वीर पुरुष का नाम लेकर कौन सत्य का पुजारी हर्षित नहीं होगा? आखिर सत्य तो सत्य ही रहता है। फलस्वरूप इन्हीं सिद्धान्तों को मानने वाले लाखों की संख्या में हुए / धर्म को बाह्य रूप नहीं देकर श्रा न्तरिक रूप दिया गया। प्राडम्बर में धर्म नहीं रह सकता, वहां स्वार्थ की छाया झलकती है / जहां स्वार्थ घुसा नहीं कि परोपकारी वृत्तियों के पैर उखड़े / धर्म प्राण लोकाशाह ने इन स्वार्थ पोषक सिद्धान्तों का प्रबल विरोध किया, और सत्य को सबके सामने रखा / उस सत्य को स्वीकार न करते हुए मिथ्यावादियों ने अपना प्रलाप तो चालू ही रक्खा, और भोले भाले जीवों को लगे भरमाने, "अरे भाई ? मूर्ति पूजा शाश्वति है। सूत्रों में स्थान स्थान पर मूर्ति पूजा का वर्णन श्राता है / मूर्ति पूजा से ही धर्म रह सकता है। हजारों वर्ष पहले की मूर्तियां है" श्रादि आदि कपोल कल्पित बातें कर कर भोली जनता को भ्रम में डालने लगे / अहा ! कितना अन्धेर ? कहां महावीर के जमाने में ही मूर्ति पूजा का प्रभाव, और कहां हजारों वर्ष ? हां, यक्षादिकों की मूर्तियां एवं यक्षा Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यतन शास्त्रों में वर्णित पाये जाते हैं, और प्राचीन मूर्तियां भी मिलती हैं / परन्तु कोई यह कहने का साहस करे कि नहीं, जिन मन्दिर-तीर्थकर मन्दिर-और मूर्तियां भी थीं, तो यह उसकी केवल अनभिज्ञता है। वास्तव में मूर्ति पूजा का श्री गणेश पहले पहल बौद्ध मतानुयायियों ने ही किया, वह भी बुद्ध निर्वाण के बाद ही, उसमें भी प्रारम्भ में तो बुद्ध के स्तूप, पात्र, धर्मचक्र आदि की पूजा की जाने लगी, तदन्तर बुद्ध की मूर्तियां स्थापित होने लगी। और इन्हीं बौद्धों की देखा देखी जैन धर्मानुयायियों ने भी कुशाण काल में जिन मंदिरों को बनाया, और पूजा प्रतिष्ठा करने लगे। __ जैन धर्म निवृत्ति प्रधान एवं आध्यात्मिक भावों का ही द्योतक है, इस बात को भूलकर ऊपरी आडम्बर में ही धर्म 2 चिल्लाने वाले कितने शिथिल होगये थे, धर्म के नाम पर क्या 2 पाखंड रचे जाने लगे, इसका वर्णन हम श्री हरिभद्र सूरिजी के शब्दों में ही व्यक्त कर आये हैं। यही कारण है कि जैन धर्म के असली प्राण भाव को उसी समय से तिलांजली देदी गई, और पतन का सर्वनो व्यापी बना दिया गया, हमारे कहने का प्राशय यह है कि जैनियों ने प्राडम्बर को महत्व देकर लाभ नहीं उठाया, वरन् उल्टा अपना गंवा बैठे। श्रीमान् लोकाशाह ने इन्हीं शिथिलताओं को दूर कर फिर से आडम्बर रहित अहिंसा धर्म को बतलाया, और शास्त्रानुकूल जीवन व्यतीत करने का उपदेश दिया। परन्तु खेद है कि फिर भी वही पुराना ढर्रा ( अपनी ही ढपली बजाना) चल रहा है कितने ही व्यक्ति अपना अधिकार न समझकर उल्टी बातों का फैलाप करते ही रहे, और वर्तमान में कर भी रहे हैं / इतना ही नहीं सत्य जैन समाज पर अघटित आक्षेप करने से बाज नहीं आते, और अपनी तू तू मैं मैं की Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाहू मचाते ही रहते हैं तथा जनता को धोखे में डालकर अपना स्वार्थ साधते हैं। प्यारे न्यायप्रिय महाशयों इन प्रेमियों का ताण्डव बढ़ने न पावे और वास्तविक सत्य क्या है इसको जनता भली प्रकार से जानले, इसी उद्देश्य को सामने रखते हुए श्रीमान् रतनलालजी डोशी सलाना निवासी ने यह पुस्तक 'लोकाशाह मत समर्थन' नामक अापके सामने रक्खी है / इसमें उन कुयुक्तियों का ही वास्तविक रीत्या जवाब दिया गया है, जो कि समाज में भ्रम फैलाने वाली एवं बाह्याडम्बर को महत्व देने वाली हैं / अन्त में शिथिलाचार पोषकों ने कैसी 2 कपोल कल्पित बातें लिखी हैं इसका दिग्दर्शन भी लेखक ने कराया है। इस पुस्तक को लिखकर श्रीमान् डोशीजी ने स्वधर्म रक्षा की है, और सत्यान्वेषी मुमुक्षुओं को सत्य घटना बताकर धर्म प्राण लोकाशाह और समस्त स्थानकवासी समाज की सेवा की है / तथा सत्य सिद्धान्तों के प्रति अपनी अटल श्रद्धा व्यक्त कर मिथ्या प्रलाप को जड़ से उखा. ड़ने की कोशिश की है / एतदर्थ आपको धन्यवाद / इस पुस्तक के लेखन का अभिप्राय किसी के सिद्धान्तों पर आक्रमण करना नहीं है, किन्तु मानव जीवन सत्यमय बने और सत्यमार्ग की गवेषणा कर आराधना करे यही है। अतः पाठकों से निवेदन है कि वे इस पुस्तक को शांत भाव से निष्पक्ष बनकर आद्योपान्त पढ़कर सत्य मार्ग का अवलम्बन करें तथा मिथ्या कुयुक्तियों से अपने को बचाते रहें / इत्यलम् सुक्षेषु किं बटुना? अजमेर शतावधानी. पं० मुनि श्रीरत्नचन्द्रजी महाराज का चरा किंकर तार-८-२६३६ ) मुनि पूनमचन्द्रः Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूचि . . . .00 विषय प्रवेश-चारित्र धर्म का स्वरूप 1 द्रौपदी 2 सूर्याभ देव ... 3 आनन्द श्रावक 4 अंबड़ संन्यासी 5 चारण-मुनि 6 चमरेन्द्र 7 तंगिया के श्रावक .... . .... 8 चैत्य शब्दार्थ . .... . 6 श्रावश्यक नियुक्ति और भरतेश्वर 10 महाकल्प का प्रायश्चित विधान 11 क्या शास्त्रों का उपयोग करना भी मू० पू० है ? 12 अवलम्बन .. " 13 नामस्मरण और मूर्ति पूजा .... . 14 भौगोलिक नकशे . 15 स्थापना-सत्य ... .... 16 नामनिक्षेप वन्दनीय क्यों ? . 17 शक्कर के खिलौने 18 पति का चित्र 16 स्त्री चित्र और साधु 20 हुण्डी से मूर्ति की साम्यता 21 नोट मूर्ति नहीं है। " .. . .. .. ... Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... (2) विषय . 22 परोक्ष वन्दन 23 वन्दन आवश्यक और स्थापना .... 24 द्रव्य निक्षेप 25 चतुर्विशंति स्तवन और द्रव्य निक्षेप ..... 26 मरीचि वन्दन .... .... 107 27 सिद्ध हुए तीर्थकर और द्रव्य निक्षेप 28 साधु के शव का बहुमान ... ... 113 26 क्या जिनमूर्ति जिन समान है ? ... 30 समवसरण और मूर्ति ... ... 31 क्या पुष्पों से पूजा-पुष्पों की दया है ? " 32 आवश्यक कृत्य और मूर्ति पूजा ... 133 33 गृहस्थ सम्बन्धी प्रारम्भ और मूर्ति पूजा .. 34 डॉक्टर या खुनी ... ... 130 35 न्यायाधीश या अन्याय प्रवर्तक .... 142 36 क्या 32 मूल सूत्र के बाहर का साहित्य मान्य है ? 146 (अ) धर्मविरुद्ध विधान : श्रा) कथा ग्रंथों के गप्पौड़े (इ) माहात्म्य ग्रन्थ (ई) मूल में मिलावट (उ) मूल के नाम से गप्पं (ऊ) अर्थ का अनर्थ (ऋ) टीका आदि में विपरीतता (ऋ) एक मिथ्या प्रयास 37 मू० पू० प्रमाणों से मू० पू० की अनुपादेयता 176 38 मू० पू० से सामायिक करना श्रेष्ठ है। ... 36 धर्म दया में है हिंसा में नहीं .... ... 40 अन्तिम निवेदन Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // ॐ नमः सिद्धेभ्यः // श्री लोकाशाह मत-समर्थन चरितधम्मे दुविहे पण्णत्ते तंजहा-अगारचरितधम्मे चेव, अणगारचरित्तधम्मे चेष // __ [स्थानांग सूत्र] अनन्त, अक्षय, केवलज्ञान, केवल दर्शन के धारक, विश्वोपकारी, त्रिलोक पूज्य, श्रमण भगवान श्रीमहावीर प्रभु ने भव्य जीवों के उद्धार के लिए एकान्त हितकारी मोक्ष जैसे शाश्वत सुख को देने वाले ऐसे दो प्रकार के धर्म प्रति. पादन किये हैं। जिसमें प्रथम गृहस्थ [ श्रावक ] धर्म और दूसरा मुनि (अणगार) धर्म है। ___ गृहस्थ धर्म की व्याख्या में सम्यक्त्व, द्वादशवत, ग्यारह प्रतिमा, आदि का विस्तृत विचार आगमों में कई जगह मिलता है / प्रमाण के लिए देखिए (१)गृहस्थ धर्म की संक्षिप्त व्याख्या आवश्यक सूत्र में इस प्रकार बताई है। - Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 2 ) पंचराहमणुव्वयाणं, तिरहं गुणव्वयाणं / चउण्हं सिक्खावयाएं, बारस विहस्स // (2) श्रावक जीवन और उसमें दैनिक-प्रासंगिक कर्तव्यों का वर्णन सूत्रकृतांग श्रु० 2 0 2 सूत्र 76 से जहाणामए समणोवासगा भवन्ति अभिगयजीवाजीया, उवलद्धपुरणपावा, पासवसंवस्वेयणा, णिज्जरा, किरियाहिगरणबन्धमोक्खकुसला, असहेज्जदेवासुरनागसुवनजक्खरक्खसकिन्नरकिंपुरिसगालगंधब्बमहोरगाइएहिं देवगणेहि निग्गंथात्रो पावयणाओ, अणहक्कमणिज्जा, इणमेव निग्गंथे पावयसो णिकिया निखिया, निवितिगिच्छा,लहा गहियट्ठा, पुच्छियहा, विणिच्छियट्ठा, अभिगयट्टा,प्रट्टि मिजपेमाणुगगरत्ता / अयमाउसो ! निगथे पावयणे अयं परमट्ट सेसे ऋणट्ट, ऊसियफलिहा अवंगुयदुवारा, अचियतंतेउरपरघरपवेसा, चाउद्दट्टमुदिपुरिणमासिणीसु पडि. पुग्नं पोसह सम्म अशुपालेमाणा समणे णिग्गंथे फासु-एस. णिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं, वत्थपडिग्गहकालपायपुच्छणेणं, ओसहभेसज्जेणं, पीढफलगसेज्जासंथारएणं, पडिलामेमाणा बहहिं सीलवयगुणवेरमणक्चक्खाणपोसहोवासेणं अहापरिम्गहिएहिं तवोकम्मेहिं, अप्पाणं भावे. माणा विहरंति // 7 // Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 3 ) तेणं एयारूवेण विहारेणं विहरमाणा बहूहि वासाहि समणोवासगपरियागं पाउणति, पाउणिता पाराहसि उप्पन्नसि वा अणुप्पन्नसि वा बहूई भत्ताई प्रणरणाई छेदेइ बहूई भचाई अणपणाई छेदेइत्ता पालोइयपडिक्कता समाहिपचा कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवताए उवत्ता. रो भवंति तंजहा महड्ढिएसु महज्जुइएसु जाव महासुखेसु सेसं त चेव जाव एस ठाणे पायरिए जाव एगंतसम्म साहू / (3) योगशास्त्र में हेमचन्द्राचार्य ने सम्यक्त्व पूर्वक बारह व्रत का विवेचन किया है, देखो प्रकाश 1 अंतिम दश श्लोक से दूसरे प्रकाश तक। (4) त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र में भी श्री हेमचन्द्राचार्य ने प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ स्वामी की देशना का वर्णन करते हुए गृहस्थ धर्म के सम्यक्त्व सहित बारह व्रत की विस्तृत व्याख्या की है। ___(5) ऐसे ही उपासकदशांग सूत्र में आदर्श रूप दश श्रावकों के जीवन में उपादेय नैतिक धार्मिक क्रिया का शिक्षा लेने योग्य विस्तृत इतिहास बताया गया है, भगवती, शाताधर्मकथा श्रादि सूत्रों में भी श्रावक धर्म के पालकों का इतिहास उपलब्ध होता है। इस प्रकार जहां कहीं भी श्रावक धर्म का निरूपण और इतिहास मिलता है उसका मतलब सूत्र कृतांग के सदृश ही है। सिवाय इसके गृहस्थ धर्म के विधि नियमादि का उपदेश Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर श्रमण धर्म के लिये विधि विधान बतलाने वाले अनेक शास्त्र हैं, जैसे श्राचाराङ्ग सूत्रकृताङ्ग, ठाणाङ्ग, समवायाङ्ग विवाहप्राप्ति, दशवकालिक, उत्तराध्ययन आदि: इन सूत्रों में त्यागी वर्ग के लिये हलन, चलन, गमनागमन, शयन, मिता गमन, प्रतिलेखन, प्रमार्जन, पालाप-संलाम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, आराधन, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, आदि अनेक श्रावश्यक अत्यावश्यक, अल्पावश्यक कायों की विधि का विधान करने में आया है, यहां तक कि रात्रि को निद्रा लेते यदि करवट फिराना हो तो किस प्रकार फिराना, मल मूत्रादि किस प्रकार परिष्ठापन करना, कभी सूई, कैंची, चाकू या चने की श्राव. श्यकता हो तो कैसे याचना, फिर लौटाते समय किस प्रकार लौटाना, अन्य मार्ग न होने पर कभी एकाध बार नदी पार करने का काम पड़े तो किस प्रकार करना, आदि विधियों का विस्तृत विवेचन किया गया है। छेद सूत्रों में दराड विधान किया गया है कि उसमें कितने ही ऐसे कार्यों का भी दण्ड बताया गया है कि जिनका मुनि जीवन में प्रायः प्रसंग मी उपस्थित नहीं होता। इतने कथन से हमारे कहने का यह प्राशय है कि परमोपकारी तीर्थकर महाराज ने जो प्रागार और अणगार धर्म बताया है, उसमें "मूर्ति-पूजा" के लिए कहीं भी स्थान नहीं है, न मूर्ति पूजा धर्म का अंग ही है। हमारे कितने ही मूर्ति पूजक बन्धु यों कहा करते हैं कि "मूर्ति-पूजा सूत्रों में सैकड़ों जगह प्रतिपादन की गई है" किन्तु उनका यह कथन एकान्त मिथ्या है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) प्रथम तो मूर्ति-पूजक गृहस्थ लोगों का यह कथन इनके माननीय धर्म गुरुत्रों के बहकाने का ही परिणाम है, क्योंकि इनके गुरुवर्यों ने सूत्र स्वाध्याय के विषय में श्रावकों को अयोग्य ठहरा कर इनका अधिकार ही छीन लिया है / जिस से कि ये लोग खुद अागम से अनभिज्ञ ही रहते हैं, और गुरुओं से सुनी हुई अपनी अयोग्यता के कारण सूत्र पठन की ओर इनकी रुचि भी नहीं बढ़ती, यदि किसी जिज्ञासु के मन में श्रागम वांवन की भावना जागृत हो तो भी गुरुप्रो की बताई हुई अयोग्यता और महापाप के भयसे वे अागम वांचन से वंचित ही रहते हैं, उन्हें यह भय रहता है कि कहीं थोड़ा सा भी आगम पठन कर लिया तो व्यर्थ में महापाप का बोझा उठाना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में वे लोग 'बाबा वाक्यं प्रमाणं' पर ही विश्वास नहीं करें तो करें भी क्या ? ____ इस प्रकार गृहस्थ वर्ग को अन्धकार में रखकर पूज्य वर्ग स्वेच्छानुसार प्रवृत्ति करे इसका मुख्य कारण यही हो सकता है कि यदि श्रावक वर्ग को सूत्र पठन का अधिकार दिया गया, तो फिर सत्यार्थी, तत्व गवेषी अभिनिवेष-मिथ्या स्व-रहित हृदय वाले, मुमुक्षुओं की श्रद्धा हमारी प्रचलित मूर्ति पूजा पद्धति को छोड़कर शुद्ध मार्ग में लगजायगी, जिससे हमारी मान्यता, पूजा, स्वार्थ, एवं इन्द्रिय पोषण में भारी धका लगेगा। देखिये इन्हीं के विजयानन्द सूरि स्वकृत "प्रशान-तिमिर-भास्कर" की प्रस्तावना पृ० 27 पं०३ में लिखते हैं कि 'जब धर्माध्यक्षों का अधिक बल होजाता है तब वे ऐसा बन्दोबस्त करते हैं कि कोई अन्य जन विद्या पढ़े नहीं Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेकर पढे तो उसको रहस्य बताते नहीं, मनमें यह समझते हैं कि अपढ़ रहेंगे तो हमको फायदा है, नहीं तो हमारे छिद्र काढ़ेंगे, ऐसे जानके सर्व विद्या गुप्त रखने की तजवीज करते हैं, इसी तजवीज ने हिंदुस्तानियों का स्वतंत्र पणा नष्ट करा और सच्चे धर्म की वासना नहीं लगने दी, और नयेर मतों के भ्रम जाल में गेरा और अच्छे धर्म वालों को नास्तिक कहवाया। यद्यपि आत्मारामजी का यह प्राक्षेप वेदानुयायियों पर है किन्तु वे स्वयं अपने शब्दों का कितने अंशों में पालन करते थे , इसका निर्णय इन्हीं के बनाये 'हिंदी सम्यक्त्व शल्योद्धार' चतुर्थ वृत्ति के 'श्रावक सूत्र न पढ़े' शीर्षक प्रकरण से हो सकता है, इस प्रकरण में श्राप एकान्त निषेध करते हैं / कुछ भी हो पर स्वामीजी का कारण तो सत्य था सो अज्ञान तिमिर भास्कर में बता ही दिया, उन्हीं के शब्दों से यह स्पष्ट हो जाता है कि अपने स्वार्थ पर कुठाराघात होने के कारण ही श्रावकों को खूब पठन में अनधिकारी घोषित किया गया है। १-श्रावक सूत्र पढ़ सकता है या नहीं ? यह विषय एक स्वतंत्र निरन्ध की आवश्यकता रखता है / यहां विषयान्तर के भय से उपेक्षा की जाती है। इतना होते हुए भी जो इने गिने पढ़े लिखे अागम वांचक व्यक्ति हैं वे अपने गुरुओं के कथन को असत्य मानते हुए भी उनके प्रभाव में श्राकर तथा दुराग्रह के कारण पकड़ी हुई Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (7 ) हठ को छोड़ते नहीं हैं / पंडित बेचरदासजी जैसे तो बिरले ही होंगे जो इस विषय में गुरुओं की परवाह नहीं करते हुए सूत्रों का अध्ययन-मनन करके मू०पू० विषयक सत्य हकीकत प्रकट कर अज्ञान निद्रा में सोई हुई जनता के समक्ष सिद्ध कर दिखाई उसका भाव यह है कि-- "मूर्ति-पुजा आगम विरुद्ध है / इसके लिये तीर्थंकरों ने सूत्रों में कोई विधान नहीं किया। यह कल्पित पद्धति है"। देखो-'जैन साहित्यमां विकार थवा थी थयेली हानि' या हिंदी में 'जैन साहित्य में विकार'। . इस सत्य कथन का दण्ड भी पंडितजी को भोगना पड़ा मूर्ति-पूजक समाज ने आपका बहिष्कार कर दिया, शाब्दिक बाण वर्षा की झड़ी लग गई, सद्भाग्य से पंडितजी के मूल्य वान शरीर पर आक्रमण नहीं हुआ, इसलिए यदि कोई सत्य विचार रखते भी हैं तो सामाजिक भय से सत्य समझते हुए भी प्रकट करते डरते हैं। इत्यादि पर से यह स्पष्ट होगया.कि- हमारे ये भोले भाई गुरुओं के पढ़ाये हुए तोते हैं, इसलिए शास्त्रज्ञान से प्रायः अनभिज्ञ इन बन्धुओं को कुछ भी नहीं कहकर इनके गुरुषों की दलीलों को ही कसौटी पर कसकर विचार करेंगे जिससे पाठकों को यह मालूम हो जाय कि-इनकी युक्ति और प्रमाणों में कितना सत्य रहा हुआ है / पाठकों की सरलता के लिए हम इनकी दलीलों का प्रश्नोत्तर रूप में समाधान करते हैं। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8) १-द्रौपदी प्रश्न-द्रौपदी ने जिन प्रतिमा की पूजा की है जिसका कथन 'ज्ञाता धर्म कथांग' में है और वह श्राविका भी यह उसके 'णमोत्थुणं' पाठ से मालूम होता है, इससे मूर्ति पूजा करना सिद्ध होता है. फिर आप क्यों नहीं मानते ? , उत्तर-द्रौपदी के चरित्र का शरण लेकर मूर्ति-पूजा सिद्ध करना, वस्तु स्थिति की अनभिज्ञता, और बागम प्रमाण की निर्बलता जाहिर करना है। यहां असलियत को स्पष्ट करने के पूर्व पाठकों की सरलता के लिए 'जिन' शब्द का अर्थ और उसकी व्याख्या करदेना उचित समझता हूं। जिन शब्द के मूर्ति पूजक, प्राचार्य श्री हेमचन्द्रजी ने निम्न चार अर्थ किये हैं। 1. तीर्थंकर 2. सामान्य केवली 3. कंदर्प कामदेव 4. नारायण हरि / ( हेमीनाम माला ) (1) तीर्थङ्कर बाह्य और अभ्यंतर शत्रुओं को जीतने वाले अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र, अनन्त बल के धारक, देवेन्द्र नरेन्द्रादि के पूजनीय, 34 अतिशय 35 वाणी अतिशय के धारक, विश्व वंद्य, साधु आदि चार तीर्थ की स्थापना करने वाले तीर्थङ्कर प्रथम 'जिन' हैं। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (2) सामान्य केवली-बाह्या-भ्यन्तर शत्रुओं से रहित, अनन्त झानादि चतुष्टय के धारक, कृतकृत्य केवली महाराज द्वितीय 'जिन' हैं। ये दोनों प्रकार के 'जिन" भाव 'जिन' हैं / इनके शरण में गया हुआ प्राणी संसार सागर को पार कर मोक्ष के पूर्ण सुख का भोक्ता बन कर जन्म मरण से मुक्त होता है। ____ कंदर्प (कामदेव)-यह तीसरा दिग्विजयी 'जिन' है, जिसमें देव, दानव, इन्द्र, नरेन्द्र, व मनुष्य, पशु, पक्षी, सभी को अपने प्राधीन में रखने की शक्ति है। . इस देव के प्रभाव से बड़े 2 राजा महाराजाओं के आपस में युद्ध हुए हैं / रावण, पद्मोत्तर, कीचक, मदन रथ, आदि महान नृपतित्रों के राज्यों का नाश कर उन्हें नर्क गामी बनाया है। बड़े 2 ऋषि मुनियों के वर्षों के तप संयम को इस कामदेव ने इशारे मात्र से नष्ट कर उन्मार्ग गामी बना डाला है। नन्दीसेण जैसे महात्मा को इस जिन देव ने अपने एक ही झपाटे में धराशायी कर अपना पूर्ण आधिपत्य जमा दिया, इसी विश्वदेव की प्रेरणा से ही तो एक तपस्वी साधु विशाल नगरी के नाश का कारण बना / इस देव की लीला ही अवर्णनीय है। यह बड़े 2 उच्च कुल की कोमलागियों के कुल गौरव का नाश करते शरमाता नहीं, अनेक महा सतियों को इस जिन देव की कृपा से प्रेरित हुए नरपिशाचों द्वारा भयङ्कर कष्ट सहन कर दर दर मारी मारी फिरना पड़ा। समाज का अपमान सहन कर अनेक प्रकार की यातनाएं Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 10) सहन करना पड़ी। बड़े 2 उच्च खानदानी युवकों को वेश्यागामी, परदार-व्यसनी, बना कर घर 2 भीख मांगते इसी ने तो बनाये हैं। आज भारत की अधोगति, बल, वैभव, उच्च संस्कृति का नाश यह सभी इसी जिन-देव के कृपा कटात का फल है। पुराणों की इन्द्र, चन्द्र, नरेन्द्र, महेश, गौतमऋषि आदि की कलंक कथाएं भी इसी देव की कृपा का परिणाम वर्तमान समय में भी पुनर्विवाह की प्रथा अनेक हिन्दुओं का मुसलमान, ईसाई, आदि बन जाना कन्या-विक्रय, वृद्धविवाह, भ्रण-हत्या, श्रादि का होना इत्यादि जितनी भी गुण गाथाएं इस विश्वदेव की गाई जाय उतनी थोड़ी है। इस तरह यह कामदेव भी तृतीय श्रेणी का 'जिन' है। (4) नारायण (वासुदेव)-तीन खण्ड के विजेता अपने बाहुबल से अनेक युद्धों में अनेक महारथियों को पराजित कर सम्पूर्ण तीन खण्ड में निष्कंटक राज्य करने वाले ऐसे वासुदेव भी चौथी श्रेणि के 'जिन' है। यह तीसरी और चौथी श्रेणि के जिन द्रव्य जिन हैं। इनसे संसार के प्राणियों का उद्धार नहीं हो सकता। तृतीय श्रेणि का जिन तो तीनों लोक बिगाड़ता है, और जितना प्रभाव अन्य तीन जिन देवों का नहीं उतना इस कामदेव जिन का है, इसके अाश्रय में जितने प्राणी हैं उतने अन्य तीनों जिन के नहीं। नोट--' बुद्ध को भी जिन कहा गया है। सूत्रों में अव. धिज्ञानी, मनपर्ययज्ञानी को भी जिन कहे हैं। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 11) जिन शब्द की इतनी व्याख्या कर देने के बाद द्रौपदी के कथन में वास्तविकता क्या है, यह बताया जाता है। द्रौपदी का वर्णन ज्ञाता धर्मकथाङ्ग सूत्र के १६वें अध्ययन में विस्तार पूर्वक प्राता है, जिसका संक्षिप्त सार यह है कि द्रौपदी ने सर्व प्रथम नागश्री के भव में धर्म-रुविनामक महान् तपस्वी को मास खमण के पारणे में भिता के समय कड़वी तुम्बी का हलाहल विष समान शाक जान-बूझकर बहिराया। और इस तरह उन महान तपस्वीराजके जीवनान्तमें कारण बनी, फल-स्वरूप जन्मजन्मान्तर में अपरिमित दुख सहती हुई मनुष्य भव में आई, शास्त्र में स्पष्ट बताया है कि सुकुमालिका (द्रौपदी का जीव ) चारित्र की विराधक हो गई और एक वेश्या को पांच पुरुषों के साथ क्रीड़ा करती देखकर उसने ऐसा निदान कर लिया कि-'यदि मेरी तपश्चर्या का फल हो तो भविष्य में मुझे भी पांच पति मिले, और मैं उनके साथ अानन्द क्रीड़ा करूं' ऐसा निदान करके बालोचना प्रायश्चित लिये बिना ही मृत्यु पाकर स्वर्ग में गई, वहां से फिर द्रौपदी पने में उत्पन्न हुई / यौवनावस्था प्राप्त होने पर पिता ने उसके पाणिगृहण के लिए स्वयंबर की रचना की, अनेक राजा, महाराजा आदि एकत्रित हुए / तब पूर्व कृत निदान के प्रभाव से विलास की भावना वाली द्रौपदी युवती ने स्वयम्बर में जाने के लिए स्नानादि कर वस्त्राभूषणों से शरीर को अलंकृत किया फिर जिन घर में जाकर जिन-प्रतिमा की पूजा करके स्वयंबर मण्डप में गई और वहां अन्य सब राजा, महारा Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (12) आओं को छोड़कर निदान के प्रभाव से पाण्डु पुत्र के गले में घर माला डालकर पांच पति की पत्नि बनी श्रादि / ___इस कथानक पर से यह घटित होता है कि द्रौपदी ने जिस जिन प्रतिमा की पूजा की थी वह जिन प्रतिमा, पाठकों के पूर्व परिचित उस तीसरी श्रेणि के जिन (कामदेव) की ही मूर्ति होनी चाहिये / निम्नोक्त हेतु इसको सिद्ध करते हैं (अ) जिन प्रतिमा पूजा के समय द्रौपदी जैन धर्मिणी (श्राविका) नहीं थी, और निदान पूर्ति के पूर्व वह श्राविका भी नहीं हो सकती है, न सम्यक्त्व ही पा सकती है, क्योंकि निदान प्रभाव ही ऐसा है / यदि द्रौपदी के निदान को मन्द रस का कहा जाय तो मन्दरस वाला निदान भी पूरा हुए बिना अपना प्रभाव नहीं हठा सकता, और द्रौपदी की निदान पूर्ति होती है पाणिग्रहण के पश्चात्, अतएव पाणिग्रहण के पूर्व द्रौपदी में सम्यक्त्व का होना एकदम असम्भव मालूम होता है। खास सूत्र में भी स्वयम्बर मण्डप में अाते समय द्रौपदी पर निदान का असर बताने वाला मूल पाठ स्पष्ट रूप से मिलता है, देखिये "पुवकय णियाणेणं चोइज्जमाणी" जब मूर्ति पूजा के पश्चात् भी द्रौपदी के लिए सूत्रकार 'पूर्वकृत निदान से प्रेरित हुई' लिखते हैं तो पहले पूजा के समय उस परसे निदानके प्रभावसे हटकर सम्यक्त्व को कैसे प्राप्त हो गई ?विज्ञ पाटक इस पर जरा मनन करें कि जब सम्यक्त्व ही जिसमें नहीं है तो वह तीर्थङ्कर को आराध्य देव कैसे मान सकता है ? अतएव यह स्पष्ट हुआ कि द्रौपदी की प्रतिमा पूजा तीर्थङ्कर मूर्ति की पूजा नहीं हो सकती। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निदान ग्रस्त के संस्कार ही ऐसे बन जाते हैं कि जिनके प्रभाव से जब तक इच्छाओं की पूर्ति नहीं हो जाय तब तक वह उसी विचार और उधेड़बुन में लगा रहता है। यहां द्रौपदी के हृदय में निदान प्रभाव से विलासिता की पूरी श्राकांक्षा . थी, अखण्ड भोग प्राप्त करना ही जिसका मुख्य लक्ष्य था, बस इसी ध्येय को लक्ष्य कर द्रौपदी ने अपनी यह इच्छा पूर्ण करने को ऐसे ही देव की मूर्ति की पूजा की / उसे उस समय बस केवल इसी की श्रावश्यकता थी। यदि द्रौपदी उस समय श्राविका ही होती, तो वह पांच पति क्यों वरती ? अगर पांच पति से पाणिग्रहण करने में उस पर निदान प्रभाव कहा तो पूजा के समय जो कि स्वयं वर के लिए प्रस्थान करते समय की थी, निदान प्रभाव कहां चला गया? इस पर से यह सत्य निकल आता है कि द्रौपदी की पूजी हुई मूर्ति तीर्थङ्कर की नहीं होकर कामदेव ही की थी। सौभाग्य एवं भोग जीवन की सामग्री की पूर्णता एवं प्रचुरता ऐसे ही देव से चाही जाती है। (प्रा) विवाह के समय द्रुपद राजा ने मद्य, मांस का प्रा. हार बनवाया था, यह द्रौपदी के परिवार को ही अजैन होना बता रहा है। इस पर से भी द्रौपदी के श्राविका नहीं होने का ही अनुमान ठीक मिलता है। (इ) द्रौपदी के विवाह पश्चात् उसका पांच पति रूप निदान पूर्ण होकर सम्यक्त्व की बाधा भी दूर हो जाती है, और विवाह बाद के वर्णन से ही द्रौपदी का श्राविका होना पाया जाता है, लग्न पश्चात् के जीवन में ही व्रत नियम, Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (14) तपश्चर्या का कथन है / संयमाराधन का भी इतिहास मिलता है, किन्तु लग्न के बाद से लेकर संयमाराधन और अंतिम अनशन के सारे जीवन विस्तार में कहीं भी मूर्ति पूजा का उल्लेख खोज करने पर भी नहीं मिलता है / यदि मूर्ति पूजा धार्मिक करणी में मानी गई होती तो उसका वर्णन भी धार्मिक करणी के साथ अवश्य मिलता / इस पर से भी धार्मिक कृत्यों में मूर्ति पूजा की उपादेयता सिद्ध नहीं हो सकती। __इसके सिवाय द्रौपदी के प्रतिमा पूजा के प्रकरण में णमो. त्थुणं' और सूर्याभदेव की साक्षी के पाठ होने का भी कहा जाता है किन्तु यह पाठ मूल का होना सिद्ध नहीं हो सकता, कारण प्राचीन हस्त लिखित प्रतित्रों में उपरोक्त नमोत्थुणं श्रादि पाठ का नहीं होना है. और प्राचार्य अभयदेव सूरि ने भी इस बात को स्वीकार कर वृत्ति में स्पष्ट कर दिया है, प्रा. चार्य अभयदेवजी का समय बारहवीं श० का है जब से 16 वीं और १७वीं शताब्दी तक की प्रतिओं में प्रायः "जिण पडिमारणं अच्चणं करेई" ___ इतना ही पाठ मिलता है / स्वयं इस लेखक ने भी दिल्ली में श्रीमान् लाला मन्नूलालजी अग्रवाल के पास बहुत प्राचीन और जीर्ण अवस्था में ज्ञाता धर्म कथा की एक प्रति देखी, उसमें भी केवल उक्त पाठ ही है / इसी प्रकार किशनगढ़ में भी एक प्रति उक्त प्रकार के ही पाठ को पुष्ट करने वाली है। टीकाकार श्री अभय देवजी भी मूल पाठ में केवल उक्त वाक्य को स्थान देकर बाकी के पाठ को वाचनान्तर में होना बताते हैं, देखिये-- 'जिणपडिमाणं अच्चणं करेइत्ति-एकस्यां वाचनाया मेतावदेव दृश्यते, वाचनान्तरेतु" Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार मूल पाठ को इतना ही स्वीकार कर वाचनान्तर में अधिक पाठ होना माना है। इससे अनुमान होता है कि-द्रौपदी के अधिकार में णमोत्थुणं श्रादि अधिक पाठ इस जिन प्रतिमा को तीर्थङ्कर प्रतिमा सिद्ध करने के अभिप्राय से किसी शंकाशील प्रति लेखक ने बढ़ा दिया हो, और वह पाठ सर्व मान्य नहीं है यह स्पष्ट है। इतने विवेचन पर से यह अच्छी तरह सिद्ध होगया कि लग्न प्रसंग पर निदान के प्रभाव से मिथ्यात्व वाली द्रौपदी से पूजी हुई जिन प्रतिमा तीर्थङ्कर की मूर्ति नहीं हो सकती ऐसे प्रकरण पर से मूर्ति पूजा को धार्मिक व उपादेय सम. झना अनुचित है। स्वयं टीका-कार भी द्रौपदी के इस पूजा प्रकरण में लिखते हैं कि 'नच चरितानुवादवचनानि विधि निषेध साधकानि भवंति' ऐसी अवस्था में कथानक की ओट लेकर विधिमार्ग में प्रवृत्त होने वाले और व्यर्थ के आरंभ समारंभ कर आत्मा को अनर्थ दण्ड में डालने वाले बन्धु वास्तव में दया के पात्र SROONAME Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P-"सूर्याभ देव"। प्रश्न-सूर्याभदेव ने जिन प्रतिमा की पूजा की ऐसा राजप्रश्नीय सूत्र में लिखा है, इससे मूर्ति पूजा करना सिद्ध होता है, फिर श्राप क्यों नहीं मानते ? उत्तर-सूर्याभदेव के चरित्र की अोट लेकर मूर्ति पूजा में धर्म बताना मिथ्या है। सूर्याभ की मूर्ति पूजा से तीर्थंकर की मूर्ति पूजा करना ऐसा सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि-- तत्काल के उत्पन्न हुए सूर्याभदेव ने अपने सामानिक देव के कहने से परंपरा से चले आते हुए जीताचार का पालन किया है / और जिन प्रतिमा के साथ 2 नाग, भूत प्रतिमा ओ कि-उससे हल्की जाति के देवों की है उनकी और अन्य जड़ पदार्थ-द्वार, शाखा, तोरण, बावड़ी नागदन्ता आदि की पूजा की है, सूर्याभ को उस समय जीताचार के अनुसार वैसे भी काम करने थे जो उससे पहले वहां उत्पन्न होने वाले सभी देवों ने किये थे उसका यह कार्य धर्म बुद्धि से नहीं था। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (17) दृसग-सूर्याभ की पूजी हुई प्रतिमा तीर्थकर प्रतिमा ही है इसमें कोई प्रमाण नहीं, कारण वहां बताई हुई प्रतिमाएं शास्वत है, जिसकी श्रादि और अन्त नहीं, और तीर्थकर शास्वत नहीं हो सकने ( यद्यपि तीर्थकरत्व शास्वत है किंतु अमुक तीर्थङ्कर शास्वत है यह नहीं हो सकता है क्योंकिवे जन्मे हैं इसलिये उनकी आदि और अन्त है, देवलोक में बताई हुई ऋषभ, बर्द्धमान, चन्द्रानन, वारिसेन इन चार माम वाली मूर्तिएं शास्वत होने से तीर्थङ्करों की नहीं हो सकती / यह तो देवताओं की परम्परा से चली आती हुई कुल, गौत्र, या ऐसे ही किसी देव विशेष की मूर्ति हो सकती है, क्योंकि-जहां प्रतिमाओं का नाम है वहां पृथक 2 देवलोक में होते हुए भी सभी जगह उक्त चारों नाम वाली ही मूर्तिएं बताई गई है / यदि, ये मूर्तिएं तीर्थङ्करों की होती तो इन चार नामों के सिवाय अन्य नाम वाली और अशास्वती भी होनी चाहिये थी, हां. यदि तीर्थङ्कर केवल चार ही होते तब तो वे मूर्तिएं तीर्थंकर की कभी मानी भी जा सकती, किंतु तीर्थकर की संख्या हरएक काल-चक्र के दोनों विभागों में चौबीस से कम नहीं होती, अतएव देवलोक की मूर्तिएं तीर्थंकरों की होना सिद्ध नहीं हो सकती। - सूर्याभ के इस कृत्य को धार्मिक कृत्य कहने वालों को निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिये-- (अ) जिन प्रतिमा के साथ द्वार, तोरण, ध्वजा, पुष्करणी श्रादि को पूज कर सूर्याभ ने किस धर्म की आराधना Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (18) (आ) सूर्याभ के पूर्व भवमें प्रदेशी राजा का जीव कितना क्रूर, हिंसक और नर्क गति की ओर लेजाने वाले कर्म करने वाला था, यदि ये ही कृत्य चालू रहते तो अवश्य उसे नार. कीय यातनाएं सहन करनी पड़ती / किन्तु जीवन के उत्तर विभाग में श्रीमान् केशीकुमार श्रमण के उपदेश से उसने धर्माराधन, तपश्चर्या, परिषहसहन, अन्तिम संलेहणा आदि क्रियाओं द्वारा संचित पाप पुंज का नाश कर पुण्य का प्रबल भंडार हस्तगत किया, क्या इस पाप पुंज संहारिणी और पुण्य उदय करने वाली करणी में कहीं मूर्ति पूजा का भी नाम निशान है ? (इ) सूर्याभ ने उत्पन्न होकर मूर्ति पूजा की, उसके बाद भी कभी नियमित रूप से उसने पूजा की है क्या ? क्योंकि धार्मिक कृत्य तो सदैव किये जाने चाहिये, जैसे सामायिक प्रतिक्रमण आदि, पूर्व समय के श्रावक प्रति दिन धार्मिक कृत्य करते थे इसका वर्णन सूत्रों में पाया जाता है। इसी तरह यदि मूर्ति-पूजा को भी धार्मिक क्रिया में स्थान होता तो किसी न किसी स्थान पर एक भी श्राद्धवर्य के जीवन वर्णन में उल्लेख अवश्य मिलता / इसी प्रकार मूर्ति पूजा यदि धार्मिक करणी होती तो सूर्याभ सदैव इस क्रिया को करता, खास 2 प्रसंग पर तो कुल रिवाज अथवा जीताचार ही पाला जाता है। (ई) सूर्याभ का दृढ़ प्रतिश कुमार रूप अन्तिम भव है उसमें चारित्र धर्म की आराधना कर मुक्ति प्राप्त करने का वर्णन है, उसमें भी कहीं मूर्ति पूजा का कथन है क्या ? Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (16) जब हमारे मूर्ति-पूजक बंधु इन बातों पर विचार करेंगे तब उन्हें भी विश्वांस होगा कि-मूर्ति पूजा को धर्म कहना मिथ्या है। सूर्याभ की यह करणी जीताचार की थी, धर्माचार (आत्मोत्थान ) की नहीं। वर्तमान में भी राजा महाराजा विजया दशमी को कुलदेवी, तलवार, बन्दुक, तोप, घड़ियाल नक्कारे, निशान, हाथी, घोड़ा आदि की पूजा करते हैं, यह सभी कृत्य परंपरा से चले आते हुए रिवाज में ही सम्मिलित हैं / सम्यक्त्वी श्रावक भी दीगवली पर वही, दवात, कलम, धन, सुपारी के बनाये हुए गणेश. कल्पित लक्ष्मी प्रादि की पूजा करते हैं, ये सभी कार्य सांसारिक पद्धति के अनुसार है, इसमें धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं है। न कोई सम्यक्त्वी ऐसी क्रियाओं में धर्म मानते ही हैं / इस प्रकार के लौकिक कार्य पूर्व समय में बड़े 2 श्रावकों ने भी किये हैं, उनमें भर. तेश्वर, अरहन्नक श्रावक श्रादि के चरित्र ध्यान देने योग्य हैं ऐसे सांसारिक कृत्यों को धर्म कहना, या इनकी श्रोट लेकर निरर्थक पाप वर्द्धक क्रिया में धर्म होने का प्रमाणित करना, जनता को धोखा देना है। . ___ यदि थोड़ी देर के लिए हम हमारे इन भोले बन्धुओं के कथनानुसार देवलोक स्थित मूर्तियों को तीर्थङ्कर मूर्ति मान ले तो भी किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं होती, क्यों कि- जिस प्रकार वर्तमान समय में श्रादर्श नेताओं के चित्र मूर्तिएं स्मारक रूप में बनाये जाते हैं, बम्बई में स्वर्गीय विट्ठलभाई पटेल की प्रतिमा है, महाराणी विक्टोरिया की Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (20) मूर्ति बड़े 2 शहरों में रही हुई है, इसी प्रकार महत्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, गोखले आदि के हजारों की संख्या में चित्र तथा कहीं 2 किसी की मूर्ति भी दिखाई देती है, कई देशी राज्यों में राजाओं के पुतले ( मूर्तियें ) बड़ी सजधज के साथ बगीचों ( गार्डनों ) में रक्खे हुए मिलते हैं, ये सभी स्मारक हैं, माननीय पुरुषों की यादगार में बने हैं, इसी प्रकार जगत हितकर्ता विश्वोपकारी. देवेन्द्र नरेन्द्रों के पूज. नीय, अनम्तज्ञानी प्रभु की मूर्तिएं भक्तों द्वारा बनाई जाय तो इसमें श्राश्चर्य ही क्या है ? जब हम सभी कलाओं के साथ चित्र कला को भी अनादि मानते हैं और देवों की कला कुशलता विशिष्ट प्रकार की कहते हैं / तो फिर महान् ऐश्व र्यशाली देव जो प्रभु के उत्कृष्ट रागी और भक्त हैं वे यदि उनकी हीरे जवाहिरात की भी मूर्ति बनवाले तो इसमें श्राश्चर्य की कोई बात नहीं है। जो जिसे आदरणीय मानता है वह उसकी यादगार में उसका चित्र बनावे या बनवाले यह स्वाभाविक है, किन्तु ये सभी स्मारक में ही गिने जाते हैं, इसमें धार्मिकता का कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसे कृत्यों में धर्म समझकर अमित द्रव्य व्यय और अगणित स, स्था. वर जीवों का विनाश कर डालना, केवल मूर्खता ही है। यदि मूर्ति-पूजक पं० बेचरदासजी के शब्दों में कहा जाय तो धार्मिक विधानों की सिद्धी किसी कथा की ओट लेकर नहीं हो सकती, उनके लिए विधि वाक्य ही होने चाहिए, इसलिए धर्म के मुख्य अङ्ग कहे जाने वाले कार्य के लिए कोई खास विधि का प्रमाण नहीं बताकर किसी कथा की पोट लेना और उसके भाव को तोड़ मरोड़ कर मनमानी खींचतान करना यह अपने पक्ष कोही कल्पित और असत्य सिद्ध करना है। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (21) कथानक के पात्र स्वतंत्र हैं, वे अपनी इच्छानुसार कार्य कर सकते हैं, उनके किये कार्य सभी के लिए सर्वथा उपादेय नहीं हो सकते, और विधि विधान जो होता है वोसभी के लिए समान रूप से उपादेय होता है, उसके लिए खास शब्दों में कथन किया जाता है। अमुक कार्य इस प्रकार करना ऐसा स्पष्ट वाक्य विधि में गिना जाता है। जिस प्रकार मूर्ति पूजक आचार्यों ने मूर्ति पूजा किस प्रकार करना, किस समय किस सामग्री से करना इस विषय में ग्रन्थों के पृष्ठ के पृष्ट भर डाले हैं, इसी प्रकार यदि गणधरोक्त उभयमान्य सूत्रों में भी कहीं बताया गया होता या केवल इतना भी कहा गया होता कि-'श्रावकों को मूर्ति-पूजा करना चाहिये, मुनिओं को दर्शन यात्रा आदि करना व उस संबन्धी उपदेश देना चाहिए, संघ निकलवाना चाहिए, आदि कथन होता तो ये लोग सर्व प्रथम ऐसा प्रमाण बड़े 2 अक्षरों में रखते किन्तु जब सूत्रों में ही नहीं तो लावे कहां से ? अतएव सूत्रों में मूर्ति पूजा का विधान होने का कहना और सूर्याभ के कथा. नक की अनुचित साक्षी देना मृषावाद और हिंसावाद के पोषण करने समान है। समझदारों को चाहिए कि वे निष्पक्ष बुद्धि से विचार कर सत्य को ग्रहण करें। MaruN AHANE AAR 50a Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 22) ३-"आनन्द श्रावक" प्रश्न-पानन्द श्रावक ने जिन प्रतिमा वांदी है, ऐस कथन "उपासक दशांग" में है, इस विषय में आपका क्य कहना है ? उत्तर-उक्त कथन भी असत्य है, उपासकदशांग / अानन्द के जिन प्रतिमा वन्दन का कथन नाम मात्र को भी नहीं है, यह तो इन बन्धुत्रों की निष्फल ( किन्तु अन्ध श्र द्धालुओं में सफल ) चेष्ठा है, ये लोग मात्र वहां आये हुए 'चैत्य' शब्द से ही मूर्ति वन्दने का अडंगा लगाते हैं, जो कि सर्वथा अनुचित है / यह शब्द किस विषय में और किस अर्थ को बताने में आया है पाठकों की जानकारी के लिए उस स्थल का वह पाठ लिखकर बताया जाता है-- नोखलुमेभंते कप्पईअजप्पभिइंश्रन्नउत्थिएवा अण्णउत्थियदेवयाणिवा, अण्णउत्थियपरिग्गहि याणिवा चेइयाइ, बंदित्तएवा, णमंसित्तएवा, पु: Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 23 ) विश्रलाणतेणं बालवित्तएवा, संलवित्तएवा, तेसि असणंवा, पाणंवा, खाइमंवा, साइमंवा, दाउंवा अणुप्पदाउंवा'। __ अर्थात-इसमें प्रानन्द श्रावक प्रतिज्ञा करता है किनिश्चय से आज पश्चात मुझे अन्य तीर्थिक, अन्य तीर्थ के देव, और अन्य तीर्थी के ग्रहण किये हुए साधु को बंदन नमस्कार करना, उनके बोलाने से पूर्व बोलना, बारंबार बो. लना, असण, पाण, खादिम, स्वादिम, देना, बारंबार देना, यह नहीं कल्पता है। अब कल्पता क्या है सो कहते हैं-- 'कप्पड़ मे समणेणिग्गन्थे फासूएणं ऐसणिज्जेणं, असण, पाण, खाइम, साइम, वत्थ, पड़ि. ग्गह, कंवल, पादपुच्छणेणं, पीढ, फलग, सिन्जा, संथारेणं, ओसह, भेसज्जेणं, पडिलाभेमाणे विहरित्तए'। ___ अर्थात्--प्रानन्द श्रावक प्रतिज्ञा करता है कि-मुझे श्रमण निग्रंथ को प्रासुक एषणिक असण पाण, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पात्रपुच्छना, पीठ, फलक, शया, संथारा, औषधि, भेषज्य प्रतिलाभते हुये विचरना कल्पता है। यहां प्रानन्द श्रावक सम्बन्धी कल्पनीय तथा अकल्पनीय विषयक दोनों पाठ दिये गये हैं, इस पर से मूर्तिपूजा कैसे सिद्ध हो सकती है ? मूर्तिपूजक लोग अर्वाचीन प्रति ओं Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (24) में निम्न रेखांकित शब्द बढ़ाकर कहते हैं कि-श्रानन्द श्रावक ने जिन प्रतिमा वांदी है। बढ़ाया हुश्रा शब्द सम्बन्धित वाक्य के साथ इस प्रकार है___ 'अण्ण उत्थि परिग्गहियाणि 'अरिहंत' चेहयाई' उक्त पाठ में रेखांकित अरिहंत शब्द अधिक बढ़ाकर इस शब्द से यहां यह अर्थ करते हैं कि___'अन्य तीर्थियों के ग्रहण किये हुए अरिहन्त चैत्य-जिन प्रतिमा' (इसे वन्दन नहीं करूं) ___ इस तरह ये लोग पाठ बढ़ाकर और उसका मनमाना अर्थ करके उससे मूर्तिपूजा सिद्ध करना चाहते हैं, किन्तु इस प्रकार की चालाकी सुज्ञ जनता में अधिक देर नहीं टिक सकती, क्योंकि समझदार जनता जब प्राचीन प्रतियों का निरीक्षण करके उनमें बढ़ाया हुआ अरिहंत शब्द नहीं देखेगी तो आपकी चालाकी एक दम पकड़ी जा सकेगी, क्योंकि प्राचीन प्रतियों में यह अरिहंत शब्द है ही नहीं। इसके सिवाय (अ) एशियाटिक सोसायटी कलकत्ता से प्रकाशित उपासकदशांग की प्रति में तो 'अरिहंत चेइयाई' शब्द नहीं है और उसके अंग्रेजी अनुवादक ए० एफ० रुडोल्फ होनल साहब ने अनेक प्राचीन प्रतियों पर से नोट में ऐसा लिखा ___'चैत्य और अरिहंत चैत्य शब्द टीका में से लेकर मूल में मिला दिया है, जिस टीका में लिखा है कि-पूजनीय अरिहंत देव या चैत्य है। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (25) (आ) मूर्तिपूजक विद्वान पं० बेचरदासजी ने 'भगवान महावीरना दश उपासको' नामक पुस्तक लिखी है जो किउपासगदशांग का भाषानुवाद है उन्होंने भी उक्त पाठ के अनुवाद में पृ० 14 के दूसरे पेरे में उक्त एशियाटिक सोसायटी की प्रति के समान ही 'अरिहंत चैत्य' रहित पाठ मानकर भाषान्तर किया है / देखिये 'प्राजश्री अन्य तीथिकों ने, अन्य तीथिक देवताओं ने, अन्य तीथि के स्वीकारेला ने, वन्दन अने लमन करQ मने कल्पे नहीं' आदि। उपरोक्त विचार से यह सिद्ध हो गया कि-पीछे के किसी मूर्ति पूजक लेखक ने आदर्श श्रावकों को मूर्ति पूजक सिद्ध करने के लिये ही 'अरिहंत' शब्द को मूल में प्रक्षिप्त कर अपने श्रद्धालु भक्तों को भ्रम में डाला है, किन्तु इतना कर लेने पर भी इनकी इष्ट सिद्धि तो नहीं हो सकी, क्योंकि इस में निम्न कारण विचारणीय हैं (क) श्रावक महोदय ने अपनी पूर्व प्रतिज्ञा में कहा किमुझे अन्य तीर्थी श्रादि को वन्दनादि करना उनको चारों तरह का आहार देना तथा बिना बोलाये उनसे बोलना, वारंवार बोलना ऐसा मुझे नहीं कल्पता है, इससे यह सिद्ध होता है कि इस प्रतिज्ञा का सम्बन्ध मनुष्यों से ही है, श्राहारादि देना, दिलाना, पहले बोलना, अधिक बोलना ये क्रियाएँ मनुष्यों के साथ ही की जा सकती है किसी जड़ मूर्ति के साथ नहीं। (ख) यदि चैत्य शब्द से सूत्रकार को मूर्ति अर्थ इष्ट होता तो खान, पान आदि क्रियाओं के साथ साथ पूजा, Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (26) प्रतिष्ठा, धूप, दीप, नैवेद्यं श्रादि वस्तुओं का भी निर्देश किया जाता क्योंकि-मूर्ति-पूजा के काम में यही वस्तुएँ उपयोगी होती हैं। प्रशन पान अलाप संलाप से मूर्ति का तो कोई सम्बन्ध ही नहीं हो सकता। (ग) कल्प सम्बन्धो दूसरी प्रतिमा में तो साधु के सिवाय अन्य किसी का भी नाम नहीं है। न वहां चैत्य शब्द का उल्लेख है। यदि सूत्रकार या श्रावक महोदय को मूर्तिपूजा इष्ट होती तो इस विधि प्रतिज्ञा में उसके लिये भी कुछ न कुछ स्थान अवश्य होता। अतएव सिद्ध हुआ कि हमारे मूर्ति पूजक बन्धुओं ने जो अपने मनमाने शब्द और अर्थ लगाकर श्रानन्द श्रावक को मूर्ति पूजक कहने की धृष्टता की है वह सर्वथा हेय है। इन भोले भाइयों को अपने ही मान्य विजयानन्दसूरि ( जो कार मूर्ति पूजक थे। के निम्न कथन पर ध्यान देकर विचार करना चाहिये। आपने मूर्तिपूजा के मंडन में साधुमार्गियों की निंदा करते हुये 'सम्यक्त्व शस्योद्धार हिन्दी की चतुर्थावृत्ति में 'श्रानन्द श्रावक जिन प्रतिमा वादी है' इस प्रकरण में पृष्ठ 85 पंक्ति 1 से लिखा है कि___'यद्यपि उपाशकंदशांग में यह पाठ नहीं है। क्योंकि-पूर्वाचार्यों ने सूत्रों को संक्षिप्त कर दिये हैं तथापि समवायांग में यह बात प्रत्यक्ष है। इसमें विजयानन्द सूरि साफ स्वीकार करते हैं कि'उपासकदशांग में (जिसमें कि आनन्द श्रावक के सम्पूर्ण Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (27) चरित्र का चित्रण किया गया है ) मूर्तिपूजा सम्बन्धी पाठ नहीं है।' अतएव अानन्द श्रावक को मूर्तिपूजक कहना मिथ्या ही है। अब विजयानन्दजी ने जो सूत्रों के संक्षिप्त होने का कारण बताया और इस लिये समवायांग का प्रमाण जाहिर किया है। उस पर भी थोड़ा विचार किया जाता है ( 1 ) स्वामीजी ने उपासकदशांग के श्रानन्दाधिकार में मूर्ति पूजा का पाठ नहीं होना इसमें सूत्रों का संक्षिप्त होना कारण बताया है / यह भी असंगत है, यह दलील यहां इस लिये लागू नहीं हो सकती कि-जिस अानन्द के चरित्र कथन में सूत्रकार ने उसकी ऋद्धि, सम्पत्ति, गाड़े, जहाजें, गायें श्रादि का वर्णन किया हो, जिसके वन्दन, व्रताचरण के वर्णन में व्रतों का पृथक् 2 विवेचन किया हो / घर छोड़कर किस प्रकार पौषधशाला में धर्माराधन करने गये, किस प्रकार एकादश प्रतिज्ञाएँ आराधन की और अवधिज्ञान पैदा हुआ, गौतम स्वामी को वन्दन करना, परस्पर का वार्तालाप गौतम स्वामी को शंका उत्पन्न होना, प्रभु का समाधान करना गौतम स्वामी का श्रानन्द से क्षमा याचने प्राना, आनन्द का अनशन करके स्वर्ग में जाना इत्यादि कथन जिसमें विस्तार सहित किये गये हों। यहां तक कि खाने पीने के चांवल, घी, पानी आदि कैसे रक्खे श्रादि छोटी-छोटी बातों का भी जहां उल्लेख किया गया हो, जिसके चरित्र चित्रण में सूत्र के तृतीयांश पृष्ठ लग गये हों, उसमें केवल मूर्तिपूजा जैसे दैनिक कर्तव्य का नाम तक भी नहीं होने से ही सूत्रों को संक्षिप्त कर देने की दलील ठोक देना असंगत नहीं तो क्या Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (28) है ? इस पर से तो मू० पू० बंधुओं को यह समझना चाहिये कि जिस विस्तृत कथन में ऐसी छोटी 2 बातों का कथन हो, और मूर्तिपूजा जैसे धार्मिक कहे जाने वाले दैनिक कर्तव्य के लिये बिन्दु विसर्ग तक भी नहीं,, यह साफ बता रहा है कि वे आदर्श श्रावक मूर्तिपूजक नहीं थे। (2) स्वामीजी ने हिम्मत पूर्वक यह डींग मारो है कि 'समवायांग में यह बात प्रत्यक्ष है' यह लिखना भी झूठ है, क्योंकि समवायांग में प्रानन्द श्रावक का वर्णन तो ठीक पर नाम भी नहीं है, हां समवायांग में उपासगदशांग की नोंध अवश्य है, उस नोंध में यह बताया गया है कि 'उपासगदशांग में श्रावकों के नगर, उद्यान, व्यन्तराय तन, बनखण्ड, राजा, माता पिता, समवसरण, धर्मावार्य धर्मकथा, इह लोक, परलोक आदि का वर्णन है' बस समवायांग में यही नोंध है और इसी को विजयानन्दजी मू० पू० का प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं ? हां यदि इसमें यह कहा गया होता कि उपासगदशांग में श्रावकों के मन्दिर मूर्ति पूजने दर्शन करने यात्रार्थ संघ निकालने श्रादि विषयक कथन है मू० पू० के लिये यह खास प्रमाण रूप मानी जासकती थी, किन्तु जब इसकी कुछ गंध ही नहीं फिर कैसे कहा जाय कि समवायांग में प्रत्यक्ष है ? विजयानन्दजी के उक्त उल्लेख का अाधार वहां श्राया हुआ एक मात्र 'चैत्य' शब्द ही है। जिसका शुद्ध और प्रकरण संगत अर्थ 'व्यन्तरायतन' नहीं करके स्वामी जी ने जो जिन मन्दिर अर्थ किया यह इन की उक्ति से भी बाधित होता है क्योंकि- . (अ) उपासगदशांग में जो चैत्य शब्द पाया है वही Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (26) चैत्य शब्द समवायांग में भी पाया है जब उपासगदशांग में ही स्वामीजी के कथनानुसार मूर्ति पूजा का लेख नहीं है तब समवायांग में केवल इसी शब्द से प्रत्यक्ष और खुल्ला मूर्ति पूजा का पाठ कैसे हो सकता है ? अतएव उपासगदशांग की तरह समवायांग का पाठ भी इसमें प्रमाण नहीं हो सकता। (श्रा) स्वामी जी ने उपासगदशांग में अपने मत के अ. नुकूल 'अरिहंत चेइयाई पाठ माना है, किन्तु स्वामी जी के दिये हुए इस समवायांग के प्रमाण पर विचार करने से वह भी उड़ जाता है, क्योंकि___ स्वामीजी तथा इनके अनुयायियों की मान्यतानुसार जो 'अरिहंत चेइयाई' यह शब्द असल मूल पाठ का होता तो इससे मूर्ति वन्दन नहीं मात कर इन्हें समवायांग के केवल 'चेइयाई' शब्द (जो व्यन्तरायतन अर्थ को बताने वाला है) की और प्राथा से तरसना नहीं पड़ता। समवायांग के पाठ का प्रमाण देना ही यह बता रहा है कि उपासगदशांग में मूर्ति पूजा का वर्णन ही नहीं है . या प्रक्षिप्त (अरिहंत चेह. याई ) पाठ में खुद इन्हें भी संदेह ज्ञात हुआ है। इस पर से भी उक्त पाठ क्षेपक सिद्ध होता है / (3) स्वामीजी के लिखे हुए उपासगदशांग में मूर्ति पूजा का पाठ नहीं होकर समवायांग में है' इससे तो उल्टी एशियाटिक सोसायटी कलकत्ता वाली प्रति का अरिहंत चेइ. याई बिना का पाठ ठीक जान पड़ता है, क्योंकि उपासगदशांग और समवायांग इन दोनों में मात्र 'चेइयाई' शब्द ही चैत्यं-व्यन्तरायतनं, समवा० टीका पत्र १०८सूत्र 141 श्रा. स. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 30) हो और उपासकदशांग का 'चेइयाई शब्द भी स्वामीजी की मान्यतानुसार मूल पाठ का नहीं ऐसा पाया जाता है, तभी तो स्वामीजी समवायांग के मात्र 'चेइयाई' शब्दकी ओर झपरे हैं ? यद्यपि विजयानन्दजी उपासकदशांग में 'अरिहंत चेह. याई' शब्द स्पष्ट स्वीकार कहीं करते हैं तथापि इनके उन्न प्रयास से यह अच्छी तरह प्रमाणित हो गया कि उपासकदशांग में उक्त पाठ नहीं होने रूप सत्य इनको भी कुछ तो कबूल है ही और इसीसे समवायांग की ओट लेने का इनको मिथ्या प्रयास करना पड़ा। (ई) अब समवायांग में चैत्य शब्द किस प्रसंग पर पाया है यह बता कर स्वामीजी के मिथ्या प्रयास का स्फोट किया जाता है। समवायांग में उपासक दशांग की नोंध लेते हुए बताया गया है कि उपासक दशांग में क्या वर्णन है। जैसे-सेकितं, उवासम्म दसानो ! उवासग दसासुग उवासयाणं, णगराई, उज्जाणाई, 'चेइयाई वणखंडा, राया. णो, अम्मापियरो, समोसग्णाई, धम्मायरिया, धम्मकहाओ, इहलोइय, परलोइय इविविसेसा, उवासयाणं, सीलव्यय, वेरमण, गुणपच्चक्खाण, पोसहोववास, पडिवज्जियात्रओ, सुय. परिग्गहा, तबोवहाणाई, पडिमानो, उवासग्गा संलेहणाश्री भत्तपच्चखाणाई पायोगमणाई, देवलोग गमणाई सुकुल प. चाया, पुणोवोहि लाभो, अंतकिरियानो बाघविज्जति / Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 31) अर्थात् -उपासक दशांग में क्या है ? उपासक दशांग में उपासकों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, राजा, माता, पिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलौकिक पारलोकिक ऋद्धि विशेष, उपासकों के शीघ्र व्रत, वेरमणव्रत, गुणपौषधोपवास व्रत, सूत्रग्रहण, तपोधान, उपासक प्रतिमा उपसर्ग सल्लेहणा, भक्तप्रत्याख्यान, पादोपगमन, उच्चकुल में जम्म फिर बोधि (सम्यक्तव) लाभ, अन्तक्रिया करना ये सब वर्णन किये जाते हैं। इस सूत्र में कहीं भी मूर्ति पूजा का नाम तक नहीं है, न मन्दिर बनवाने या उसके मन्दिर होने का ही लेख है, फिर ये कैसे कहा जाता है कि समवायांग में प्रत्यक्ष है ? विचार करने पर मालूम होता है कि 'चेइयाई' जो नगरी के साथ उद्यान और इसमें रहे हुए 'व्यन्तरायतन' के वर्णन में पाया है इसीसे उन श्रावकों के मन्दिर होने या मूर्ति पूजने का कहते हैं, किन्तु इनका यह कथन भी एक दम असत्य है। क्योंकि जिस प्रकार उपासक दशांग की सूची बताई गई है उसी प्रकार अन्तकृत दशांग अनुत्तरोपपातिकदशा, विपाक इन की भी सूचि दी गई है सभी में एक समान पाठ पाया है, देखिये अंतगडाणं णगराई, उज्जाणाई, 'चेइयाई अणुत्तरो. वाइयाणं णगराई, उज्जाणाई, 'चेहयाई' सुहविवागाणं णगराई, उज्जाणाई, 'चेइयाई' दुहविवागाणं णगाराई, उज्जा गाई, 'चेश्याई Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 32 ) अर्थात्-अंतक्रतो, अनुत्तरोपपपातिकों, सुखान्तकरों और दुःखान्तकरों के नगर, उद्यान, चैत्य थे, इस प्रकार आये हुए चैत्य शब्द से यह प्रश्न होता है कि क्या इस सभा के बनाये हुए जिन मन्दिर थे, ऐसा अर्थ माना जायगा? नहीं, कदापि नहीं! यहां का निराबाध अर्थ जहां अन्तकृतादि रहते थे वहां व्यन्तरायतन था यही उपयुक्त और संगत है। यहां आये हुए चैत्य शब्द का अर्थ उनके ब. नाये हुए जिन मन्दिर या उनके जिन-मन्दिर ऐसा मानने वाले से जब यह पूछा जाता है कि ऐसा अर्थ मानने पर आपको दुःखांत विपाक में वर्णित उन दुष्ट मलेच्छ, अनार्य, लोगों के मी जिन-मन्दिर मानने पड़ेंगे। क्योंकि यह 'चैत्य' शब्द तो वहां भी पाया है ऐसा मानने पर जिन मन्दिर का महत्व ही क्या रहेगा? इतना पूछने पर यहां तो चट वे हमारे मूर्ति पूजक बन्धु कह देंगे कि नहीं यहां चैत्य शब्द का अर्थ जिनमन्दिर-जिन मूर्ति नहीं होकर व्यन्तर मन्दिर ही अर्थ होगा इस तरह एक समान वर्णन में एक जगह जिन-मन्दिर व दूसरी जगह व्यन्तरायतन अर्थ कैसे हो सकता है ? वास्तव में ऐसे वर्णनों में चैत्य शब्द का अर्थव्यंतरायतन होता है। इसके लिये उपासगदशांग में नगरियों के साथ आये हुए नाम प्रमाण है / जैसे पुण्यभद्दे चेहए, कोहगे चेइए, गुणसिलाए चेइए आदि ऐसे वाक्यों में चैत्य शब्द का अर्थ व्यंतरायतन ही होता है, स्वयं आगमों के टीकाकार भी हमारे इस अर्थ से सहा मत हो कर इनके कहे हुए अर्थ का खण्डन करते हैं, देखिये Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 33 ) चेहएत्ति-चितलेप्यादि चयनस्य भावः कर्मवेति चैत्यं, संज्ञाशब्दत्वाद् देव विवं तदाश्रयत्वातू तद्गृहमपि चैत्यं तच्चेह व्यंतरायतनम् नतु भगवतामहेतामायतनम् / इससे सिद्ध हुआ कि प्रादर्श श्रमणोपासकों को मूर्ति-पूजक ठहराने का कथन एकान्त झूठ है / और साथ ही मूर्तिपूजा आगम सम्मत है ऐसे कहने वालों के इस सिद्धांत को फेंक देने योग्य निस्सार घोषित करता है। जिसके पास खरा भागम प्रमाण हो वह ऐसा मिश्या प्रपञ्च क्यों करने लगे? यह बात अच्छी तरह समझ में आ सके ऐसी सरल है / Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (34) अंबड़-श्रावक (सन्यासी) प्रश्न- अंबड़ श्रावक ने जिन प्रतिमा वांदी ऐसा स्पष्ट कथन औपयातिक सूत्र में है, यह तो आपको मान्य है न ? उत्तर-उक्त कथन भी अानन्द श्रावक के अधिकार की तरह निस्सार है, यहां भी आप प्रसंग को छोड़ कर ही इधर उधर भटकते हैं, क्योंकि अंबड़ परिव्राजक ने निम्न प्रकार से प्रतिज्ञा की है___णोकप्पड अण्णउत्थिएवा, अण्णउत्थिय देवयाणिवा, अण्णउत्थिय परिग्गहियाणि अरिहंत चेइयाणिवा, वंदित्तएवा, णमंसित्तएवा, जा. वपज्जुवासित्तएवा, पणत्थ अरिहंतेवा, अरिहंत. चेइयाणिवा, वंदित्तएवा, मंसित्तएवा, नोट-यह पाठ जो यहां दिया गया है सो केवल गुजराती प्रति से ही, और गुजराती प्रति में भी किसी अन्य प्रति से दिया गया होगा। किन्तु अभी आगमोदय समिति की प्रति का अवलोकन किया तो उसमें. अकल्पनीय प्रतिक्षा में Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (35) 'अरिहंत' शब्द है ही नहीं, हमारी समाज में अब तक विना ढूंढे किसी भी प्रति का अनुकरण कर अशुद्ध पाठ दे दिया जाता है यह प्रथा विचारकों का भ्रम में डाल देती है इसलिये हमें सच्चे शोधक बनना चाहिये, सच्चे अन्वेषक के सामने पूर्व की चालाकियां अधिक समय नहीं ठहर सकती श्राशा है समाज के विद्वान इस ओर ध्यान देंगे श्रागमोदय समिति की प्रति का पाठ इस प्रकार है: आगमोदय समिति के औपपातिक सूत्र के चालीलवें सूत्र पृष्ठ 67 पं० 4 से __ अम्मडस्सणो कप्पई अन्न उत्थिया वा अन्न. उत्थिय देवयाणिवा, अण्णउत्थिय परिग्गहियाणिवा 'चेइयाई वंदित्तएवा णमंसित्तएवा जावपज्जुवासित्तएवा एण्णत्थ अरिहंतेवा श्ररिहंत चेइयाई वा / ___ इस पर से उपासगदशांग का अरिहंत शब्द स्पष्ट प्रक्षिप्त क्षेपक सिद्ध होता है, इसके सिवाय कल्पनीय प्रतिज्ञा में जो अरिहंत शब्द है वह भी अभी विचारणीय है, फिर भी जो इसको निःसंकोच मान लिया जाय तो भी इसका परमार्थ गणधरादि से लेकर सामान्य साधुओं के वंदन का ही स्पष्ट होता है, अन्यथा अंवड़ के लिए गणधरादि के वन्दना सिद्ध करने का कोई सूत्र ही नहीं रहेगा। सिवाय अरिहंत और अरिहंत चैत्य (साधु) को वन्दन नमस्कार करनाकल्पता है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस पाठ में अरिहंत चैत्य शब्द आया है, जिसका साधु अर्थ गुरु गम्य से जाना है। और वो है भी उपयुक्त, क्योंकि यदि अरिहंत चैत्य से साधु अर्थ नहीं लिया जायगा तो अन्य तीर्थी के साधु वन्दन का निषेध नहीं होगा और जैन के साधुओं को वन्दन नमस्कार करने की प्रतिज्ञा भी नहीं की गई ऐसा मानना पड़ेगा, अतएव सिद्ध हुआ कि-अरिहंत चैत्य का अर्थ अरिहंत के साधु भी होता है और इसी शब्द से गणधर, पूर्वधर, श्रुतधर, तपस्वी आदिमुनियों को वन्द नादि करने की अंबड़ ने प्रतिज्ञा की थी। यह हर्गिज नहीं हो सकता कि-अरिहंत के जीते जागते 'चैत्यों' (गणघर यावत् साधु ) को छोड़कर उनकी जड़ मूर्ति को वन्दनादि करने की अंबड़ मूर्खता करे / अतएव यहां अरिहंत चैत्यार्थ अरिहंत के साधु ही समझना उपयुक्त और प्रकरण संगत है। ___ यदि अरिहंत चैत्य शब्द से अरिहंत की मूर्ति ऐसा अर्थ माना जाय को अन्य तीर्थी के ग्रहण कर लेने मात्र से वह मूर्ति अवन्दनीय कैसे हो सकती है ? यह तो बड़ी प्रसन्नता की बात होनी चाहिए कि-तीर्थकर मूर्ति को अन्य तीर्थी भी माने और वन्दे पूजे ! हां यदि साधु अन्य तीर्थी में मिलकर उनके मतावलम्बी हो जाय तब वो तो अवन्दनीय हो सकता है, किन्तु मूर्ति क्यों ? उसमें कौनसा परिवर्तन हुआ ? उसने कौनसे गुण छोड़ कर दोष ग्रहण कर लिये ? वह अछूत क्यों मानी गई ? इत्यादि विषयों पर विचार करते यही प्रतीत होता है कि--यहां अरिहंत चैत्य का मूर्ति अर्थ असंगत ही है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (37) 5- "चारण मुनि" प्रश्न-जंघ, चारण विद्याचारण मुनियों ने मूर्ति वांदी है, यह भगवती सूत्र का कथन तो आपको मान्य है न ? उत्तर-तुम्हारा यह कथन भी ठीक नहीं, कारण भगवती सूत्र में चारण मुनियों ने मूर्ति को वन्दना की ऐसा कथन ही नहीं हैं, वहां तो श्री गौतमस्वामी ने चारण मुनियों की ऊर्द्ध अधोदिशा में गमन करने की जितनी शक्ति है एसा प्रश्न किया है, जिसके उत्तर में प्रभु ने यह बतलाया है कि-यदि चारण मुनि ऊर्द्धादि दिशा में जावें तो इतनी दूर जा सकते हैं उसमें 'चेइयाई वन्दइ' चैत्य वन्दन यह शब्द पाया है जिसका मतलब स्तुति होता है, श्रापके विजयानन्द जी ने भी परोक्ष वन्दन ( स्तुति) को चैत्य वन्दन कहा है तो यहां परोक्ष वन्दन मानने में आपत्ति ही क्या है ? इसके सिवाय यदि इस प्रकार कोई मुनि जावे और उसकी पालाचना नहीं करे तो वह विराधक भी तो कहा गया है ? यह क्या बता रहा है ? श्राप यहां ईर्यापथिकी की आलोचना नहीं समझे. वहां तस्स ठाणस्स'कहकर उस स्थान की पालो. चना लेना कहा है, इससे तो यह कार्य ही अनुपादेय सिद्ध होता है फिर इसमें अधिक विचार की बात ही क्या है Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 38) ६-'चमेरेन्द्र' प्रश्न-चमरेन्द्र जिन मूर्ति का शरण लेकर स्वर्ग में गया, यह भगवती सूत्र का कथन भी आपको मान्य नहीं है क्या ? उत्तर-भगवती सूत्र में चमरेन्द्र मूर्ति का शरण लेकर वर्ग में गया ऐसा लिखा यह कथन ही असत्य है, वहां स्पष्ट बताया गया है कि--चमरेन्द्र छदमस्थावस्था में रहे हुए श्री वीर प्रभु का शरण लेकर ही प्रथम स्वर्ग में गया था, अतएव प्रश्न का श्राशय ही ठीक नहीं है। लेकिन कितने ही मूर्ति पूजक बन्धु यहां पर सक्रेन्द्र के विचार करने के प्रसंग का पाठ प्रमाण रूप देकर मूर्ति का शरण लेना बताते हैं उस पाठ में यह बताया गया है कि-शक्रेन्द्र ने विचार किया किचमरेन्द्र सौधर्म स्वर्ग में आया किस श्राश्रय से ? इस पर विचार करते करते 2 उसने तीन शरण जाने, तद्यथा-- 'अरिहंत, अरिहंत चैत्य, भावितात्मा अणगार', इन तीन शरणों में मू० पू० बन्धु 'अरिहंत चैत्य' शब्द से मूर्ति अर्थ लेते हैं किन्तु यह योग्य नहीं है। क्योंकि अरिहन्त शब्द से Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (36) केवलज्ञानादि भावगुणयुक्त अरिहन्त और अरिहन्त चैत्य से छदमस्थ अवस्था में रहे हुए द्रव्य अरिहन्त अर्थ होना चाहिये यहां यही अर्थ प्रकरण संगत इसलिए है कि-चमरेन्द्र छद. मस्थ महावीर प्रभु का ही शरण लेकर गया था, और इसी लिए यह दूसरा अरिहन्त चैत्य शब्द लेना पड़ा / यदि अरिहन्त चैत्य से मूर्ति अर्थ करेगे ती चमरेन्द्र पास ही प्रथम स्वर्ग की मूर्तियां छोड़कर व अपने जीवन को संकट में डाल कर इतनी दूर तिरछे लोक में क्यों आता ? वहां तो यह भयाकुल बला हुआ था इसलिए समीप के श्राश्रय को छोड़ कर इतनी दृर श्राने की जरूरत नहीं थी, किन्तु जब मूर्ति का शरण ही नहीं तो क्या करें ? चार मांगलिक चार उत्तम शरणों में भी मूर्ति का कोई शरणा नहीं है, फिर यह व्यर्थ का सिद्धांत कहां से निकाला गया ? जब कि मूर्ति स्वयं दूसरे के श्राश्रय में रही हुई है / और उसकी खुद की रक्षा भी दूसरे द्वारा होती है, फिर भी मौका पाकर आततायी लोग मूर्ति का अनिष्ट कर डालते हैं तो फिर ऐसी जड़ मूर्ति दूसरों के लिए क्या शरण भूत होगी? / __ आश्चर्य होता है कि ये लोग खाली शब्दों की स्त्रींचतान करके ही अपना पक्ष दूसरों के सिर लादने की कोशिष करते हैं और यही इनकी असत्यता का प्रधान लक्षण है, इस प्रकार किसी धार्मिक व सर्वमान्य, श्राप्तकथित कहे जाने वाले सिद्धांत की सिद्धि नहीं हो सकती, उसके लिए तो श्राप्तकथित विधि विधान ही होना चाहिये। - Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (04) ७-तुगिया के श्रावक प्रश्न-भगवती सूत्र में कहा गया है कि तुंगिया नगरी के धावकों ने जिन-मूर्ति-पूजा की है, इसके मानने में क्या बाधा है ? उत्तर-उक्त कथन भी एकान्त असत्य है, भगवती सूत्र में उक्त श्रावकों के वर्णन में मूर्ति-पूजा का नाम निशान तक भी नहीं है ! किन्तु सिर्फ मूर्ति-पूजक लोगों ने उस स्थल पर आये हुए कयबलि कम्मा' शब्द का अर्थ मूर्ति पूजा करना ऐसा हैं यही तो अर्थहै, क्योंकि-यह शब्द जहां स्नान का संक्षेप वर्णन किया गया है ऐसे जगह में अथवा बलवर्द्धक कर्म के अर्थ में आया है उसे धार्मिकता का रूप देना नितान्त पक्षपात है और जहां स्नान का विस्तार युक्त कथन है वहां श्रावकों के अधिकार में भी यह बलिकर्म शब्द नहीं है / ( देखो उववाह जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति) किन्तु जहां स्नान का विस्तार संकुचित किया गया है, वहां यही शब्द पाया है अतएव इस शब्द से मूर्ति-पूजा करना सिद्ध नहीं हो सकता। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (41) टीकाकार इस शब्द का 'गृहदेव पूजा' अर्थ करते हैं, यहां गृहदेव से मतलब गौत्र देवता है, अन्य नहीं। श्रीमद् रायचन्द्र जिनागम संग्रह में प्रकाशित भगवती सूत्र के प्रथम खंड में अनुवाद कर्ता पं० बेचरदासजी जो स्वयं मूर्ति-पूजक हैं इस शब्द का अर्थ 'गौत्रदेवी नुं पुजन करी' करते हैं ( देखो पृष्ठ 276 ) और इस खण्ड के शब्द कोष में भी इस शब्द का अर्थ 'गृह गौत्र देवी - पूजन' ऐसा किया है (देखो पृष्ठ 382 की दूसरी कालम ) इस पर से सिद्ध हुअा है कि मूर्ति-पूजक विद्वान यद्यपि बलिकर्म का अर्थ 'गृहदेवी की पूजा करते हैं तो भी तीर्थकर मूर्ति पूजा ऐसा अर्थ करना तो उन्हें भी मान्य नहीं है। ___ इस विषय में मूर्ति पूजक प्राचार्य विजयानन्द सूरिश्रादि ऐसी कुतर्क करते हैं कि वे श्रावक देवादि की सहायता चाह ने वाले नहीं थे, इसलिए यहां 'गृहदेव पूजा' से मतलब घरमें रहे हुए तीर्थकर मन्दिर घर देरासर ) से हैं, क्यों कि वे तीर्थंकर सिवाय अन्य देव का पूजन नहीं करते थे किन्तु यह तर्क भी असत्य है। क्योंकि भगवती सूत्र में इन श्रावकों के विषय में यह कहा गया है कि जिनको निग्रंथ प्र. वचन से डिगाने में देव दानव भी समर्थ नहीं थे, आपत्ति के समय किसी भी देवता की सहाय नहीं इच्छकर स्वकृत कर्म फल को ही कारण समझते थे, किन्तु इससे यह नहीं समझ लेना कि वे श्रावक लौकिक कार्य के लिये कुल परम्परानुसार लौकिक देवों को नहीं पूजते थे, क्योंकि वे भी संसार में बैठे थे, अतएव सांसारिक और कुल परंपरागत रि. वाजों का पालन करते थे। प्रमाण के लिये देखिये Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (42) (1) भरतेश्वर चक्रवर्ती सम्राट ने, चक्ररत्न, गुफा, द्वार आदि की पूजा की लौकिक देवों के आराधना के लिये तप किया / ( जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति ) (2) शांति प्रादि तीन तीर्थंकरों ने भी चक्रवर्ती अवस्था में भरतेश्वर की तरह चक्ररत्नादि लौकिक देवों की पूजा की थी। (त्रिशष्ठि शलाका पुरुष चरित्र ) (3) अरहन्नक-श्रमणोपासक ने नावा पूजन किया, और बलबाकुल दिये / (ज्ञाताधर्मकथा) (4) अभयकुमार ने धारिणी का दोहद पूर्ण करने को अष्टमभक्त तप कर देवाराधन किया / (ज्ञाताधर्मकथा) (5) कृष्ण वासुदेव ने अपने छोटे भाई के लिये अष्टम त. पकर देवाराधन किया। (अंतकृत दशांग) (6) हेमचन्द्राचार्य ने पद्मनी रानी को नग्न रख कर उस के सामने विद्या सिद्ध की। (योगशास्त्र भाषान्तर प्रस्तावना (७मूर्ति पूजक सम्प्रदाय के जिनदत्त सूरि आदि प्राचा यों ने भी देवी देवताओं का आराधन किया (मूर्ति-पूजक ग्रंथ () मूर्ति पूजक साधु प्रतिक्रमण में देवी देवताओं की प्रार्थना करते हैं जो प्रत्यक्ष है। जब कि खुद मूर्ति पूजक साधु ही मुनि धर्म से विरूद्ध होकर लौकिक देवताओं का आराधन श्रादि करते हैं तो संसार में रहे हुए गृहस्थ श्रावक लौकिक कार्य और कुला चार से लौकिक देवताओं को पूजे इसमें आश्चर्य की क्या Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (43) बात है ? अतएव सिद्ध हुआ कि श्रमणोपासक वंशपरंपरा नुसार लौकिक देवों का पूजन कर सकते हैं। अगर इसको धर्म नहीं मानने की बुद्धि है तो इतने पर से सम्यक्त्व चला नहीं जाता। और 'कयबालिकम्मा' शब्द का अर्थ एकान्त 'देव पूजा' भी तो नहीं हो सकता, क्योंकि (क) प्रथम तो यह शब्द स्नान के विस्तार को संकोच कर रक्खा गया है। (ख दूसरा ज्ञाता धर्म कथांग के 8 वे अध्ययन में मल्लिनाथ के स्नानाधिकार में भी यह शब्द पाया है। इसलिये इसका देव पूजा अर्थ नहीं होकर स्नान विशेष ही हो सकता है। क्योंकि गृहस्थावस्था में रहे हुए तीर्थकर प्रभु भी चक्र वर्तीपन के सिवाय, माता पिता के अलावा और किसी को चन्दन, नमन, पूजा नहींकरते अतएव यहां देवपूजा अर्थ नहीं होकर स्नान विशेष ही माना जायगा / इस तरह वलिकर्म का अर्थ जिन मूर्ति पूजा मानना बिलकुल अनुचित और प्रमाण शून्य दिखाता है। जो कार्य प्राश्रव वृद्धि का तथा गृहस्थों के करने का चरितानुवाद रूप है उसमें धार्मिकता मान कर उसमें धार्मिक विधि कह डालने वाले वास्तव में अपनी कूट नीति का परिचय देते हैं। क्योंकि श्रावके के धार्मिक जीवन का जहां वर्णन है वहां इसी भगवती सूत्र के तुंगिया के श्रावो के वर्णन में यह बताया है कि Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (44) - 'वे धावक जीवाजीप आदि नव पदार्थों के जानकार निग्रंथ प्रवचन में अनुरक्त, दान के लिए खुले द्वार वाले तथा भण्डार और अन्तःपुर में भी विश्वास पात्र हैं, जो शीलवत गुणवत प्रत्याख्यान आदि का पठन करते थे अष्टमी,चतुर्दशी पूर्णिमा, अमावश्या को पौषधोपवास करने वाले साधु साध्वि यों को दान देने वाले शंका कांक्षादि दोष रहित, व सूत्र अर्थ जानकार ऐसे अनेक गुण वाले थे, उन्होंने स्थविर भगवन्त से तप संयम आदि विषयों पर प्रश्नोत्तर कीये थे, इत्यादि.' ___ जबकि-श्रावको के धर्म कर्तव्यों के वर्णन करने में मूर्तिपूजा की गंध भी नहीं है, तो फिर स्नान करने के स्नानागार में मूर्ति पूजा का क्या सम्बन्ध ? अतएव ‘कयबलिकम्मा' से जिन मूर्ति पूजने का मन कल्पित अर्थ करके उन माननीय श्रावकों को मूर्ति पूजक ठहराने की मिथ्या कोशिष न्याय संगत नहीं है / ऐसी निर्जीव दलीलों में तो मूर्ति-पूजा का सिद्धांत एकदम लचर और पाखण्ड युक्त सिद्ध होता है। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८-चैत्य-शब्दार्थ प्रश्न-चैत्य शब्द का अर्थ जिन-मन्दिर और जिनप्रतिमा नहीं तो दूसरा क्या है ? उत्तर-चैत्य शब्द अनेकार्थ वाची है, प्रसंगोपात प्रकरणानुकूल ही इसका अर्थ किया जाता है, जिनागमों में चैत्य शब्द के निम्न अर्थ करने में आये हैं। व्यंतरायतन, बाग, चिता पर बना हुश्रा स्मारक, साधु, धान, गति विशेष, बनाना, (चुनना ) वृक्ष, विशेष इत्यादि / (1) नगरी के वर्णन के साथ आये हुए चैत्य शब्द का अर्थ व्यंतरायतन होता है, स्वंय टीकाकार भी यही कहते हैं देखिये चेहएत्ति चितेलेप्यादि चयनस्य भावः कर्मवेति चैत्यं, संज्ञा शब्दत्वाद् देव बिम्ब तदाश्रयत्वात् तद्गृहमपि चैत्यं तच्चेह व्यतरायतनम् नतुभगवता महितायतनम् Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके सिवायरुक्खंवा चेइअकडं, थुर्ववाचेइअकडं, (श्राचारांग) ___(2) बाग-अर्थ में भगवती उत्तराध्ययनादि में पाया है, जैसे 'पुष्फवत्तिए चेइए' मंडिकुच्छंसि चेइए और मूर्ति-पूजक वीर पुत्र श्री आनन्द सागरजी ने अपने अनुवाद किये हुए 'अनुत्तरोपपातिकदशा' 'विपाक सूत्र' में नगरी के साथ आये हुए सभी चैत्य शब्ददों का अर्थ 'उपवन' किया है जो बाग के ही अर्थ को बताने वाला है। (3) चिता पर बने हुए स्मारक इस अर्थ के चेइय शब्द श्राचारांग और प्रश्न व्याकरण में आते हैं, जैसे 'मडयचेहए सुवा' आदि है। (4) चेइय शब्द का साधु अर्थ उपासक दशांग व भगव. ती में लिया है , और अभयदेव सूरि ने भी स्थानांग सूत्र की टीका में चैत्य शब्द का अर्थ साधु इस प्रकार किया है चैत्यमिवजिनादि प्रतिमेव चैत्यं श्रमणं और वृहद्कल्प भाष्य उद्देशा 6 में प्राहा अाधाय-कर्म गाथा की व्याख्या में क्षेम कीर्तिसूरि लिखते हैं कि 'चैत्योहे शिकस्य' अर्थात् साधु को उद्देश कर बनाया हुआ श्राहार / इसके सिवाय दिगम्बर सम्प्रदाय के षड़पाहुड़ ग्रंथ में भी यही अर्थ किया है। देखिये बुद्धं बोहंतो अप्पाणं वेइयाइँ अण्णंच / पंच महव्वय शुद्धं, णाणमयं जाण चेदिहरं // 8 / चेहय बंधं मोक्खं, दुक्ख, सुक्खंच अप्पयंतस्य चेहहरो जिणमग्गे छक्काय हियँ भणियं // 6 // Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (47) (5) ज्ञान-अर्थ समवायांग सूत्र में चौवीस जिनेश्वरों को जिस वृक्ष के नीचे केवल-ज्ञान उत्पन्न हुआ उस वृक्ष को केवल ज्ञान की अपेक्षा से ही चैत्य वृक्ष कहा है / इससे शान अर्थ सिद्ध हुआ, दूसरा वंदना में चेइयं शब्द पाया है उसका अर्थ भी ज्ञानवंत होता है / राज प्रश्नीय की टीका में साक्षात् प्रभु के वन्दन में भी चैत्य शब्द आया है वहां टीकाकार ने 'चैत्यं सु प्रशस्त मनोहेतुत्वात्' कहकर सर्वज्ञ कोही चैत्य कह दिया है। और दिगम्बर सम्प्रदाय के षड़पाहुड में तो णा मयं जाण चेदिहरं' ( ज्ञान मय प्रात्मा को चैत्यगृह जानो ) कहा है इस पर से ज्ञान और ज्ञानी शर्थ भी सिद्ध होता है। (6) गति विशेष अर्थ-ज्ञाता धर्म कथांग के अध्ययन 2-4-8- में निम्न प्रकार पाया है। सिग्छ, चण्डं, चवलं, तुरियं, चेइयं (7) बनाना-- अर्श आचारंग अ० 11 उ०२ में इस प्रकार पाया है,- .. आगारिहिं आगाराई चेइयाई भवति [8] वृक्ष-अर्थ उत्तराध्ययन अ०७ में इस प्रकार आया वाएण हीर माणम्मि चेइयं मिमणोरमे ऐसे विशेषार्थी चैत्य शब्द का केवल जिन मन्दिर और जिन मूर्ति अर्थ करना मात्र हठ धर्मीपन ही है। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (48) - विजयानन्द सूरिजी सम्यक्त्व शल्योद्धार हिंदी श्रावृत्ति 4 पृष्ठ 175 में चैत्य शब्द का अर्थ करते हैं कि 'जिन मंदिर, जिन-प्रतिमा को चैत्य कहते हैं और चोंतरे बंद वृक्ष का नाम चैत्य कहा है इसके उपरान्त और किसी वस्तु का नाम चैत्य नहीं कहा है। इस प्रकार मनमाने अर्थ कर डालना उक्त प्रमाणों के सा. मने कोई महत्व नहीं रखता क्योंकि इन तीन के सिवाय अन्य अर्थ नहीं होने में कोई प्रमाण नहीं है। जब श्री विज. यानन्दजी चैत्य के तीन अर्थ करते हैं तो इनके शिष्य महो. दय शांति विजयजी जिनके लम्बे चौड़े टाईटल इस प्रकार जनाब, फैजमान, मग्जनेइल्म, जैन श्वेताम्बर धर्मोपदेष्टा विद्यासागर, न्यायरत्न, महाराज शांतिविजयजी अपने गुरूसे दो कदम आगे बढ़ कर अपने गुरू के बताए हुए तीन अर्थों में से एक को उड़ा कर केवल दो ही अर्थ करते हैं वे इस प्रकार हैं। 'चैत्य शब्द के मायने जिन-मन्दिर और जिन-मूर्ति यह दो होते हैं, इससे ज्यादे नहीं' [जैन मत पताका पृ०७४ पं०८] इस तरह जहां मनमानी और घर जानी होती है। हटाग्रह से ही काम चलता हो वहां शुद्ध अर्थ की दुर्दशा होना सम्भव है क्योंकि जहां हठ का प्राबल्य हो जाता है वहां उल्लिखित श्रागम सम्मत प्रकरणानुकूल शुद्ध अर्थ बताये जाय तो भी वे अपने मिथ्या हठ के कारण भले ही प्रकरण के प्रतिकूल हो मनमानी अर्थ ही करेंगे। ऐसे महानुभावों से कहना है कि Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 46 ) कृपया तत्त्व निर्णय में तो हठ को छोड़ दीजिये, और फिर निम्न प्रमाण देखिये आपके ही मान्य ग्रन्थकार आपकी दो और तीन ही मनमाने अर्थ मानकर अन्य का लोप करने की वृत्ति को असत्य प्रमाणित कर रहे हैं___ खेमविजयजी गणि कल्पसूत्र पृ. 160 पंक्ति में 'वेयावत्तस्स चेइयस्स' का अर्थ व्यंतरर्नु मन्दिर लिखते हैं, यहां आपके किये अर्थों से यह अधिक अर्थ कहां से आगया ? __यदि आप लोग चैत्य शब्द से जिन मन्दिर और जिन मूर्ति ही अर्थ करते हैं तो समवायांग में दुःख विपाक की नोंध लेते हुए बताया गया है कि दुह विवागाणं णगराई उज्जाणाई चेईयाई / क्या इस मुल पाठ में आये हुए चैत्य शब्द का भी जिनमन्दिर या जिन मुर्ति अर्थ करेंगे ! नहीं वहां तो आप अन्य मन्दिर ही अर्थ करेंगे, क्योंकि-यदि वहां आपने उन दुखान्तविपाकों ( अनार्य, पापी, मलेच्छ, और हिंसकों ) के भी जिन मंदिर होना मान लिया तब तो इन जिन मंदिरों का कोई महत्व ही नहीं रहेगा और मिथ्यात्वी सम्यक्त्वी का भी भेद नहीं रहेगा, इसलिये वहां तो आप चट से व्यंतर का मंदिर ही अर्थ करेंगे, इससे आपके विजयानन्दजी के माने हुए तीन ही अर्थों के सिवाय अन्य चौथा अर्थ भी सिद्ध हुश्रा / आपके ही 'मूर्ति-मण्डन प्रश्नोत्तर' के लेखक पृ० 282 में प्रश्न व्याकरण के श्राश्रव द्वार में आये हुए चैत्य शब्द का अर्थ ( जोकि मनो कल्पित है) इस प्रकार करते हैं कि Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (50) 'कोना चैत्य तो के कसाइ, वाघरी, मांछला पकड़नार, महाकर कर्मों करनार, इत्यादि घणा मलेच्छ जातिते सर्वे यवन लोक देवल प्रतिमा वास्ते जीवों ने हणे ते आश्रय द्वार छ। और इसी पृष्ठ पंक्ति 1 में-- __ 'ते ठेकाणे आश्रव द्वार मां तो मलेच्छोंना चैत्य 'मसिदो' ने गणावेल छे ___ इससे भी चैत्य शब्द का अन्य मंदिर और मस्ज़िद अर्थ सिद्ध हुआ। अब बुद्धिमान स्वयं विचार करें कि कहां तो केवल मनःकल्पित दो और तीन ही अर्थ मानकर बाकी के लिए शून्य ठोक देना, और कहां इन्हीं के मतानुयाइयों के माने हुए अन्य अर्थ और टीकाकारों तथा सूत्रकारों के अर्थ जो ऊपर बताये गये हैं, क्या अब भी हठधर्मीपने में कोई कसर है? कुछ जैनेतर विद्वानों के अर्थ भी देखिये-- (क) शब्द स्तोम महानिधि कोष में ग्रामादि प्रसिद्ध महावृक्ष, देवावासे जनानां, सभास्थ. तरो, बुद्ध भेदे, पायतने, चिता चिन्हे, जनसभायां, यज्ञस्थाने, जनानां विश्राम स्थाने, देवस्थानेच, / (ख) हिंदी शब्दार्थ पारिजात (कोष) में- (पृष्ठ 252) देवायतन, मसजिद, गिर्जा, चिता गामका पूज्यवृत्त मकान, यज्ञशाला, बिलीवृक्ष, बौद्ध सन्यासी, बौद्धों का मठ। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (51) (ग) भागवत पुराण स्कन्ध 3 अध्याय 26 में-- 'प्रहंकार स्त तो रुद्रश्चित्तं चैत्य स्तनोऽभवत्' अर्थात्- अहंकार से रूद्र, रूद्र से चित्त, चित्त से चैत्य अर्थात--प्रात्मा हुआ। चैत्य शब्द का मंदिर व मूर्ति यह अर्थ प्राचीन नहीं किंतु आधुनिक समय का है, ऐसा मूर्ति पूजक विद्वान पं० बेचरदासजी ने अनेक प्रबल प्रमाणों से सिद्ध किया है। ('देखो जैन साहित्यमा विकार थवाथी थयेली हानी' नामक निबन्ध ) ये लोग कब से और किस प्रकार मूर्ति अर्थ करने लगे हैं यह भी पण्डितजी ने स्पष्ट कर दिया है, इस निबन्ध को सम्यक प्रकार से पढ़कर अपने हठ को छोड़ना चाहिये। और यह पक्का निश्चय कर लेना चाहिये कि-धार्मिक विधि का विधान किसी के कथानक या शब्दों की ओर से नहीं किया जाता किन्तु खास शब्दों में किया जाता है। इत्यादि प्रमाणों पर से हम इन मूर्ति-पूजक बन्धुओं से यही कहते हैं कि-कृपया अभिनिवेश को छोड़कर शुद्ध हृदय से विचार करें और सत्य अर्थ को ग्रहण कर अपना कल्याण साधे / Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (52) ६-आवश्यक नियुक्ति, और भरतेश्वर प्रश्न-आवश्यक नियुक्ति में लिखा है कि चक्रवर्ती भरतेश्वर ने अष्टापद पर्वत पर चौवीस तीर्थंकरों के मन्दिर बना कर मूर्ति में स्थापित की इस प्रकार श्रेणिक आदि अन्य श्रावकों ने भी मन्दिर बना कर मूर्ति-पूजा की है इसे आप क्यों नहीं मानते ? क्या इसी कारण से आप 32 सूत्र के सिवाय अन्य सूत्रों और मूल के सिवाय टीका नियुक्ति आदि को नहीं मानते है ? उत्तर-महाशय? क्या श्राप इसी बल पर मूर्ति पूजा को धर्म का अंग और प्रभु आज्ञा युक्त मानते हैं ? क्या आप इसी को प्रमाण कहते हैं ? श्रापका यह प्रमाण ही प्रमाणित करता है कि मूर्ति-पूजा धर्म का अंग और प्रभु श्राज्ञा युक्त को मात्र ही कहते है, वास्तव में तो है पागम प्रमाण का दीवाला ही। ___ हम आप से सानुनय यह पूछते हैं कि आपका और नियुक्तिकार का यह कथन आवश्यक के किस मूल पाठ के Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 53 ) प्राधार से है ? जब कोई आपसे पूछेगा कि जिस आवश्यक की यह नियुक्ति कही जाती है उस आवश्यक के मूल में संक्षिप्त रूप से भी इस विषय में कहीं कुछ संकेत है क्या ? तब उत्तर में तो आपको अनिच्छा पूर्वक भी यह कहना पड़ेगा कि मूल में तो इस विषय का एक शब्द भी नहीं है, क्योंकि अभाव का सद्भाव तो श्राप कैसे कर सकते हैं ? इधर प्रकृति का यह नियम है कि बिना मूल के शाखा प्रतिशाखा पत्र, पुष्फ फल आदि नहीं हो सकते, अगर कोई बि. ना मूल के शाखा आदि होने का कहे भी तो वह सुशजनों के सामने हंसी का पात्र बनता है इसी प्रकार बिना मूल की यह शाखा रूप यह नियुक्ति (व्याख्या) भी युक्ति रहित होने से अमान्य रहती है। भरतेश्वर का विस्तृत वर्णन जंबुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र के मूल पाठ में आया है, उसमें भरतेश्वर के चक्ररत्न, गुफा, किंवाड़ प्रादि के पुजने का तो कथन है, षटखण्ड साधना में व्यंतरादि देवों की आराधना व उनके लिये तपस्या करने का भी कहा गया है किन्तु ऐसे बड़े विस्तृत वर्णन में जहां कि उनको स्नान आदि का सविस्तार कथन किया गया है, मूर्ति पूजा के लिये विन्दु विसर्ग तक भी नहीं है और तो क्या किन्तु यहां स्नानाधिकार में आपका प्रिय कयबलि कम्मा शब्द भी नहीं है फिर नियुक्तिकार का यह कथन कैसे सत्य हो सकता है ? यहां तो यह नियुक्ति मूर्ति-पूजक विद्वानों के स्वार्थ साधन की शिकार बनकर 'निर्गतायुक्तियाः' अर्थात् निकल गई है युक्ति जिससे ( युक्ति रहित ) ऐसी ही ठहरती है इसमें अधिक कहने की आवश्यक्ता नहीं। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (54) मू० पू० का यह पाठ होने से ही 32 सूत्रों के सिवाय ग्रंथ आदि भी हमको मान्य नहीं ऐसी श्रापकी शंका भी ठीक नहीं है। आपको स्मरण रहे कि 32 सूत्रों के सिवाय भी जो सूत्र, ग्रंथ, टीका, नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य, दीपिका, श्रवचूरि श्रादि वीतराग वचनों को अबाधक हो तथा आगम के अाशय को पुष्ट करने वाले हों तो हमें उनको मानने में कोई बाधा नहीं है। किन्तु जो अंश सर्वज्ञ वचनों को बाधक और बनावटी या प्रक्षिप्त,होकर आगम बाणी को ठेस पहुंचाने वाला हो वह अनर्थोत्पादक होने से हमें तो क्या पर किसी भी विज्ञ के मानने योग्य नहीं है / इन टीका आदि ग्रंथों में कई स्थान पर श्रागयाशय रहित भी विवेचन या कथन हो गया है, इसी लिये ये ग्रंथ सम्पूर्ण अंश में मान्य नहीं है, टीका आदि के बहाने से स्वार्थी लोगों ने बहुत कुछ गोटाला कर डाला है। जिनको कसौटी पर कसने से शीघ्र ही कलाई खुल जाती है, अतएव ऐसे बाधक अँश तो अवश्य लामान्य मेरा तो यह दृढ विश्वास है कि ऐसी बिना सिर पैर के वात मूल नियुक्तिकार की नहीं होगी, पीछे से किसी महा शय ने यह चतुराई (?) की होगी, ऐसे चतुर महाशयों ने शुद्ध स्वर्ग में तांबे की तरह मूल में भी प्रतिकूल वचन रूप धूल मिलाने की चेष्टा की है, जो आगे चल कर बताई जायगी। श्रेणिक राजा का नित्य 108 स्वर्ण जौ से पूजने का क थन भी इसी प्रकार निर्मूल होने से मिथ्या है, यदि लेखा 108 के बदले एक क्रोड आठ लाख भी लिख मारते तो उन्हें Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) रोकने वाला कोई नहीं था ! किन्तु जब विद्वान लोग इस कथन को वीतराग वाणी रूप कसौटी पर कस कर देखेंगे तब यह स्पष्ट पाया जायगा कि मूर्ति-पूजा के प्रचारकों ने मूर्ति की महिमा फैलाने के लिये इसे महान् पुरूषों के जीवन में जोड़ कर जहां तहां से उल्लेख कर दिये हैं / इससे पाया जाता है कि यह स्वर्ण जौ का कथन भी भरतेश्वर के कल्पना चित्र की तरह अज्ञान लोगो को भ्रम में डालने का साधन मात्र है। श्रेणिक की जिन-मूर्ति पूजा तो इन्हीं के वचनों से मिथ्या ठहरती है, क्योंकि___ एक तरफ तो ये लोग किसी प्रकार के विधान बिना ही मु० पू० करने से बारवां स्वर्ग प्राप्त होने का फल विधान कर ते हैं / और दूसरी तरफ श्रेणिक राजा को सदैव 108 स्वर्ण से पूजने की कथा भी कहते हैं, इस हिसाब से तो श्रेणिक को स्वर्ग प्राप्ति होनी ही चाहिये ! जब कि मामूली चावलों से पूजने वाला भी स्वर्ग में चला जाता है तो स्वर्ण जौ से पूजने वाला देवलोक में जाय इसमें श्राश्चर्य ही क्या? किन्तु हमारे प्रेमी पाठक यदि आगमों का अवलोकन करेंगे या इन्हीं मूर्ति पूजक बन्धुओं के मान्य ग्रन्थों को देखेंगे तो आप श्रेणिक को नर्क गमन करने वाला पायेंगे? इसीसे तो ऐसे कथानक की कल्पितता सिद्ध होती है। इन के मान्य ग्रन्थकार ही यह बतलाते हैं कि जब प्रभु महावीर ने श्रेणिक को यह फरमाया कि यहां से मरकर तुम नर्क में जावोगे, तब यह सुनकर श्रेणिक को बड़ा दुःख हुआ उसने प्रभु से नर्क निवारण का उपाय पूछा, प्रभु ने चार मार्ग Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 56 ) बताये / 1 नौकारसी प्रत्याख्यान स्वयं करें 2 कपलादासी अपने हाथों से मुनि को दान देवे. कालसौरिक कसाई नित्य 500 भैंसे मारता है एक दिन के लिये भी हिंसा रुकवादे, 4 पूणिया श्रावक की एक सामायिय खरीद ले, इस प्रकार चार उपाय बताये, किन्तु इनमें मूर्ति-पूजा कर नर्क निवारण का कोई मार्ग नहीं बताया। क्या प्रभु को भी मूर्ति पूजा का मार्ग नहीं सूझा ? बारहवां नहीं तो पहला स्वर्ग ही सही / इसे भी जाने दीजिये, पुनःमानव भव ही सही / इतना भी यदि हो सकता तो प्रभु अवश्य मूर्ति-पूजा का नाम इन चार उपायों में, या पृथक पांचवां उपाय ही बतलाकर सूचि त करते किन्तु जब मूर्ति-पूजा उपादेय ही नहीं तो बतलावे कहां से, श्रतएव स्पष्ट सिद्ध हो गया कि नियुक्ति के नाम से यह कथन केवल काल्पनिक ही है। प्रदेशी राजा ने अपने भंयकरपापों का नाश केवल,दया दान त्याग वैराग्य, तपश्चर्या आदि द्वारा ही किया है, उसने में अपने स्वर्ग गमन के लिये किसि मन्दिर का निर्माण नहीं क राया, न मूर्ति ही स्थापित की, न कभी पूजा आदि भी की। सुमुख गाथापति केवल मुनिदान से ही मानवभव प्राप्त कर मोक्ष मार्ग के सम्मुख हुआ, मेघकुँवर ने दया से ही संसार परिमित कर दिया, इसी प्रकार मेतार्य मुनि, मेघरथ राजा आदि के उदाहरण जगत प्रसिद्ध ही है, तपश्चर्या से धन्नाअणगार आदि अनेक महान् अत्माओं ने सुगति लाभ की है, यहां तक कि अनेक निरपराध नरनारियों की राक्षसी हिंसा कर डालने वाला अर्जुन माली भी केवल छः माह में Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 57 ) ही उपार्जित पापों का नाश कर मोक्ष जैसे अलभ्य और शाश्वत सुख को प्राप्त कर लेता है, भव भयहारिणी शुद्ध भावना से भरतेश्वर सम्राट ने सर्वज्ञता प्राप्त करली, ऐसे धर्म के चार मुख्य एवं प्रधान अंगों का पाराधन कर अनेक प्रात्मानों ने आत्म कल्याण किया है किन्तु मूर्ति पूजा से भी किसी की मक्ति हुई हो ऐसा एक भी उदाहरण उभयमान्य साहित्य में नहीं मिलता, यदि कोई दावा रखता हो तो प्रमाणित करे। इस स्वर्ण जौ की कहानी से तो महानिशीथ का फल विधान असत्य ही ठहरता है, क्योंकि-महानिशीथकार तो सामान्य पूजा से भी स्वर्ग प्राप्ति का फल विधान करते हैं और स्वर्ण जौ से नित्य पूजने वाला श्रेणिक राजा जाता है नर्क में, यह गड़बड़ाध्याय नहीं तो क्या है ? अतएव भरतेश्वर और श्रेणिक के मूर्ति पूजन सम्बन्धी कल्पित कथानक का प्रमाण देने वाले वास्तव में अपने हाथों अपनी पोल खुली करते हैं, ऐसे प्रमाण फूटी कौड़ी की भी कीमत नहीं रखते / Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०-'महाकल्प का प्रायश्चित विधान प्रश्न-महाकल्प सूत्र में श्री गौतम स्वामी के पूछ पर प्रभु ने फरमाया कि--साधु और श्रावक सदैव जिन मंदिर में जावे, यदि नहीं जावे तोछट्टा या बारहवां प्रायश्चि प्राता है, यह मूल पाठ की बात आप क्यों नहीं मानते ? उत्तर-यह कथन भी असत्य प्रतीत होता है, क्योंकि जिसकी विधि ही नहीं, उस कार्य के नहीं करने परप्रायश्चि किस प्रकार श्रा सकता है ? यहां तो कमाल की सफाई के गई है। अब इस कथन को भी कसौटी पर चढ़ाकर सत्यता परीक्षा की जाती है। इन्हीं मूर्ति-पूजकों के महानिशीथ में मूर्ति पूजा से बारहवं स्वर्ग की प्राप्ति रूप फल विधान और महाकल्प में नहीं पूजने (दर्शन नहीं करने ) पर प्रायश्चित विधान किया गया है, इन दोनों बातों को इसी महानिशीथ की कसौटी पर कसकर चढ़ाई हुई कलई खोली जाती है, देखिये Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महानिशीथ के कुशील नामक तीसरे अध्ययन में लिखा है कि 'द्रव्यस्तव जिन-पूजा प्रारंभिक है और मावस्तव ( भावपूजा ) अनारंभिक है, भले ही मेरू पर्वत समान स्वर्ण प्रासाद बनावे, भले प्रतिमा बनावे, भले ही धजा, कलश, दंड, घंटा, तोरण आदि बनावे, किन्तु ये भावस्तव मुनिव्रत के अनन्तवें भाग में भी नहीं आ सकते हैं।। आगे चलकर लिखा है कि_ 'जिन मन्दिर, जिन प्रतिमा आदि प्रारम्भिक कार्यों में भावस्तव वाले मुनिराज खड़े भी नहीं रहे, यदि खड़े रहे तो अनंत संसारी बने। पुनः आगे लिखा है कि-- __ जिसने समभाव से कल्याण के लिए दीक्षा ली फिर मुनिव्रत छोड़कर न तो साधु में और न श्रावक में ऐसा उभय भ्रय नामधारी कहे कि मैं तो तीर्थंकर भगवान की प्रतिमा की जल, चन्दन, अक्षत, धूप, दीप, फल, नैवेद्य आदि से पूजा कर तीर्थों की स्थापना कर रहा हूँ तो ऐसा कहने वाला भ्रष्ट श्रमण कहलाता है, क्योंकि वह अनंतकाल पर्यंत चतुर्गति रुप संसार में परिभ्रमण करेगा। इतना कहने के पश्चात् पांचवें अध्ययन में लिखा है कि Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (60) 'जिन पूजामें लाभ है ऐसी प्ररूपणा जो अधिकता से करे और इस प्रकार स्वयं और दूसरे भद्रिक लोगों से फल, फूलों का श्रारम्भ करे तथा करावे तो दोनों को सम्यक्त्व बोध दुर्लभ हो जाता है। ___इत्यादि खण्डनात्मक कथन जिस महानिशीथ में है उस के सामने यह महाकल्प का प्रायश्चित विधान महाकाल्पनिक ही प्रतित होता है। ___ यद्यपि महानिशीथ और महाकल्प की नोंध नंदी सूत्र में है, तथापि यह ध्यान में रखना चाहिये कि सभी सूत्र अब तक ज्यों के त्यों मूलस्थिति में नहीं रहे हैं, इनमें बहुतसा अनिष्ठ परिवर्तन भी हुआ है। हमारे कितने ही ग्रन्थ तो आक्रमण कारी प्रातताईयों द्वारा नष्ट हो गये हैं। फिर भी जितने बचकर रहे वे भी एक लम्बे समय से (चैत्यवाद और चैत्यवास प्रधान समय से) मूर्ति पूजकों के ही हाथ में रहे / यद्यपि सूत्र के एक वर्ण विषयसि को भी अनंत संसार का कारण बताया गया है, तथापि धर्म के नाम पर वैभव विलास के इच्छुक महाशयों ने सूत्रों के पाठों में परिवर्तन और नूतन प्रक्षेप करने में कुछ भी न्यूनता नहीं रक्खी / इस विषय में मात्र एक दो प्रमाण यहां दिये जाते हैं, देखिये (1. मूर्ति-पूजक विजयानन्दसूरि स्वयं 'जैन तत्वादर्श पृष्ट 585 पर लिखते हैं कि विजयदान सूरि ने एकादशांग अनेक बार शुद्ध किये। (2) पुनः पृष्ठ 312 पर लिखते हैं कि Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (61) सर्व शास्त्रों की टीका लिखी थी वो सर्व विच्छेद होगई (3) महानिशीथ के विषय में मूर्ति मण्डन प्रश्नोत्तर पृ० 187 में लिखा है कि ते सूत्र नो पाछलनो भाग लोप थई जवाथी पोताने जेटलुं मली श्राव्युं तेटलुं जिनाना मुजब लखी दीर्छ / सिवाय इसके महानिशीथ की भाषा शैली व बीच में आये हुप प्राचार्यों के नाम भी इसकी अर्वाचीनता सिद्ध क. रते हैं। इत्यादि पर से स्पष्ट होता है कि श्रागमविरुद्ध वीतराग वचनों का बाधक अंश शुद्धि तथा पूर्ण करने के बहाने से या अपनी मान्यता रूप स्वार्थ पोषण की इच्छासे कई महानुभावों ने सूत्रों में घुलाकर वास्तविकता को बिगाड़ डाला है, यही अधम कार्य प्राज भंयकर रूप धारण कर जैन समाज को छिन्न भिन्न कर विरोध कलह श्रादि का घर बना रहा जब कि आगमों में मूर्ति पूजा करने का विधिविधान बताने वाली श्राप्त प्राज्ञा के लिये विन्दु विसर्ग तक भी नहीं है, तब ऐसे स्वार्थियों के झपाटे में पाये हुए ग्रन्थों में फल विधान का उल्लेख मिले तो इससे सत्यान्वेषी और प्रायश्चि. त जनता पर कोई असर नहीं हो सकता। किसी भी समाज को देखिये उनका जो भी धर्म कृत्य है वे सभी विधि रूप से वर्णन किये हुए मिलेंगे, जिस प्रवृत्ति का विधि वाक्य ही नहीं वह धर्म कैसा? और उसके नहीं करने पर प्रायश्चित भी क्यों ? Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (62) सोचिये कि एक राजा अपनी प्रजा को राजकीय नियम तथा कायदे नहीं बतावे और उसके पालन करने की विधि से भी अनभिज्ञ रक्खे फिर प्रजा को वैसा नियम पालन नहीं करने के अपराध में कारावास में ढूंस कर कठोर यातना देवे तो यह कहां का न्याय है ? क्या ऐसे राजा को कोई न्यायी कह सकता है ? नहीं! बस इसी प्रकार तीर्थकर प्रभू मूर्ति पूजा करने की प्राज्ञा नहीं दे, और न विधि विधान ही बतावे, फिर भी नहीं पूजने पर दण्ड विधान करें? यह हास्यास्पद बात समझदार. तो कभी भी मान नहीं सकता। श्रतएव महाकल्प के दिये हुए प्रमाण की कल्पितता में कोई संदेह नहीं, और इसीसे अमान्य है। ___ इस प्रकार हमारे मूर्ति-पूजक बन्धुओं द्वारा दिये जाने घाले आगम प्रमाणों पर विचार करने के पश्चात् इनकी यु. क्तियों की परीक्षा करने के पूर्व निवेदन किया जाता है कि किसी भी वस्तु की सच्ची परीक्षा उसके परिणाम पर विचार करने से ही होती है, जिस प्रवृत्ति से जन-समाज का हित और उत्थान हो, वह तो अादरणीय है, और जोप्रवृत्ति अहित, पतन वैसे ही दुःखदाता हो वह तत्काल त्यागने योग्य है। ___ प्रस्तुत विषय (मूर्ति पूजा ) पर विचार करने से यह हेयपद्धति ही सिद्ध होती है, आज यदि मूर्ति-पूजा की भंय. करता पर विचार किया जाय तो रोमांच हुए बिना नहीं रहता। आजके विकट समय में देश की अपार सम्पत्ति का हास इस मूर्ति पूजा द्वारा ही हुआ है, मूर्ति के आभूषण मन्दिर Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (63) निर्माण, प्रतिष्ठा, यात्रा संघ निकालना, आदि कार्यों में परबों रुपयों का व्यर्थ व्यय हुआ है और प्रति वर्ष लाखों का होता रहता है, ऐसे ही लाखों रुपये जैन समाज के इन मन्दिर मूर्ति और पहाड़ आदि की वापसी लड़ाई में भी हर वर्ष स्वाहा हो रहे हैं। प्रति वर्ष साठ हजार रुपये तो अकेले पालीताने के पहाड़ के कर के ही देने पड़ते हैं, भाई भाई का दुश्मन बनता है, भाई भाई की खून खराबी कर डालता है, यहां तक कि इन मन्दिर मूर्तियों के अधिकार के लिये भाई ने भाई का रक्तपात भी करवा दिया है जिसके लिये केशरिया हत्याकांड का काला कलंक मू० पू० समाज पर अमिट रूप से लगा हुआ है / इन मन्दिरों और मूर्तियों के लिये इनके भागमोद्धारक प्राचार्य देवरक्त से मन्दिर को धोकर पवित्र कर डालने की उपदेश धारा बहा कर जैनागम रहस्य ज्ञाता होने का नीत ( ? ) परिचय देते हैं / ऐसी सूरत में ये मन्दिर और मूर्तियें देश का क्या उत्थान और कल्याण करेंगे ??? जहां देश के अगणित बन्धु भूखे मरते हैं और तड़फ 2 कर अन्न और वस्त्र के लिये प्राण खो देते हैं वहां इन शूर वीरों को लाखों रुपये खर्च कर संघ निकालने में ही आत्म कल्याण दिखाई देता है, यह कहां की बुद्धिमत्ता है ? ___ इस देश में गुलामी का आगमन प्रायः मूर्ति पूजा की अ. धिकता से ही हुआ है और हुई है करोड़ों हरिजनों की पशु से भी बदतर दशा ? ऐसी स्थिति में यह मूर्ति पूजा त्यागने योग्य ही ठहरती है। कितने ही महानुभाव यह कहते हैं कि हम मूर्ति पूजा नहीं करते किन्तु मूर्ति द्वारा प्रभु पूजा करते हैं। किन्तु यह Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (64) कथन भी सत्य से दूर है / वास्तव में तो ये लोग मूर्ति ही की पूजा करते हैं, और साथ ही करते हैं वैभव का सत्कार यदि आप देखेंगे तो मालूम होगा कि जहां मूर्ति के मुकुट कुण्डलादि प्राभूषण बहुमूल्य होंगे, जहां के मंदिर विशाल और भव्य महलों को भी मात करने वाले होंगे जहां की सजाई मनोहर और आकर्शक होगी वहां दर्शन पूजन करने वाले अधिक संख्या में जायंगे, अथवा जहां के मंदिर मूर्ति के चमत्कार की झूठी कथाएं और महात्म्य अधिक फैल चुके होंगे वहां के ही दर्शक पूजक अधिकाधिक मिलेंगे ऐसे ही मंदिरों मूर्तियों की यात्रा के लिए लोग अधिक जावेंगे संघ भी ऐसे ही तीर्थों के लिए निकलेंगे, किन्तु जहां मामूर्ल झोंपड़े में प्राभूषण रहित मूर्ति होगी, जहां चित्रशाला जैर्स सजाई नहीं होगी, जहां की कल्पित चमत्कारिक किंवदंतिये नहीं फैली होगी, जहां के मंदिरों की व मूर्ति की प्रतिष्ठा नही हुई होगी ऐसी मूर्तियों व मंदिरों को काई देखेगा भी नहीं ! देखना तो दूर रहा वहां की मूर्तिये अपूज्य रह जायगी, वहां के ताले भी कभी 2 नौकर लोग खोल लिया करें तो भले ही किन्तु उस गांव में रहने वाले पूजक भी अन्य सजे सजाये आकर्षक मंदिरों की अपेक्षा कर इन गरीब और कंगाल मंदिरों के प्रति उपेक्षा ही रखते हैं ऐसे मंदिरों की हालत जिस प्रकार किसी धनाढ्य के सामने निर्धन और भूखे दरिद्रों की होती है बस इसी प्रकार की होती है। जिसके साक्षात् प्रमाण आज भी भारत में एक तरफ तो क्रोड़ों की सम्पत्ति वाले, बड़े 2 विलास भवन और रंग महल को भी मात करने वाले जैन मंदिर, और दूसरी ओर कई स्थानों के अपूज्य दशा में रहे हुए इन्हीं तीर्थंकरों की मूर्तियों वाले Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 65 ) निर्धन जैन मंदिर है / अतएव सिद्ध हुश्रा कि- ये मूर्ति-पूजक चन्धु वास्तव में मूर्ति पूजक ही हैं, और मूर्ति के साथ वैभव विलास के भी पूजक हैं / यदि इनके कहे अनुसार ये मूर्तिपूजक नहीं होकर मूर्ति द्वारा प्रभु पूजक होते तो इनके लिए वैभव सजाई आदि की अपेक्षा और उपादेयता क्यों होती ? प्रतिष्ठा की हुई और अप्रतिष्ठित का भेद भाव क्यों होता? क्या अप्रतिष्ठित मूर्ति द्वारा ये अपनी प्रभु पूजा नहीं कर सकते ? किन्तु यह सभी झूठा बवाल है। मूर्ति के जरिये से ही पूजा होने का कहना भी झूठ है प्रभु पूजा में मूर्ति फोटो आदि की आवश्यकता ही नहीं है, वहां तो केवल शुद्धान्तः करण तथा सम्यग्ज्ञान की आवश्यकता है जिसको सम्यग्ज्ञान है, यह सम्यक् क्रिया द्वारा प्रात्मा और परमात्मा की परमोस्कृष्ट पूजा कर सकता है / मूर्ति पूजा कर उसके द्वारा प्रभु को पूजा पहुंचाने वाले वास्तव में लकड़ी या पाषाण के घोड़े पर बैठकर दुर्गम मार्ग को पार कर इष्ट पर पहुंचने की विफल चेष्टा करने वाले मूर्खराज की कोटि से भिन्न नहीं है। ____ इतने कथन पर से पाठक स्वयं सोच सकते हैं कि मूर्ति पूजा वास्तव में अात्म कल्याण में साधक नहीं किन्तु बाधक " है, जब कि-यह प्रत्यक्ष सिद्ध हो चुका कि मूर्ति पूजा के द्वारा हमारा बहुत अनिष्ट हुवा और होता जारहा है फिर ऐसे नग्न सत्य के सम्मुख कोई कुतर्क ठहर भी नहीं सकती किन्तु प्रकरण की विशेष पुष्टि और शंका को निर्मूल करने के लिए कुछ प्रचलित खास 2 शंकाओं का प्रश्नोत्तर द्वारा समाधान किया जाता है, पाठक धैर्य एवं शान्ति से अवलोकन करें। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११-क्या शास्त्रों का उपयोग करना भी मू० पू० है ? प्रश्न-शास्त्र को जिनवाणी और ईश्वर वाक्य मान कर उनको सिर पर चढाने वाले आप मूर्ति पूजा का विरोध कैसे कर सकते हैं ? उत्तर--यह प्रश्न भी वस्तुस्थिति की अनभिज्ञता का परिचय देने वाला है, क्योंकि कोई भी समझदार मनुष्य कागज और स्याई के बने हुए शास्त्रों को ही जिनवाणी या ईश्वर वाक्य नहीं मानता, न पुस्तक पन्ने ही सर्वज्ञ बचन है, हां पुस्तक रूप में लिखे हुए शास्त्र पढ़ने या भूले हुए को याद कराने में भी साधन रूप अवश्य होते हैं और उनके उपयोग की मर्यादा भी पढ़ने पढाने तक ही है किन्तु उनको ही जिनवाणी मान कर वन्दन नमन करना या सिर पर उठा कर फिरना यह तो केवल अन्ध भक्ति ही है क्योंकि वन्दनादि सत्कार शानदाता प्रात्मा का ही किया जाता है। हमा री इस मान्यता के अनुसार हमारे मूर्ति-पूजक बन्धु श्री यति Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (67) मूर्ति को मूर्ति दृष्टि से देखने मात्र तक ही सीमित रक्खें तो | फिर भी उतनी मूर्खता से क्या बच सकते हैं, यह स्मरण है कि--जिस प्रकार शास्त्रों का पठन पाठन रूप उपयोग शान वृद्धि में आवश्यक है इस प्रकार मूर्ति आवश्यक नहीं शास्त्र द्वारा अनेकों का उपकार हो सकता है क्योंकि सा. हित्य द्वारा ही अजैन जनता में भारत के भिन्न 2 प्रांतों और विदेशों में रहने वालों में जैनत्व का प्रचार प्रचूरता से हो सकता है। मनुष्य चाहे किसी भी समाज या धर्म का अनु. यायी हो, किन्तु उसकी भाषा में प्रकाशित साहित्य जब उस के पास पहुंच कर पठन पाठन में आता है तो उससे उसे जैनत्व के उदार एवं प्राणी मात्र के हितैषी सिद्धान्तों की स. च्ची श्रद्धा हो जाती है इस से जैन सिद्धान्तों का अच्छा प्रभाव होता है, अाज भारत या विदेशों के जैनेतर विद्वान जो जैन धर्म पर श्रद्धा की दृष्टि रखते हैं यह सब साहित्य प्रचार ( जो स्वल्प मात्रा में हुआ है) से ही हुआ है इसलिये जड़ होते हुए भी सभी को एक समान विचारोत्पादक शास्त्र जितने उपकारी हो सकते हैं उनकी अपेक्षा मूर्ति तो किञ्चित मात्र भी उपकारक नहीं हो सकती, श्राप ही बताईये कि अजैनों में मूर्ति किस प्रकार जैनत्व का प्रचार कर सकती है ? आज तक केवल मूर्ति से ही किञ्चित् मात्र भी प्रचार हुभा हो तो बताईये। प्रचार जो होता है वह या तो उपदेशकों द्वारा या साहित्य प्रचार से ही मूर्ति को नहीं मानने वालों की आज सं. सार में बड़ी भारी संख्या है वैसे साहित्य प्रचार को नहीं Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (68) मानने वालों की कितनी संख्या है ? कहना नहीं होगा कि साहित्य प्रचार को नहीं मानने वाली प्रभागी समाज शायद ही कोई विश्व में अपना अस्तित्व रखती हो / श्राज पुस्तक द्वारा दूर देश में रहा हुआ कोई व्यक्ति अपने से भिन्न स. माज,मत, धर्म के नियमादि सरलता से जान सकता है परन्तु यह कार्य मूर्ति द्वारा होना असंभन को भी संभव बनाने सदृश है, जिस प्रकार अनपढ़ के लिये शास्त्र व्यर्थ है उसी प्रकार मूर्ति पूजा अजैनों के लिये ही नहीं किन्तु श्रुतज्ञान रहित मूर्ति पूजकों के लिये भी व्यर्थ है / मूर्ति-पूजक बंधु जो मूर्ति को देखने से ही प्रभु का याद अाना कहते हैं, यह भी मिथ्या कल्पना है, यदि बिना मूर्ति देखे प्रभु याद नहीं आते हो तो मूर्ति पूजक लोग कभी मन्दिर को जा ही नहीं सकते क्योंकि मूर्ति तो मन्दिर में रहती है और घरमें या रास चलते फिरते तो दिखाई देती नहीं जब दिखाई ही नहीं देत तब उन्हें याद कैसे प्रासके ? वास्तव में इन्हें याद तो अपने घ पर ही श्राजाती है जिससे ये लोग तान्दुल श्रादि लेकर मन्दि को जाते हैं / अतएव उक्त कथन भी अनुपादेय है। जिनको तीर्थकर प्रभु के शरीर या गुणों का ध्यान करन हो उनके लिये तो मूर्ति अपूर्ण और व्यर्थ है ध्याता के अपने हृदय से मूर्ति को हटाकर औपपातिक सूत्र में बता हुए तीर्थकर स्वरूप का योग शास्त्र में बताए अनुसार ध्या करना चाहिये, मूर्ति के सामने ध्यान करने से मूर्ति ध्याता का ध्यान रोक रखती है, अपने से श्रागे नहीं बढ़ने देती, यह प्रत्यक्ष अनुभव सिद्ध बात है। अतएव मूर्ति पूजा करणी य सिद्ध नहीं हो सकती। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२-अवलम्बन प्रश्न-- बिना अवलम्बन के ध्यान नहीं हो सकता इस लिए अवलंबम रूप मूर्ति रखी जाती है, मूर्ति को नहीं मानने पाले ध्यान किस तरह कर सकते हैं ? उत्तर-ध्यान करने में मूर्ति की कुछ भी आवश्यकता नहीं, जिन्हें तीर्थकर के शरीर और बाह्य अतिशय का ध्यान करना है वे सूत्रों से उनके शरीर और अतिशय का वर्णन जान कर अपने विचारों से मनमें कल्पना करे और फिर तीर्थकरों के भाव गुणों का चिन्तन करे बिना अनन्तज्ञानादि भाव गुणों का चिन्तन किये, अतिशयादि बाह्य वस्तुओं का चिन्तन अधिक लाभकारी नहीं हो सकता। ध्यान में यह विचार करे कि प्रभु ने किस प्रकार घोर एवं भयंकर कष्टों का सामना कर वीरता पूर्वक उनको सहन किये, और समभाव युक्त चारित्र का पालन कर शानादि अनन्त चतुष्टय रूप गुण प्राप्त किये, बानावरणीयादि कमों की प्रकृति, उनकी भंयकरता प्रादि पर विचार कर शुभ गुणों को प्राप्त करने की भावना Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 70) करे, ज्ञानी पुरुषों की स्तुति करे, इस प्रकार सहज ही में ध्यान हो सकता है, और स्वयं ध्येय ही आलंबन बन जाता है, किसी अन्य प्रालंबन की आवश्यकता नहीं रहती। इसके सिवाय अनित्यादि बारह प्रकार की भावनाएं, प्रमोदादि चार अन्य भावनाएं, प्राणी मात्र का शुभ एवं हितचिन्तक, स्वा. त्म निन्दा, स्वदोष निरीक्षण प्रादि किसी एक ही विषय को लेकर यथाशक्य मनन करने का प्रयत्न किया जाय और ऐसे प्रयत्न में सदैव उतरोत्तर वृद्धि की जाय तो अपूर्व आनन्द प्राप्त हो कर जीव का उत्थान एवं कल्याण हो सकता है। ऐसी एक 2 भावना से कितने ही प्राणी संसारसमुद्र से पार होकर अनन्त सुख के भोक्ता बन चुके हैं। ऐसे धर्म ध्यानों में मूर्ति की किचित् मात्र भी आवश्यकता नहीं, ध्येय स्वयं प्रालंबन बन जाता है। शरीर को लक्ष्य कर ध्यान करने वाले को श्री केशरविजयजी गणिकृत गुजराती भाषांतर वाली चौथी श्रावृ त्ति के योगशास्त्रपृ० 346 में प्राकृति ऊपर एकाग्रता' विषयक निम्न लेख को पढ़ना चाहिये, __ "कोई पण पूज्य पुरुष उपर भक्ति वाला माणसो घणी सहेलाई थी एकाग्रता करी शके छ धारो के तमारी खरी भक्ति नी लागणी भगवान महावीर देव उपर छे तेश्रो तेम नी छद्मस्थावस्था मां राजगृहीनी पासे आवेला वैभार गिरि नी पहाड़नीएक गीच झाड़ीवाला प्रदेश मां आत्म ध्यान मां लीन थई उभेलाछे प्रास्थले वैभार गिरिगीच झाड़ी सरिताना प्रवाही नोधोध अनेतेनी आजु बाजु नो हरियालो शान्त श्रने रमणीय प्रदेश पासर्व तमारा मानसिक विचारो थी फल्यो, आ कल्प Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (71) ना शुरुअात मां मनने खुश राखनार छ, पछी प्रभु महावीर नी पगथी ते मस्तक पर्यंत सर्व आकृति एक चितारो जेम चितरतो होय तेम हलवे हलवे ते प्राकृति नुं चित्र तमारा हृदय पट पर चितरो, श्रालेखो, अनुभवो प्राकृति ने तमे स्पष्ट पणे देखता हो तेटली प्रबल कल्पना थो मनमा अालेखी तेना उपर तमारा मनने स्थिर करी राखो मुहूर्त पर्यंत ते उपर स्थिर थथां वरेखर एकाग्रता थशे' / इसके सिवाय इसी योग शास्त्र के नवम प्रकाश में रुपस्थ ध्यान के वर्णन में प्रारम्भ के सात श्लोकों द्वारा पृ० 371 में ध्यान करने की विधि इस प्रकार बताई गई है। मोक्ष श्रीसंमुखीनस्य, विध्वस्ताखिल कर्मणः / चतुर्मुरूस्य निःशेष, भुवनामयदायिनः // 1 // इन्दु मण्डल शंकाशच्छत्र त्रितय शालिनः॥ लमद् भामण्डला भोग विडंबित विवस्वतः // 2 // दिव्य दुंदुभि निर्घोष गीत साम्राज्यसम्पदः रणद् द्विरेफ झंकार मुखराशोकशोभिनः // 3 // सिंहासन निषण्णस्य वीज्य मानस्य चामरैः / / सुरासुर शिरोत्न, दीप्तपादनखाते // 4 // दिव्य पुष्पोत्करा कीर्ण, संकीर्णपरिषदभुवः / उत्कंधरेगकुलैः पीयमानकलध्वनैः ! // 5 // शात वैरेभ सिंहादि, समुपासित संनिधः / Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 72) प्रभोः समवसरण, स्थितस्य परमेष्ठिनः / / 6 / / सीतिशय युक्तस्य केवल ज्ञान भास्वतः / अर्हतो रुपमालव्य, ध्यानं रूपस्थ मुच्यते // 7 // ____ इन सात श्लोकों में बताए अनुसार साक्षात् समवसरण में बिराजे हुए सम्पूर्ण अतिशय वाले नरेन्द्र, देवेन्द्र तथा पशु पक्षी मनुष्य प्रादि से सेवित तीर्थकर प्रभु का ही अव. लंबन कर जो ध्यान किया जाता है उसे रूपस्थ ध्यान कहते ___ उक्त प्रकार से सच्ची प्राकृति को लक्ष्य कर उत्तम ध्यान किया जासकता है। ऐसे ध्यान में मूर्ति की तनिक भी प्रा. वश्यकता नहीं, स्वयं चारों निक्षेप की मात्र प्राकृति ही श्रा. लंबन बन जाती है, ऐसे ध्यान कर्ता को कोई बुरा नहीं कह सकता। जो मूर्ति का श्रालंबन लेकर ध्यान करने का कहते हैं। वे ध्यान नहीं करके लक्ष्य चूक बन जाते हैं, क्योंकि ध्याता का ध्यान तो मूर्ति पर ही रहता है, वह मूर्ति ध्याता को अपने से आगे नहीं बढ़ने देती, ध्याता के सम्मुख मूर्ति होने से ध्यान में भी वही पाषाण की मूर्ति हृदय में स्थान पा लेती हैं, इससे वह ध्येय में प्रोट बन कर उसको वहां तक पहुंचने ही नहीं देती, जैसे एक निशाने बाज किसी वस्तु को लक्ष्य कर निशाना मारता है तो लक्ष्य को वेध सकता है। अर्थात् उसका निशाना लक्षित वस्तु तक पहुंच सकता है, Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 73) किन्तु वही निशानेबाज लक्षित वस्तु को वेधने के लिये नि. शाना मारते समय अपने व लक्ष्य के बीच में कुछ दूसरी वस्तु ओट की तरह रख कर उसीकी ओर निशाना मारे या बीच में दिवाल खड़ी कर फिर निशाना चलावे तो उसका निशा. ना वह दिवाल रोक लेती है जिससे वह लक्ष्य भ्रष्ट हो जाता है, इसी प्रकार मूर्ति को सामने रख कर ध्यान करने वाले के लिये मूर्ति, दिवाल ( श्रोट) का काम करके ध्याता का ध्यान अपने से आगे नहीं बढ़ने देती। बिना मूर्ति के किया हुआ ध्यान ही अर्हत् सिद्ध रूप लक्ष्य तक पहुंच कर चित्त को प्रसन्न और शांत कर सकता है, अतएव ध्यान में मूर्ति की आवश्यकता नहीं है। __शास्त्रों में भरतेश्वर, नमिराज, समुद्रपाल आदि महापुरुषों का वर्णन प्राता है, वहां यह बताया गया है कि उन्होंने बिना इस प्रचलित जड़ मूर्ति के मात्र भावना से ही संसार छोड़ा और चारित्र स्वीकार कर आत्म कल्याण किया है, भरतेश्वर ने अनित्य भावना से केवलज्ञान प्राप्त किया किन्तु उन्हें किसी मूर्ति विशेष के बालंबन लेने की आवश्यकता नहीं हुई, अतएव ध्याता को ध्यान करने में मूर्ति की भावश्यकता है ऐसे कथन एक दम निस्सार होने से बुद्ध गम्य नहीं है। - - Mana RE R Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३–'नामस्मरण और मूर्ति-पूजा' प्रश्न--जिस प्रकार श्राप नामस्मरण करते हैं उसी प्रकार हम मूर्ति-पूजा करते हैं, यदि मूर्ति पूजा से लाभ नहीं तो नामस्मरण से क्या लाभ ? जैसे "मूर्ति मण्डन प्रश्नोत्तर" पृ० 57 पर लिखा है कि- . "जेम कोई पुरुष हे गाय दूध दे, एम केवल मुखे थी उच्चारण करे तो तेने दूध मले के नहीं ? तमे कहेशो के नहीं, त्यारे परमेश्वर ना नाम थी के जाप थोपण काई कार्य सिद्ध नहीं थाय तो पछी तमारे परमात्मा नुं नाम पण न लेवु जोइए। इसका क्या समाधान है ? उत्तर-यह तो प्रश्नकर्ता की कुतर्क है और ऐसी ही कुतर्फ श्रीमान् लब्धिमूरिजी ने भी की थी जो कि "जैन सत्य प्रकाश में प्रकट हो चुकी है, इन महानुभावों को यह भी मालूम नहीं कि-'कोई भी समझदार मनुष्य खाली तोता Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (75) रटन रूप नाम स्मरण को उच्च फल प्रद नहीं मानता, भाष युक्त स्मरण ही उत्तम कोटि का फलदाता है। किन्तु भाव युक्त भजन के आगे तोते की तरह किया हुघा नामस्मरण किंचित् मात्र होते हुए भी मूर्ति पूजा से तो अच्छा ही है, क्योंकि केवल वाणी द्वारा किया हुआ नामस्मरण भी 'वाणीसुप्रणिधान' तो अवश्य है, और 'वाणीसुप्रणिधान' किसी 2 समय 'मनः सुप्रणिधान' का कारण बन जाता है, और मूर्ति पूजा तो प्रत्यक्ष में 'कायन्दुष्प्रणिधान' प्रत्यक्ष है, साथ ही मनःदुष्प्रणिधान की कारण बन सकती है, क्योंकि-पूजा में आये हुए पुष्पादि घ्राणेन्द्रिय के विषय का पोषण करने वाले हैं, मनोहर सजाई, आकर्षक दीपराशी और नृत्यादि नेत्रेन्द्रिय को पोषण दे ही देते हैं, वाजिन्न और सुरीले तान टप्पे कर्णेन्द्रिय को लुभाने में पर्याप्त है, स्नान शरीर विकार बढ़ाने का प्रथम श्रृंगार ही है, इस प्रकार जिस मूर्ति-पूजा में पांचों इन्द्रियों के विषय का पोषण सुलभ है वहां मनदुष्पणिधान हो तो आश्चर्य ही क्या है ? वहां हिंसा भी प्रत्यक्ष है, अतएव मूर्ति पूजा शरीर और मन दोनों को बुरे मार्ग में लगाने वाली है, कर्मबंधन में विशेष जकड़ने वाली है, इससे तो केवल वाणी द्वारा किया हुश्रा नामस्मरण ही अच्छा और वचन दुष्प्रणिधान का अवरोधक है, और कभी 2 मनःसुप्रणिधान का भी कारण हो जाता है, अतएव मूर्ति-पूजा से नामस्मरण अवश्य उत्तम है। यदि यह कहा जाय कि-'हमारी यह द्रव्य-पूजा काय दुष्प्रणिधान होते हुए भी मनासुप्रणिधान (भाव-पूजा ) की कारण है' तो यह भी उचित नहीं,क्योंकि-मनःसुप्रणिधान Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 76 ) में शरीर दुष्प्रणिधान की आवश्यक्ता नहीं रहती, द्रव्य-पूजा से भाव-पूजा बिलकुल प्रथक् है, भाव-पूजा में किसी जीव को मारना तो दूर रहा सताने की भी आवश्यकता नहीं रहती, न किसी अन्य बाह्य वस्तुओं की ही आवश्यकता रहती है। भाव-पूजा तो एकान्त मन, वचन, और शरीर द्वारा ही की जाती है / अतएव द्रव्य पूजा को भाव-पूजा का कारण कहना असत्य है। स्वयं हरिभद्रसरि आवश्यक में लिखते हैं कि-- 'भावस्तव में द्रव्यस्तव की आवश्यकता नहीं। और जो गाय का उदाहरण दिया गया है वह भी उल्टा प्रश्नकार के ही विरुद्ध जाता है, क्योंकि जिस प्रकार गाय के नाम रटन मात्र से दृध नहीं मिल सकता, उसी प्रकार पत्थर, मिट्टी, या कागज़ पर बनी हुई गाय से भी दूध प्राप्त नहीं हो सकता यदि हमारे मूर्ति पूजक बन्धु इस उदाहरण से भी शिक्षा प्राप्त करना चाहें तो सहज ही में मूर्ति पूजा का यह फन्दा उनसे दूर हो सकता है। किन्तु ये भाई ऐसे सीधे नहीं, जो मान जाय, ये तो नाम से दूध मिलना नहीं मानेंगे, पर गाय की मूर्ति से दूध प्राप्त करने की तरह मूर्ति-पूजा तो करेंगे ही। - साक्षात् भाव निक्षेप रूप प्रभु की आराधना साक्षात् गाय के समान फलप्रद होती है, किन्तु मूर्ति से इच्छित लाभ प्राप्त करने की आशा रखना तो पत्थर की गाय से दूध प्राप्त करने के बराबर ही हास्यास्पद है। अतएव बेसमझी को छोड़ कर सत्य मार्ग को ग्रहण करना चाहिये / Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (77) 14- भौगोलिक नक्शे प्रश्न-जिस प्रकार द्वीप, समुद्र, पृथ्वी भादि का शान नक्शे द्वारा सहज ही में होता है, भूगोल के चित्र पर से ग्राम, नगर, देश, नदी समुद्र रेल्वे आदि का जानना सुगम होता है, उसी प्रकार मूर्ति से मी साक्षात् का ज्ञान होता है ऐसी स्पष्ट बात को भी आप क्यों नहीं मानते ? उत्तर-मात्र मूर्ति ही साक्षात् का ज्ञान कराने वाली है यह बात असत्य है। क्योंकि अनपढ़ मनुष्य तो नक्शे को सामान्य रद्दी कागज़ से अधिक नहीं जान सकता, किसी अनपढ़ या बालक के सामने कोई उच्च धार्मिक पुस्तक रख दी जाय तो वह मात्र पुड़िया बान्धने के अन्य किसी भी काम में नहीं ले सकता / अनसमझ लोगों की वह बात सभी जानते हैं कि जब भारत में रेलगाड़ी का चलना प्रारम्भ हुआ तब वे लोग उसे वाहन नहीं समझ कर देवी जानते थे / साक्षात् वीर प्रभु को देखकर अनेक युवतियां उनसे Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 78 ) रतिदान की प्रार्थना करती थी, बच्चे डरके मारे रो रो कर भागते थे, अनार्य लोग प्रभू को चोर समझ कर ताड़ना क. रते थे, जब मूर्ति से ही ज्ञान प्राप्त होता है, तो साक्षात् को देखने पर ज्ञान के बदले अज्ञान विपरीत शान क्यों हुआ? सा. क्षात् धर्म के नायक और परम योगीराज प्रभु महावीर को देख लेने पर भी वैराग्य के बदले राग, एवं देश भाव क्यों जागृत ( पैदा ) हुए ? यह ठीक है कि जिस प्रकार पढे लिखे मनुष्य नक्शा देखकर इच्छित स्थान अथवा रेल्वे लाईन सम्बन्धी जानका. री कर लेते हैं। यानी नक्शा आदि पुस्तक की तरह ज्ञान प्राप्त करने में सहायक हो सकते हैं / किन्तु यदि कोई विद्वान नक्शा देख कर इच्छित स्थान पर पहुंचने के लिये उसी नक्शे पर दौड़ धूप मचावे, चित्रमय सरोवर में जल विहार करने की इच्छा से कूद पड़े, चित्रमय गाय से दूध प्राप्त करने की कोशिष करे, तब तो मूर्ति भी साक्षात् की तरह पूजनीय एवं वंदनीय हो सकती है, पर इस प्रकार की मूर्खता कोई भी समझदार नहीं करता तब मूर्ति ही असल की बुद्धि से कैसे पूज्य हो सकती है? * जिस प्रकार नक्शे को नक्शा मानकर उसकी सीमा देखने मात्र तक ही है उसी प्रकार मूर्ति भी देखने मात्र तक ही (अनावश्यक होते हुए भी ) सीमित रखिये, तब तो आप इस हास्यास्पद प्रवृत्ति से बहुत कुछ बच सकते हैं ! इसी तरह यह आप ही का दिया हुआ उदाहरण आपकी मूर्ति पूजा में बाधक सिद्ध हुआ। अतएव आपको जरा सहल ह्रदय से विचार कर सत्य मार्ग को ग्रहण करना चाहिये / Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५-स्थापना सत्य प्रश्न-शास्त्र में स्थापना सत्य कहा गया है उसे श्राप मानते हैं या नहीं? उत्तर--हां स्थापना सत्य को हम अवश्य मानते हैं उसका सच्चा श्राशय यही है कि स्थापना को स्थापना मूर्ति को मूर्ति चित्र को चित्र मानना / इसके अनुसार हम मूर्ति को मूर्ति मानते हैं, किन्तु स्थापना सत्य का जो श्राप समझाना चाहते हैं, कि स्थापना मूर्ति ही को साक्षात् मानकर वन्दन पूजन आदि किये जांय यह अर्थ नहीं होता। इस प्रकार का मानने वाला सत्य से परे है, आपको यह प्रमाण तो वहां देना चाहिये जो मूर्ति को मूर्ति ही नहीं मानता हो / इस तरह यहां आपकी उक्त दलील भी मनोरथ सिद्ध करने में असफल ही रही। IA Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६-नाम निक्षेप वन्दनीय क्यों ? प्रश्न--भाष निक्षेप को ही वन्दनीय मानकर अन्र निक्षेप को अवन्दनीय कहने वाले नाम स्मरण या नाम निक्षेप को वंदनीय सिद्ध करते हैं या नहीं? उत्तर--यह प्रश्न भी अज्ञानता से ओत प्रोत है, हा नाम निक्षेप को वन्दनीय मानते ही नहीं, यदि हम नाम निते को ही वन्दनीय मानते तो ऋषभ,नेमि, पार्श्व, महावीर प्राति नाम वाले मनुष्यों को जो कि तीर्थंकरों के नाम निक्षेप में है उनको वन्दना नमस्कार श्रादि करते, किन्तु गुणशून्य नाम निक्षेप को हम या कोई भी बुद्धिशाली मनुष्य या स्वयं मूर्ति पूजक ही वन्दनीय, पूजनीय नहीं मानते, ऐसी सूरत में गुण शून्य स्थापना निक्षेप को वन्दनीय पूजनीय मानने वाले कि प्रकार बुद्धिमान कहे जा सकते हैं। हम जो नाम लेकर वन्दना नमस्कार रूप क्रिया करते हैं, वह अनन्तशानी कर्म वृन्द के छेदक जगदुपकारी, शुक्लध्यान में मग्न ऐसे तीर्थकर प्रभु की तथा उनके गुणों की जब हम ऐसे विश्वपूज्य प्रभु का ध्यान करते हैं तब हमारी Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 1) कल्पनानुसार प्रभु हमारे नेत्रों के सम्मुख दिखाई देते हैं,हम अतिशय गुणयुक्त प्रभु के चरणों में अपने को समर्पण कर देते हैं, भक्ति से हमारा मस्तक प्रभु चरणों में झुक जाता है और यह सभी क्रिया भाव निक्षप में है, ऐसे भाव युक्त नाम स्मरण को नाम निक्षेप में गिना और इस प्रोट से मूर्ति पूजा को उपादेय कहना यह स्पष्ट प्रशता है। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७-'शक्कर के खिलौने प्रश्न--शक्कर के बने हुए खिलौने-हाथी, घोड़े, गाय, भेंस, ऊंट, कबूतर आदि को श्राप खाते हैं या नहीं? यदि उनमें स्थापना होने से नहीं खाते हो तो स्थापना निक्षेप वन्दनीय सिद्ध हुआ, या नहीं? उत्तर--हम गाय भैस आदि की प्राकृति के बने हुए शक्कर के खिलौने नहीं खाते, क्योंकि वह स्थापना निक्षेप है, स्थापना निक्षेप को मानने वाला, उस स्थापना को न तो तोड़ता है और न स्थापना की सीमा से अधिक महत्व ही देता है / यदि ऐसे स्थापना निक्षेप युक्त खिलौने को कोई खावे या तोड़े तो वह स्थापना निक्षेप का भङ्गक ठहरता है, और जो कोई उस स्थापना को सीमातीत महत्त्व देकर, उनके सामने खिलाने पिलाने के उद्देश्य से घास, दान, पानी, खावे और गाय, भेंसादि, से दूध प्राप्त करने का प्रयत्न करे, हाथी घोड़े पर सवारी करने लगे तो वह सर्व साधारण के सामने तीन वर्ष के बालक से अधिक सुश नहीं कहा जा सकता / इसी प्रकार मूर्ति को साक्षात् मानकर जो वन्दना, पूजा, नम Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (83) स्कारादि करते हैं वे भी तीन वर्ष के लल्लु के छोटे भाई के समान ही बुद्धिमान ( ? ) है। हमारे सामने तो ऐसी दलीलें व्यर्थ है, यह युक्ति तो वहां देनी चाहिए कि जो स्थापना निक्षेप को ही नहीं मानकर ऐसे खिलौने को भी नहीं खाते हो, किन्तु आश्चर्य तो तब होता है कि-जब यह दलील मू० पू० श्राचार्य विजयलब्धिसूरिजी जैसे विद्वान् के कर कमलों से लिखी जाकर प्रकाश में आई हुई देखते हैं। नक्शे को नक्शा, चित्र को चित्र मानना तथा आवश्यकता पर देखने मात्र तक ही उसकी सीमा रखना यह स्थापना सत्य मानने की शुद्ध श्रद्धा है, नक्शे चित्र आदि को केवल कागज का टुकड़ा या पाषाण मय मूर्ति को पत्थर ही कहना ठीक नहीं, इसी प्रकारं नक्शे चित्र या मूर्ति के साथ साक्षात् की तरह बर्ताव कर लड़कपन दिखाना भी उचित नहीं। __ जम्बुद्वीप के नक्शे को और उसमें रहे हुए मेरू पर्वत को केवल कागज का टुकड़ा भी नहीं कहना, और न उसको जम्बुद्धीप या सुदर्शन पर्वत समझकर दौड़ मचाना, चढ़ाई करना। इसके विपरीत चित्र श्रादि के साथ साक्षात् का सा व्यवहार कर अपनी प्रनता जाहिर करना सुज्ञों का कार्य नहीं है। हम मूर्ति पूजक बंधुओं से ही पूछते हैं कि जिस प्रकार श्राप मूर्ति को साक्षात् रूप समझ के वन्दन पूजन करते हैं, उसी प्रकार क्या, कागज या मिट्टी की बनी हुई रोटी तथा शिल्पकारों द्वारा बनी हुई पाषाण की बादाम, मारक मादि Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (84} वस्तुएं खा लेंगे? नहीं, यह तो नहीं करेंगे। फिर तो आपकी मूर्ति पूजकता अधूरी ही रह गई ? / प्रिय बंधुओं ? सोचो, और हठ को छोड़कर सत्य स्वीकार करो इसी में सच्चा हित है। अन्यथा पश्चात्ताप करना पड़ेगा। AMAT 2:10A Thu, Titna d MRAAMA - - - - - II.3111 CEEEEEEE -55भम Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८-पति का चित्र - प्रश्न-जिसका भाव वन्दनीय है उसकी स्थापना भी वन्दनीय है, जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री अपने पति की अनुपस्थिति में पति के चित्र को देख कर आनन्द मानती है, पति मिलन समान सुखानुभव करती है, उसी प्रकार प्रभु मूर्ति भी हृदय को आनन्दित कर देती है, अतएव वन्दनीय है, इसमें आपका क्या समाधान है ? उत्तर-यह तो हम पहले ही बता चुके हैं कि-चित्र की मर्यादा देखने मात्र तक ही है इससे अधिक नहीं। इसी प्रकार पति मूर्ति भी देखने मात्र तक ही कार्य साधक है, इससे अधिक प्रेमालाप, या सहवास आदि सुख जो साक्षात् से मिल सकता है मूर्ति से नहीं। पतिव्रता स्त्री को पति की अनुपस्थिति में यदि चित्र से ही प्रेमालाप आदि करते देखते हो या चित्र से विधवाएं सधवापन का अनुभव करती हों तब तो मूर्ति पूजा भी माननीय हो सकती है, किन्तु ऐसा कहीं भी नहीं होता फिर मूर्ति ही साक्षात् की तरह पूजनीय कैसे हो सकती है ? अतएव जिसका भाव पूज्य उसकी स्था Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (86) पना पूज्य मानने का सिद्धान्त भी प्रमाण एवं युक्ति से बाधित सिद्ध होता है। यहां कितने ही अनभिज्ञ बन्धु यह प्रश्न का बैठते हैं कि-'जब स्त्री पतिचित्र से मिलन सुख नहीं पा सकती तो केवल पति, पति इस प्रकार नामस्मरण करने से ही क्या सुख पा सकती है ? इससे तो नाम स्मारण भी अनुचित ठहरेगा ?" इस विषय में मैं इन भोले भाइयों से कहता हूं कि जिस प्रकार चित्र से लाभ नहीं उसी प्रकार मात्र वाणी द्वारा नामोच्चारण करने से भी नहीं / हां भाव द्वारा जो पति की मौजूदगी के समय की स्थिति घटना, एवं परस्पर इच्छित सुखानुभव का स्मरण करने पर वह स्त्री उस समय अपने विधवापन को भूलकर पूर्व संधवापन की स्थिति का अनुभव करने लगती है, उस समय उसके सामने भूत कालीन सुखानुभव की घटनाएं खड़ी हो जाती है, और उनका स्मरण कर वह अपने को उसी गये गुजरे जमाने में समझ कर क्षणिक प्रसन्नता प्राप्त करलेती है। इसीलिये तो ब्रह्मचारी को पूर्व के काम भोगों का स्मरण नहीं करने का आदेश देकर प्रभु ने छट्ठी बाड़ बनादी है / अतएव यह समझिये कि जो कुछ भी लाभ हानि है वह भाव निक्षेप से ही है स्थापना से नहीं / तिस पर भी जो चित्र से राग भाव होने का कह कर मू० पू० सिद्ध करना चाहते हो, तो उसका समाधान उन्नीसवें ( अगले) प्रश्न के उत्तर में देखिये and -. - 4 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९--स्त्री-चित्र और साधु प्रश्न-जैसे स्त्री चित्र देखने से काम जागृतहोता है और इसी से ऐसे चित्रमय मकान में साधु को उतरने की मनाई की गई है, वैसे प्रभु चित्र या मूर्ति से भी वैराग्य प्राप्त होता है, फिर आप मूर्ति पूजा क्यों नहीं मानते ? उत्तर-स्त्री चित्र से काम जागृत हो उसी प्रकार प्रभु मूर्ति से वैराग्य उत्पन्न होने का कहना यह भी असंगत है। क्योंकि-स्त्री चित्र से विकार उत्पन्न होना तो स्वतः सिद्ध और प्रत्यक्ष है। सुन्दरी युवती का चित्र देखकर मोहित होने वाले तो प्रति शत 8 निन्याणवे मिलेंगे, वैसे ही साक्षात् सुन्दरी को देखकर भी मोहित होने वाले बहुत से मिल जायँगे। किन्तु साक्षात् त्यागी वीतरागी प्रभु-या मुनि महात्मा को देखकर वैराग्य पाने वाले कितने मिलेंगे ? क्या प्रतिशत एक भी मिल सकेगा? . संसार में जितनी राग भाव की प्रचुरता है उसके लक्षांश में भी वीतराग भाव नहीं है, और इसका खास कारण यह है कि-जीव अनादि काल से मोहनीय कर्म में रंगा हुआ है, संसार Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 6 ) में ऐसे कितने महापुरुष हैं कि जिन्होंने मोह को जीत लिया हो? आप एक निर्विकारी छोटे बच्चे को भी देखेंगे तो वह भी अपनी प्रिय वस्तु पर मोह रक्खेगा। अप्रिय से दूर रहेगा। और वही अबोध बालक युवावस्था प्राप्त होते ही बिना किसी बाह्य शिक्षा के ही अपने मोहोदय के कारण काम भोजन बन जायगा / हमने पहले ही प्रश्न के उत्तर में यह बता दिया था कि-वीतरागी विभूतियां संसार में अंगुली पर गिनी जाय इतनी भी मुश्किल से मिलेगी किन्तु इस कामदेव के भक्त तो सभी जगह देव मनुष्य तिर्यंच और नर्क गति में असंख्य ही नहीं अनन्त होने से इस विश्वदेव का शासन अविच्छिन्न और सर्वत्र है / अतएव स्त्री चित्र से काम जागृत होना सहज और सरल है, यह तो चित्र देखने के पूर्व भी हर समय मानव मानस में व्यक्त या अव्यक्त रूप से रहा ही हुआ है चित्र दर्शन से अव्यक्त रहा हुआ वह काम राख में दबी हुई अग्नि की तरह उदय भाव में आ जाता है / इसको उदय भाव में लाने के लिये तो इशारा मात्र ही पर्याप्त है, किसी विशेष प्रयत्न की आवश्यकता नहीं रहती। किन्तु वैराग्य प्राप्त करने के लिए तो भारी प्रयत्न करने पर भी असर होना कठिन है। उदाहरण के लिए सुनिये: (1) एक समर्थ विद्वान, प्रखरवक्ता, त्यागी मुनिराज अपनी ओजस्वी और असरकारक वाणी द्वारा वैराग्योत्पादक उपदेश देकर श्रोताओं के हृदय में वैराग्य भावनाओं का संचार कर रहे हैं, श्रोता भी उपदेश के अचूक प्रभाव से वैराग्य रंग में रंगकर अपना ध्यान केवल वक्ता महोदय की मोर ही लगाए, Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 1 ) बैठे हैं, किन्तु उसी समय कोई सुन्दरी युवति वस्त्राभूषण से रूज हो नूपुर का झङ्कार करती हुई उस व्याख्यान सभा के समीप होकर निकल जाय तब आप ही बताइये, कि उस युवती का उधर निकलना मात्र ही उन त्यागी महात्मा के घंटे दो घन्टे तक के किये परिश्रम पर तत्काल पानी फिरादेगा या नहीं ? अधिक नहीं तो कुछ क्षण के लिए तो सुन्दरी श्रोतागण का ध्यान धारा प्रवाह से चलती हुई वैराग्यमय व्याख्यान धारा से हटा कर अपनी ओर खींच ही लेगी, और इस तरह श्रोताओं के हृदय से बढ़ती हुई वैराग्य धारा को एक बार तो अवश्य खण्डित कर देगी। और धो डालेगी महात्मा के उपदेश जन्य पवित्र असर को / भले ही वह साक्षात् स्त्री नहीं होकर स्त्री वेष धारी बहुरूपिया ही क्यों न हो? (2) आप अपना ही उदाहरण लीजिए, आप मन्दिर में मूर्ति की पूजा कर रहे हैं, आप का मुंह त्यागी की मूर्ति की ओर होकर प्रवेश द्वार की तरफ पीठ है। आप बाहर से आने वाले को नहीं देख सकते, किन्तु जब आपकी कर्णेन्द्रिय में दर्शनार्थ आई हुई स्त्री (भले ही वह सुन्दरी और युवती न हो) के चरणाभूषण की आवाज सुनाई देगी, तब आप शीघ्र ही अपने मन के साथ शरीर को भी वीतराग मूर्ति से मोड़कर एकबार आगत स्त्री की तरफ दृष्टिपात तो अवश्य करेंगे। उस समय आपके हृदय और शरीर को अपनी ओर रोक रखने में वह मूर्ति एक दम असफल सिद्ध होगी। कहिये, मोहराज की विजय में फिर भी कुछ सन्देह हो सकता है क्या ? और लीजिए: (3) एक कमरे में तीर्थंकरों महात्मामों, देश नेताओं के अनेक चित्रों के साथ एक शृङ्गार युक्त युवति का चित्र भी एक Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 10 ) कौने में लगा हुआ है, वहां बालकों और युवकों को ही नहीं, किन्तु दश, बीस वृद्ध पुरुषों को चित्रावलोकन करने दिया जाय आप देखेंगे कि-उन दर्शकों में से किसी एक की भी दृष्टि जब उस कोने में दबी हुई युवती के चित्र पर पड़ेगी, तब सहसा सभी दर्शक महात्माओं के चित्रों से मुंह मोड़ कर उसी सुन्दरी के चित्र की ओर ही बढ़ कर खूब रुचि से उस एक ही चित्र के सामने एक झुण्ड बन जायगा, इस प्रकार एक स्त्री के चित्र से आकर्षित होते हुए मनुष्यों को अनेकों महात्माओं के चित्र भी नहीं रोक सकेंगे, बताइये यह सब प्रभाव किसका? कामदेव मोहराज का ही न? (4) आज कल कपड़े के थानों पर अनेक प्रकार के चित्र लगे रहते हैं, जिसमें अनेकों पर, महात्माजी, सरदार पटेल, पं० नेहरू, लोकमान्य तिलक, आदि देश नेताओं के चित्र रहते हैं, और अनेकों पर होते हैं युवती स्त्रियों के जिन में कोई लता से पुष्प तोड़ रही है तो कोई नौका विहार कर रही हैं / कोई सरोवर में स्नान कर रही है, तो कोई गालों पर हाथ लगाये अन्य मनस्क भाव से बैठी है, इत्यादि शृङ्गाररस से खूब सने हुए कई प्रकार के चित्र रहते हैं। आप अपने छोटे बच्चे को साथ लेकर कपड़ा खरीदने गये हों, तब व्यापारी आपके सामने अनेक प्रकार के वस्त्रों का ढेर लगा देगा / आप अपने पुत्र से वस्त्र पसन्द कर वाइये, आपका चिरंजीव वस्त्र के गुण दोष को नहीं जानकर चित्र ही से आकर्षित होकर वस्त्र पसन्द करेगा, यदि अच्छे और टिकाऊ वस्त्र पर महात्माजी का चित्र होगा और आप उसे लेने का कहेंगे तो आपका सुपुत्र कहेगा कि इस पर तो एक बाबा का फोटू है मुझे पसन्द नहीं, कोई अच्छा सुन्दर फोटू वाला वस्त्र लीजिए / भले ही आप. वस्त्र के गुण दोष को Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) जानकर हलका वस्त्र नहीं लेंगे. किन्तु नौका विहारिणी के सुन्दर और आकर्षक चित्र को लेने की तो आप भी इच्छा करेंगे। आज प्रचार के विचार से वनों पर भद्दे और अश्लील चित्र भी आने लगे हैं और मैंने ऐसे कई मन चले मनुष्यों को देखे है जो मोहक चित्र के कारण ही एक दो आने अधिक देकर वस्त्र खरीद लेते थे। इस प्रकार संसार में किसी भी समय कामराग की अपेक्षा वैराग्य अधिक संख्या के संख्यक मनुष्यों में नहीं रहा भूतकाल के किसी भी युग में ( काल ) ऐसा समय नहीं आया किजब मोहराग से विराग अधिक प्राणियों में रहा हो। __तीर्थंकर मूर्ति यदि नियमित रूप से सभी के हृदय में वैराग्योत्पादक ही हो तो-आये दिन समाचार पत्रों में ऐसे समाचार प्रकाशित नहीं होते कि-"अमुक ग्राम में अमुक मन्दिर की मूर्ति के आभूषण चोरी में चले गये, धातु की मूर्ति ही चोर ले उड़े अमुक जगह मूर्ति खण्डित करडाली गई, आदि इन पर से सिद्ध हुआ कि वीतराग की मूर्ति से वैराग्य होना नियमित नहीं है। वैराग्य भाव तो दूर रहा पर उल्टा यह भी पाया जाता है कि चोरी और द्वेष जैसे दुष्ट भाव की भी मूर्ति उत्पादिका बन जाती है, क्योंकि उसके बहमूल्य आभूषण या स्वयं धातु मूर्ति आदि ही चोर को चोरी करने को प्रेरणा करते हैं, बहुमूल्यत्व के लोभ को पैदा कर मूर्ति चोरी करवाती है, और द्वेषी आततायी के मनमें मूर्ति तोड़ने के भाव उत्पन्न कर देती है / इससे तो मूर्ति निन्दनीय भावोत्पादिका भी ठहरी। .. अतएव सरल बुद्धि से यही समझो कि स्त्री चित्र से रागो Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 2) त्पन्न होना स्वाभाविक है / किन्तु मूर्ति से वैराग्योत्पन्न होना नियमित नहीं / क्योंकि-वैराग्य भाव मोह के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है, और क्षयोपशम भाव वाले महात्माओं के लिए तो संसार के सभी दृश्य पदार्थ वैराग्योत्पादक हो सकते हैं, जैसे समुद्रपालजी को चोर, नमिराजर्षि को कङ्कण, भरतेश्वर को मुद्रिका, आदि ऐसे वायोपशमिक भाव वालों के लिए मूर्ति की कोई खास आवश्यकता नहीं, और इन्हें स्त्री चित्र तो दूर रहा किन्तु साक्षात् देवांगना भी चलित नहीं कर सकती वे तो उससे भी वैराग्य ग्रहण कर लेते हैं और यह भी निश्चत नहीं कि-एक वस्तु से सभी के हृदय में एक ही प्रकार के भाव उत्पन्न होते हों, साक्षात् वीर प्रभु को हीलीजिए जो परम वीतरागी जितेन्द्रिय, त्यागी महात्मा थे, फिर भी उनको देखकर युवतियों को काम, बालकों को भय और अनार्यों को चोर समझने रूप द्वेष भाव उत्पन्न हुए और भव्य जनों के हृदय में त्याग और भक्ति भाव का संचार होता था इससे यह सिद्ध हुआ कि-- एक वस्तु सभी के हृदय में एक ही प्रकार के भाव उत्पन्न करने में समर्थ नहीं है / जब उदय भाव वाले को साक्षात् प्रभुही वैराग्योत्पन्न नहीं करासके तो मूर्ति किस गिनती में है ? दूसरा जिस प्रकार स्त्री चित्र देखने की मनाई है. वैसे प्रभु चित्र देखने की आज्ञा तो कहीं भी नहीं है। इस तरह सिद्ध हआ कि स्त्री चित्र से काम जागृत होना जिस प्रकार सहज और सरल है, उस प्रकार प्रभु मूर्ति से वैराग्योत्पन्न होना सहज नहीं / किन्तु दलील के खातिर यदि आपका यह अनहोना और बाधक सिद्धान्त थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाय तो भी कोई हानि नहीं है / क्योंकि--जिस प्रकार स्त्री चित्र देखने तक ही सीमित है, कोई भी पुरुष काम से प्रेरित होकर चित्र से Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 3 ) मालिंगन चुम्बनादि कुचेष्टा नहीं करता, उसी प्रकार प्रभु मूर्ति की रुचि वाले के लिये देखने तक ही हो सकती है, ऐसी हालत में मूर्ति की सीमातीत वन्दना पूजनादि रूप भक्ति क्यों की जाती है। ऐसा करना आप के उक्त उदाहरण से घट सकता है क्या ? अतएव यह उदाहरण भी मूर्ति पूजा में विफल ही रहा। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20-- हुराडी से मूर्ति की साम्यता प्रश्न-जब कोई धनी व्यापारी अपनी किसी विदेश स्थित दुकान के नाम किसी मनुष्य को हुण्डी लिखदे तब वह मनुष्य उस हुण्डी के जरिये लिखित रुपये प्राप्त कर स. कता है, बताई ये यह स्थापना निक्षेप का प्रभाव नहीं तोक्या है ? हुण्डी में जितने रुपये देने के लिखे हैं वह रुपयों की स्थापना नहीं है क्या? उत्तर-उक्त कथन स्थापना निक्षेप का उलंघन कर गया है, सर्व प्रथम यह ध्यान में रखना चाहिये कि स्थापना निक्षेप साक्षात् की मूर्ति चित्र अथवा कोई पाषाण खण्ड श्रा. दि है, जिसमें साक्षात् की स्थापना की गई हो आपने इस प्रश्न में साक्षात् को ही स्थापना का रूप दे डाला है, क्योंकि हुण्डी स्वयं भाव निक्षेप में है, हुण्डी लेने वाले को उसमें लिखे हुए रुपये चुकाने पर ही प्राप्त हुई है, और हुण्डी जभी शिकरेगी कि उसका भाव (लिखने और शिकारने वाले साहू कार) सत्य हों। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (65) यदि हुण्डी का भाव सत्य नहीं हो, लिखने शिकारने वाले अयोग्य हो तो उस हुण्डी का मूल्य ही क्या ? यों तो कोई राह चलता-ले भग्गु भी लिख डालेगा, तो क्या वह भी सच्ची हुण्डी की तरह कार्य साधक हो सकेगी? ___ हुण्डी की स्थापना हुण्डी की नकल याने प्रतिलिपि है, यदि कोई मनुष्य हुण्डी की नकल करके उससे रुपये प्राप्त करने जाय तो वह निराश होने के साथ ही विश्वासघातकता के अभियोग में कारागृह का अतिथि बन जाता है। अतएव यह सत्य समझिये कि हुण्डी स्वयं भाव निक्षेप में है किन्तु स्थापना में नहीं, स्थापना में तो हुण्डी की नकल है. जो हुण्डी के बराबर कार्य साधक नहीं होती। मातरस) Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 --नोट मूर्ति नहीं है। प्रश्न-नोट तो रुपयों की स्थापना ही है, उनसे जहां चाहे रुपये मिल सकते हैं, इसमें आपका क्या समाधान है ? उत्तर-जिस प्रकार हुण्डी भाव निक्षेप है वैसे ही नोट भी भाव निक्षेप में है, स्थापना में नहीं। प्रथम आपको यह याद रखना चाहिये कि सिक्के एक प्रकार के ही नहीं होते, सोने, चांदी, तांश, कागज़ आदि कई प्रकार के होते हैं। जैसे रुपया, अठन्नी, चौअन्नी, दुअन्नी, इकन्नी यह चांदी या मिश्रित धातु के सिक्के हैं, वैसे ही तांबे के पैसे, सोने की गिन्नी, मोहर आदि कागज़ के नोट ये सब सिक्के हैं। प्रत्येक सिक्का अपने भाव निक्षेप में है, किसी की स्थापना नहीं। इनमें से किसी एक को भाव और दूसरे को उसके स्थापना कहना अक्षता है। नोट की स्थापना निक्षेप नोट की प्रतिलिपि है वैसे है रुपये का चित्र रुपये की स्थापना है। रुपये स्वर्ण मुद्रिक या नोट के अनेकों चित्र रखने वाला कोई दरिद्र, निर्धन धन Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (17) वान नहीं बन सकता अधिक तो क्या एक पैसे की भी वस्तु नहीं पा सकता, किन्तु उलटा खोटे नोट चलाने या जाली सिक्का तैयार कर फैलाने के अपराध में दण्डित होता है। बस अब समझलो कि इसी तरह कल्पित स्थापना से भी इच्छित कार्य सफल नहीं हो सकते / Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२-परोक्ष वन्दन प्रश्न- अन्यत्र विचरते हुए या स्वर्गस्थ गुरु के ( उनकी अनुपस्थिति में ) श्राकृति को लक्ष्य कर वन्दन करते हो, तब वह प्राकृति, स्थापना-मूर्ति नहीं हुई क्या ? और इस प्रकार आप मूर्ति पूजक नहीं हुए क्या ? उत्तर-इस प्रकार साक्षात् का स्मरण कर की हुई वन्दना, स्तुति यह भाव निक्षेप में है, स्थापना में नहीं। क्योंकि जब अनुपस्थित गुरु का स्मरण किया जाता है तब हमारे नेत्रों के सामने हमें गुरुदेव साक्षात् भाव निक्षेप युक्त दिखाई देते हैं / यदि हम व्याख्यान देते हुए की कल्पना करें तो हमारे सामने वही सौम्य और शान्त महात्मा की प्राकृति उपदेश देते हुए दिखाई देती है, हम अपने को भूलकर भूत कालीन दृश्य का अनुभव करने लगते हैं, इस प्रकार यह परोक्ष चन्दन भाव निक्षेप में है, स्थापना में नहीं / स्थापना में तो तब हो कि-जब हम उनकी मूर्ति चित्र या अन्य किसी वस्तु में स्थापना करके वन्दनादि करते हों तब तो श्राप हमें मूर्तिपूजक कह सकते हैं. किन्तु जब हम इस प्रकार की मूर्खता से दूर हैं तब आपका स्थापना वन्दन किसी प्रकार भी सिद्ध नहीं हो सकता। अतएव आपको अपनी श्रद्धा शुद्ध करनी चाहिए। 4 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३-वन्दन आवश्यक और स्थापना प्रश्न-पडावश्यक में तीसरा वन्दन नामका आवश्यक है, यह वन्दनावश्यक गुरु की अनुपस्थिति में बिना “स्थापना" के किसके सन्मुख करते हो? वहां तो स्थापना रखना ही चाहिए अन्यथा यह आवश्यक अपूर्ण ही रह जाता है। आप के पास इसका क्या उत्तर है ? . उत्तर--तीसरा आवश्यक गुरु वन्दन-गुरु का विनय और उनके प्रति विपरीताचरण रूप लगे हुए दोषों की मालोचना करने का है, यह जहां तक गुरु उपस्थित रहते हैं वहां तक उनके सन्मुख उनकी सेवा में किया जाता है, किन्तु अनुपस्थिति में गुरु का ध्यान कर उनके चरणों को लक्ष्य कर यह क्रिया की जाती है इसमें स्थापना की कोई आवश्यकता नहीं रहती। __ तीसरे आवश्यक में बताई हुई ये बातें क्या स्थापना से पूछी जाती हैं कि-अहो क्षमा श्रमण ? आपके शरीर को मेरे वन्दन करने-चरण स्पर्शने-से कष्ट तो नहीं हुआ ? मुझे धार्मिक क्रिया करने की आज्ञा दीजिए, अहोपूज्य ? क्षमा करिये, आपकी संयम यात्रा और इन्द्रिय मन बाधारहित हैं ? आदि बातें क्या Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (100) स्थापना के साथ की जाती है / कापि नहीं यह क्रिया साक्षात् के साथ या उनकी अनुपस्थिति में उन्हीं के चरणों को लक्ष्य कर की जासकती है, और यह भावनिक्षेप में ही है। ऐसे परोक्ष वन्दन का इतिहास सूत्रों में भी मिलता है जहां स्थापना का नाम मात्र भी उल्लेख नहीं है, देखिये। (1) शकेन्द्र ने अवधिज्ञान से प्रभु को देखकर सिंहासन छोड़ा और 7-8 कदम उस दिशा में बढ़कर परोक्ष वन्दन किया किन्तु वहां भी स्थापना का उल्लेख नहीं है। (2) आनन्दादि श्रावकों ने पौषध शाला में प्रतिक्रमण स्वाध्याय ध्यान आदि क्रियाएं की किन्तु वहां भी स्थापना को स्थान नहीं मिला। .. (3) अनेक साधु साध्वी आदि के चरित्र वर्णन में कहीं भी उक्त स्थापना का नाम मात्र भी कथन नहीं है / (4) सुदर्शन, कोणिक, नन्दन मनिहार ( में इक के भव में) ने भगवान को लक्ष्य कर परोक्ष वन्दन किया है। ___ इसके सिवाय आत्मारामजी ने जैन तत्वादर्श पृष्ठ 301 में लिखा है कि: "जेकर प्रतिमा न मिले तो पूर्व दिशा की तरफ मुख करके वर्तमान तीर्थंकरों का चैत्य वन्दन करें।" - यहां भी मूर्ति की अनुपस्थिति में स्थापना की आवश्यकता नहीं बताई। - इत्यादि पर से यह स्पष्ट हो जाता है कि गुरु आदि की अनुपस्थिति में स्थापना रखने की आवश्यकता नहीं। यह नूतन पद्धति भी मूर्ति-पूजा का ही परिणाम है, जो किअनावश्यक अर्थात् व्यर्थ है। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४-द्रव्य-निक्षेप प्रश्न-द्रव्य निक्षेप को तो आप अवन्दनीय नहीं कह सकते क्योंकि-"तीर्थंकरके जन्म समय शकेन्द्रादि जन्मोत्सव करते हैं, और निर्वाण पश्चात् शव का अग्नि संस्कार करते हैं, उस समय तीर्थंकर द्रव्य निक्षेप में होते हैं और देवेन्द्र उनको वन्दन करते हैं ऐसी हालत में द्रव्य निक्षेप अवन्दनीय कैसे कहा जाता है? उत्तर-स्थापना की तरह द्रव्य निक्षेप भी वंदनीय नहीं है, क्योंकि वह भाव शून्य है,जन्मोत्सव क्रिया शक्रन्द्रादि अपने जीताचारानुसार करते हैं और इसी प्रकार अग्नि संस्कार भी जीताचार के साथ साथ यह क्रिया अत्यंत आवश्यक है, इस जीताचार के कारण ही तो तीर्थंकर के मुंह की अमुक ओर की अमुक दादा अमुक इन्द्र ही लेता है, यह सब क्रिया पद के अनुसार जीताचार की है / फिर उस समय की जाने वाली स्नान मादि क्रियामों को धार्मिक क्रिया कैसे कह सकते है? यदि इन क्रियाओं को धार्मिक क्रिया मानी जाय तो फिर भावनिक्षेप ( साक्षात् ) के साथ ये क्रियाएं क्यों नहीं की जाती है ? Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 102) देखिये द्रव्य निक्षेप को वन्दनीय मानने में निम्न बाधक कारण उपस्थित होते हैं (अ) गृहस्थावस्था में रहें हुए तीर्थंकर प्रभु अपने भोगावली कर्मानुसार गृहस्थ सम्बन्धी सभी कार्य जैसे स्नान, मर्दन, विलेपन, विवाह, मैथुन आदि करते हैं, उस समय वे गुणपूजकों के लिए भाव निक्षेप की तरह वन्दनीय कैसे हो सकते हैं ? __ (आ) जो वर्तमान में वैरागी होकर भविष्य में साधु होने वाला है, जिसके लिए दीक्षा का मुहूर्त निश्चित हो चुका है दो चार घड़ी में ही महाव्रती हो जायगा विश्वास पात्र भी है वह द्रव्य निक्षेप से साधु अवश्य है, किन्तु दीक्षा लेने के पूर्व भाव निक्षेप वाले साधु की तरह उसके लिये भी वन्दन नमस्कारादि क्रिया क्यों नहीं की जाती ? वाहन पर चढ़ाकर क्यों फिराया जाता है / भोजन का निमंत्रण क्यों दिया जाता है / कारण यही कि वह अभी भाव निक्षेप से साधु नहीं है / गृहस्थ है। (इ) द्रव्यलिंगी आचार भ्रष्ट ऐसे साधु का संघ बहिष्कार क्यों कर देता है ? क्या वह द्रव्य निक्षेप में नहीं है / अवश्य है, किन्तु भाव शून्य है अतएव आदरणीय नहीं होता। __ (ई) जो वर्तमान में युवराज है भविष्य में राजा या सम्राट होंगे, वे सम्राट की तरह राजाज्ञा पर हस्ताक्षर क्यों नहीं करते। राज्य के अन्य जागीरदार, अधिकारी वर्ग आदि राजा या सम्राट तरीके उनको भेट नज़र आदि क्यों नहीं करते। वर्तमान युवराज को अधिकार सम्पन्न गजा क्यों नहीं माना जाता। तो यही उत्तर होगा कि उसमें भावनिक्षेप नहीं है। हाँ युवराज का भावनिदेव उसमें है, इससे इस पद के योग्य मान पा सकेगा किन्तु अधिक नहीं। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (103 ) (उ) भूतपूर्व एबीसीनियन सम्राट रासतफारी और अफगान सम्राट अमानुल्लाखान पदच्युत होने से द्रव्य निक्षेप में सम्राट अवश्य हैं / उक्त पदच्युत सम्राट वर्तमान में सम्राट तरीके कार्य साधक हो सकते हैं क्या ? जो थोड़े वर्ष पूर्व अपने माम्राज्य के अन्दर अपनी अखण्ड आज्ञा चलाते थे। जिनके संकेत मात्र में अनेकों के धन जन का हित अहित रहा हुआ था, धनवान को निर्धन, निर्धन को अमीर बन्दी को मुक्त मुक्त को बन्दी, कर देते थे, रोते को हंसाना और हंसते को रुलाना प्रायः उनके अधिकार में था, लाखों करोड़ों के जो भाग्य विधाता और शासक कहाते थे किन्तु वे ही मनुष्य थोड़े ही दिन में ( भावनिक्षेप के निकल जाने पर) केवल पूर्व स्मृति के भूत कालीन भाव निक्षेप के भाजन द्रव्य निक्षेप रह जाते है तब उन्हें कोई पूछ ता ही नहीं, आज उनकी आज्ञा को माधारण मनुष्य भी चाहे तो ठुकरा सकता है, आज वे सम्राट नहीं किन्तु किसी सम्राट की प्रजा के समान रह गये हैं। इसी प्रकार भूत-पूर्व इन्दौर तथा देवास के महाराजा भी वर्तमान में पदच्युत होने से मात्र द्रव्यनिक्षेप ही रह गये हैं। इस तरह अनुभव से भी द्रव्य निक्षेप वन्दीय पूजनीय नहीं हो सकता। ___इतने प्रबल उदाहरणों से स्पष्ट सिद्ध होगया कि द्रव्य निक्षेप भी नाम और स्थापना की तरह अवन्दनीय है। PES Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५-'चतुर्विंशतिस्तव और द्रव्यानिक्षेप प्रश्न-प्रथम तीर्थंकर के समय उनके शासनाश्रित च. तुर्विध संघ प्रतिक्रमण के द्वितीय श्रावश्यक में 'चतुर्विंशतिस्तव' कहता था, उस समय अन्य तेवीस तीर्थकर चारोंगति में भ्रमण करते थे, इससे सिद्ध हुश्रा कि-द्रव्य निक्षेप वंदनीय पूजनीय है, क्योंकि-प्रथम तीर्थंकर के समय भविष्य के 23 तीर्थकर द्रव्य निक्षेप में थे। अब बताइये, इसमें तो आप भी सहमत होंगे? उत्तर-यह तर्क भी निष्प्राण है। प्रथम जिनेश्वर का शासनाश्रित संघ आज की तरह चतुर्विंशतिस्तव कहता हो इसमें कोई प्रमाण नहीं है, खाली मनःकल्पित युक्ति लगाना योग्य नहीं है। प्रथम तीर्थकर का संघ तो क्या, पर किसी मी तीर्थकर के संघ में द्वितीयावश्यक में उतने ही तीर्थंकरों की स्तुति की जाती, जितने कि हो चुके हों। भविष्य में होने वाले तीर्थकरों की स्तुति नहीं की जाती। . द्वितीयावश्यक का नाम भी सूत्र में प्रारंभ से चतुर्विंशतिस्तव नहीं है, यह नाम तो अन्तिम (२४वें ) तीर्थकर महा Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 105) वीर प्रभु के शासन में ही होना प्रतीत होता है / अनुयोग द्वार सूत्र में षडावश्यक के नामों का पृथक 2 उल्लेख किया गया है, वहां दूसरे आवश्यक का नाम चतुर्विंशतिस्तव नहीं बताकर 'उत्कीर्तन' (उक्कित्तण) कहा है, अतएव चतुर्विंशतिस्तव नाम वर्तमान २४वें तीर्थकर के शासन में होना सिद्ध होता है। चतुर्विंशतिस्तव का पाठ भी भूतकाल में बीते हुए तीर्थकरों की स्तुति को ही स्थान देता है, इसके किसी भी शब्द से भविष्यकाल में होने वाले की स्तुति सिद्ध नहीं होती भूतकालीन जिनेश्वरों की स्तुति रूप निम्न वाक्यों पर ध्यान दीजिये: "विहूय-रयमला, पंहिण जरमरणा, चउविसपि जिणवरा तित्थयरा मेपसियंतु कित्तिय, वन्दिय, महिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा. आरुग्ग बोहिलाभ, समाहिवर-मुत्तमंदितु, चन्देसु निम्मलयग, प्राइच्चेसु अहियं पयासयरा, सागरवरगम्भीरा, 'सिद्धा' सिद्धि मम दिसंतु, अर्थात्-चौवीसों ही जिनेश्वरों ने कर्म रजन्यायमल को दूर कर दिया है, जन्म मरण का क्षय किया है, अहो तीर्थंकरों मुझ पर प्रसन्न होवो / मैं आपकी स्तुति वन्दना और पूजा ( भावद्वारा) करता हूं। श्राप लोक में उत्तम हैं। अहो सिद्धों! मुझे आरोग्य और बोधि लाभ प्रदान करो / तथा प्रधान ऐसी समाधि दो / श्राप चन्द्र से अधिक निर्मल और सूर्य से Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 106) अधिक प्रकाशमान हैं, सागर से भी अधिक गम्भीर हैं। अहो सिद्ध प्रभो ? मुझे सिद्धि प्रदान करो।" . यह स्तुति ही भाव प्रधान जीवन को बता रही है। अब हमारे प्रेमी पाठक जरा शान्त चित्त से विचार करें और बतायें कि-चतुर्विंशतिस्तव (लोगस्स) का कौनसा शब्द चतुर्गति में भ्रमण करने वाले द्रव्य तीर्थंकरों को वंदना. दि करना बतलाता है ? यह पाठ तो स्पष्ट 'सिद्ध' विशेषण लगाकर यह सिद्ध कर रहा है कि-जिन तीर्थंकरों की स्तुति की जा रही है वे सिद्ध हो चुके हैं, जिन्होंने जन्म मरण का अन्त कर दिया है, जिनकी आत्मा रज, मल रहित अर्थात् विशुद्ध है श्रादि वाक्य प्रश्नकार की कुयुक्ति का स्वयं छेदन कर रहे हैं, अतएव यह स्पष्ट हो चुका कि-द्रव्य निक्षेप वंदनीय पूजनीय नहीं है। और जब द्रव्य निक्षेप ( जोकिभाव का अधिकारी किसी समय था, या होगा) भी वंदनीय पूजनीय नहीं तो मन कल्पित स्थापना-मूर्ति अवंदनीय हो इसमें कहना ही क्या है ? यहां तो शंका को स्थान ही नहीं होना चाहिये। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३-मरीचि वंदन प्रश्न-त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र में लिखा है कि प्रथम जिनेश्वर ने जब यह कहाकि-"मरीचि इसी अवसर्पिणी काल में अंतिम तीर्थंकर होगा" यह सुनकर भरतेश्वर ने उसके पास जाकर उसे वन्दना नमस्कार किया, इलसे तो आपको भी द्रव्य निक्षेप वंदनीय स्वीकार करना पड़ेगा, क्या इसमें भी कोई बाधा है ? उत्तर-हां, यह मरीचि वन्दन का कथन भी आगमप्रमाण रहित और अन्य प्रमाणों से बाधित होने से अमान्य है। ___ आश्चर्य की बात तो यह है कि यह "त्रिशष्टिशलाका पुरुष चरित्र 'जो कि श्री हेमचन्द्राचार्य का बनाया हुआ है आगम की तरह मान्य कैसे हो सकता है ? जबकि इसके रच. यिता में सिवाय मति, श्रुति के कोई भी विशिष्ठ ज्ञान नहीं था तो उन्होंने तीसरे पारे की बात पंचम आरे के एक हजार से भी अधिक वर्ष बीत जाने पर कैसे जानली ? यहां हम विषयास्तर के भय से अधिक नहीं लिखकर "त्रिशष्ठिशलाका पुरुष चरित्र " की समालोचना एक स्वतंत्र ग्रंथ के लिए छोड़ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 108 ) कर इतना ही कहना चाहते हैं कि ऐसे ग्रंथों के प्रमाण यहां कुछ भी कार्य साधक नहीं हो सकते, जो ग्रंथ उभय मान्य हो वही प्रमाण में रक्खे जाने चाहिए अन्यथा प्रमाणदाता को विफल मनोरथ होना पड़ता है। ___ अन्सकृतदशांग में लिखा कि बाइसवें तीर्थंकर प्रभु ने श्री. कृष्ण वासुदेव को आगामी चोवीसी में वारहवें तीर्थंकर होने का भविष्य सुनाया, यह सुनकर श्रीकृष्ण बहुत प्रसन्न हुए जंघा पर कर-स्फोट कर सिंहनाद किया। इससे अनुमान होता है कि उस समय समव करण-स्थित चतुर्विध संघ तो ठीक पर कई योजन दूर र.क यह आवाज़ पहुंची होगी और समव रूरण में तो सभी को इसका कारण मालूम हो गया कि यह ध्वनि श्रीकृष्ण ने भविष्य कथन सुनकर प्रसन्नता से की है। जब जनता और प्रभु के साधु साध्वी यह जान गये कि-श्रीकृष्ण भविष्य में प्रभु की तरह ही तीर्थकर होंगे। तब सभी श्रमणों को और गृहस्थों को चाहिए था कि वे भी आपके भरतेश्वर की तरह कृष्ण को वन्दना नमस्कार करते ? क्योंकि वे भी तो मरीचि की तरह द्रव्य तीर्थकर थे ? किन्तु जब हम अन्तकृद्दशांग देखते हैं, तब उर में सिंहनाद आदि का तो वर्णन है, पर वन्दनादि के लिए तो बिलकुल मौन ही पाया जाता है। यही हाल ठाणांग सूत्र के नवमस्थान में श्रेणिक के भविष्य कथन का है / जब तीर्थकर भाषित सूत्रों में यह बात प्रकरण से भी नहीं मिलती तो अन्य ग्रन्थों में कैसे और कहां से आई ? और त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र के रचयिता ने किस दिव्य ज्ञान द्वारा यह सब जाना ? किसी भी बात को कल्पना के जरिये विद्वत्ता पूर्वक रचडालने से ही वह ऐतिहासिक नहीं हो सकती / इस प्रमाण के बाधक कुछ उदाहरण भी दिये जाते हैं। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (101) (क) कोई बुनकर कपड़ा बुनने को यदि सूत लाया है उस सूत से वह कपड़ा वनावेगा, वमान में वह कपड़ा नहीं पर सूत ही है। फिर भी वह बुनकर यदि सूत को ही कपड़े के मुल्य में बेचना चाहे या खरीदने वाले से उस सूत को देकर वस्त्र का मूल्य लेना चाहे तो उसे निराश होना पड़ता है। क्यों कि वह वर्तमान में सूत है उनसे वस्त्र के दाम नहीं मिल रूकते। इसी प्रकार भविष्य में उत्पन्न होने वाले गुण को लक्ष्य कर वर्तमान में उन उत्तम गुणों से रहित व्यक्ति को वैसा मान नहीं दिया जा सकता। (ख) कोई शिल्प-कार मूर्ति बनाने के लिए एक पाषाण खण्ड लाया है उस पाषाण की वह मूर्ति बनावेगा उस पर काम भी करने लग गया है किन्तु अभी तक मूर्ति पूर्ण रूप से वनी नहीं है, इतने में ही कोई मूर्ति-पूजक आकर उससे मूर्ति माँगे, तब वह शिल्पकार यदि कहदे कि-यह अपूर्ण मूर्ति ही ले लो तो क्या वह मूर्ति पूजक उस अपूर्ण मूर्ति को पूरे दाम देकर खरीदेगा? नहीं यद्यपि वह भविष्य में पूर्ण रूप से ठीक बन जायगी पर वर्तमान में अपूर्ण है, इस लिए व्यवहार में भी उसका पूरा मूल्य नहीं मिल सकता, तो धर्म कार्य में द्रव्य निक्षेप वन्दनीय पूजनीय कैसे हो सकता है ? (ग) एक गाय की छोटी सी बछिया है, जो भविष्य में गाय बन कर दूध देगी, किंतु हमारे मूर्ति पूजक प्रश्नकार के मतानुसार उत्त बछिया से ही जो कोई दूध प्राप्त करने की इच्छा से किया करे, तो उस जैसा मूर्ख शिरोमणि संसार में और कौन हो सकता है। जब छोटी बछिया यद्यपि गाय के द्रव्य निक्षेप में है किन्तु वतमान में दूध देने रूप भाव निक्षेप की कार्य साधक नहीं होती तब गुण शून्य द्रव्य निक्षेप वंदनीय पूजनीय किस प्रकार माना जा सकता है। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (110 ) (घ) 24 वें प्रश्नोत्तर के पांचों उदाहरण भी यहां प्रकरण संगत हैं। ऐसे अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं, सुज्ञ जनता इन उदाहरणों पर शान्त चित से विचार करेगी तो मालूम होगा कि-द्रव्य निक्षेप को भाव सदृश मानना वास्तव में बुद्धिमत्ता नहीं है। इस तरह रूत्य को समझ कर पाठक अपना कल्याण मार्ध यही निबेदन है। . PR CAMERA Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७-सिद्ध हुए तीर्थंकर और द्रव्य निक्षेप प्रश्न-चौवीस तीर्थंकर वर्तमान में सिद्ध हो चुके हैं उनकी आत्मा अब अरिहंत या तीर्थकर के द्रव्य निक्षेप में ही है उन सिद्धों को अब अरिहंत या तीर्थकर मानकर वन्दना स्तुति करते हो, क्या यह द्रव्य निक्षेप का वन्दन नहीं है? उत्तर-उक्त कथन के समाधान में यह समझना चाहिये कि जो तीर्थकर या अरिहंत सिद्ध हो चुके हैं उनकी अभी वन्दना या स्तुति करते हैं वह द्रव्य निक्षेप में नहीं है, क्योंकि जो आत्माश्रित भाव-गुण अर्हतावस्था में थे वे सिद्धावस्था में भी कायम हैं, सिद्धावस्था में तो और मी गुणवृद्धि ही हुई है / फिर उन्हें सामान्य द्रव्य निक्षेप से कैसे कह सकते हैं ? गुण पूजकों के लिये तो यह प्रश्न ही अनुचित है। ___ सिद्धावस्था की आत्मा अरिहंत दशा का मूल द्रव्य होकर मी द्रव्य निक्षेप से विशेषता रखता है, कारण यहां गुणों से सम्बन्ध है जिस प्रकार अणुवत वाला श्रावक जब महाव्रत Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 112) धारी साधु हो जाता है तब वह श्रावक का द्रव्य निक्षेप है, फिर भी गुण वृद्धि की अपेक्षा वन्दनीय है, किन्तु वही साधु जो श्रावक से साधु बना था कर्मों के जोग से संयम मार्ग से पतित हो जाय तो श्रावक पद से भी वन्दनीय नहीं रहेगा क्यों कि वन्दन, नमन का स्थान है गुण, और उन श्रुत चा. रित्र रूप गुणों की न्यूनता वाला बन जाने से वह आत्मा वंद. नीय नहीं रहा, इससे विपरीत जहां गुण वृद्धि होती है वह भूत और वर्तमान दोनों काल में वन्दनीय ही होता है। ___इस विषय में यदि आप सांसारिक उदाहरण भी देखना चाहें तो बहुत मिल सकते हैं अधिक नहीं केवल एक ही उदाहरण यहां दिया जाता है, देखिये___ वर्तमान में जितने पदच्युत राजा और सम्राट हैं वे पहले तो प्रायः युवराज रहे होंगे, और युवराज के बाद राजा या स. म्राट बने जो प्रजा युवराज अवस्था में उन्हें मान देती थी, वही राजा होने पर भी मान देती रही, बल्कि पहले से भी अधिक किन्तु काल चक्र के फेर से वे राज्यच्यत हो गयेतो युवराज अवस्था वाला आदर भी उनके भाग्य में नहीं रहा, आज उनकी क्या हालत है यह तो प्रायः सभी जानते - यहां निर्विवाद सिद्ध हुअा कि मान पूजा गुणों की ही अपेक्षा रखती है, इस लिये गुण वृद्धि रूप सिद्धावस्था को लेकर गुण रहित द्रव्य निक्षेप के साथ उसकी तुलना करके सामान्य द्रव्य निक्षेप को वन्दनीय ठहराना किसी प्रकार योग्य नहीं है। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८-साधु के शव का बहुमान प्रश्न-मृतक साधु के शव की अंतिमक्रियाश्राप बहुमान पूर्वक करते हैं उसमें धन भी खूब खर्च करते हैं तो भी क्या यह द्रव्य निक्षेप को वन्दन नहीं हुआ? उत्तर-साधु के शक की अंतिमक्रिया जो हम करते हैं यह धर्म समझ कर नहीं किन्तु अपना कर्तव्य समझ कर करते हैं, शव की अंतिमक्रिया करनाअनिवार्य है, नहीं करने से कई प्रकार के अनर्थ होने कि सम्भावना है। अतएव यह क्रिया आवश्यक और अनिवार्य होने से की जाती है इसमें धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं है। . इसके सिवाय जो बहुमान किया जाता है वह शव का नहीं पर शव होने के पूर्व शरीर में रहने वाले संयमी गुरू की आत्मा का है, और यह क्रिया केवल व्यवहारिक कर्तव्य का पालन करने के लिये ही होती है। संसार में भी जो व्यक्ति अधिक जन प्रिय, पूज्य या मान्य होगा, बहुतों का नेता होगा उसके मरने पर उसके शव की अंतिमक्रिया भी Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 114 ) बहुमान और पुष्कल द्रव्य व्यय कर की जायगी उसमें जो बहुमान होगा वह उस शव का ही नहीं किन्तु उस शव का कुछ समय पूर्व जो एक उच्च प्रात्मा से सम्बन्ध रहा था, उस आत्मा के ही बहुमान के कारण शरीर से उसके निकल जाने पर भी शव का मान होता है, बस इसी प्रकार हम भी हमारे गुरू के मृत शरीर की अंतिमक्रिया करते हैं। और यही मान्यता रखते हैं कि यह क्रिया व्यवहारिक है किन्तु धार्मिक नहीं। अतएव व्यवहारिक और श्रावश्यक क्रिया का धार्मिक विषय में जोड़ देना अनुचित है, इस प्रकार द्रव्य निक्षेप वन्दनीय नहीं हो सकता। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -क्या जिन मूर्ति जिन समान है ? प्रश्न--जिन प्रतिमा जिन समान है ऐसा सूत्र में कहा है, फिर श्राप क्यों नहीं मानते ? उत्तर-उक्त कथन भी सत्य से परे है। श्राश्चर्य तो / बात का है कि जब मूर्ति पूजा करने की ही प्रभु आशा तब यह प्रश्न ही कैसे उपस्थित हो सकता है ? वास्तव यह कथन हमारे मूर्ति-पूजक बन्धुओं ने अतिशयोक्ति ही किया है। इसी प्रकार श्री विजयानन्द सूरिजी ने भी म्यक्त्व शल्योद्धार' में इस विषय को सिद्ध करने के लिये र्थ प्रयास किया है, वे लिखते हैं कि साक्षात् प्रभु को स्कार करते समय देवयं चेयं पज्जुवासामि कहते हैं, सका अर्थ यह होता है कि देव सम्बन्धी चैत्य सो जिन प्रतिमा तिसकी तरह सेवा i, इस प्रकार मनमाना अर्थ किया है, श्रीमान् विजयानन्द ने तो सम्यक्त्व शल्योद्धार चतुर्थावृत्ति पृ० 103 में तक लिख डाला है कि-'भाषतीर्थकर से भी जिन प्रतिमा Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 116 ) की अधिकता है क्या अब भी अनर्थ में कुछ कसर है ? कि इसका अर्थ जो प्रकरण संगत वह मूल पाठ और उस शुद्ध अर्थ निम्न प्रकार से है देखियेकल्लारणं, मंगलं, देवयं, चेइयं, पज्जुवासामि अर्थ-श्राप कल्याणकर्ता हैं, मंगल रूप हैं धर्मदेव हैं, ज्ञानवंत हैं, मैं आप की सेवा करता हूं। यह अर्थ शुद्ध और प्रकरण संगत है, स्वयं राज प्रश्नीय के टीकाकार आचार्य भी उक्त पाठ की टीका इस प्रकार करते हैं देखिये---क०कल्याण करित्वात मं० दुरितोपशम कारि त्वात् दे० त्रैलोक्याधि पतित्वात् चैत्यं सुप्रशस्त मनोहेतुत्वात् ___ यहां स्वयं प्रभु को वन्दना करने के विषय में उक्त शब्द का टीकाकार ने सुप्रशस्त मन के हेतु कहकर स्वयं सर्वज्ञ प्रभु को ही इसका स्वामी माना है और प्रभु अनन्त ज्ञानी है अतः हमारा उक्त अर्थ ही सिद्ध हुआ। इसका प्रतिमा अर्थ इनके माननीय टीकाकार के मन्तव्य से भी बाधित हुआ। श्रतएव इस युक्ति से जिन प्रतिमा को जिन समान कहना व्यर्थ ही ठहरता है। जब कल्लागणं, मंगलं, दो शब्दों का अर्थ तो आपभी क ल्याणकारी, मंगलकारी करते हैं, तब देवयं, चेइयं, इन दो शब्दों का देवता सम्बन्धी चैत्य जिन प्रतिमा की तरह ऐसा अघटित अर्थ किस प्रकार करते हैं ? देवयं, चेहयं, भी कल्लाणं, मंगलं की तरह पृथक दो शब्द है वहां दोनों का स्व. Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 117) तन्त्र भिन्न अर्थ करके यहां दोनों को सम्बन्धित करके बाद में उपमावाची वाक्य की तरह लगा देना क्या मत मोह नहीं है ? फिर भी अर्थ तो अलंगत ही रहा, टीकाकार के मत से भी बाधित ठहरा / अतएव उक्त मनमाने अर्थ से प्रश्न को सिद्ध करने की चेष्टा विफल ही है। मूर्ति पूजक समाज के प्रसिद्ध विद्वान पं० वेवरदासजी को भी चैत्य शब्द का जिन मूर्ति अर्थ मान्य नहीं, इस अर्थ को पंडितजी नूतन अर्थ कहते हैं देखो जन माहित्य मां विकार थवाथी थये ली हानि ) ___ इसके सिवाय जिन-मूर्ति को जिन समान मानने वाले बन्धु राजप्रश्नीय की साक्षी देते हुए कहते हैं कि यहां जिन प्रतिमा को जिन समान कहा है किन्तु यह समझना उनका भूल से भरा हुआ है, गजप्रश्नीय में केवल शब्दालंकार है, किन्तु उसका यह श्राशय नहीं कि मू साक्षात् के समान एक साधारण बुद्धि वाला मनुष्य भी यह जानता है कि पत्थर निर्मित गाय साक्षात् गाय की बराबरी नहीं कर सक. ती, साक्षात् गाय से दूध मिलता है, और पत्थर की गाय से बस पत्थर ही। जब साक्षात् फूलों से मोहक सुगन्ध मिलती है तब कागज़ के बनाये हुए फूलों से कुछ भी नहीं / साक्षात् सिंह से गजराज भी डरता है किन्तु पत्थर के वनाघटी सिंह से भेड़, बकरी भी नहीं डरती। असली रोटी को खाकर सभी सुधा शान्त करते हैं किन्तु चित्रनिर्मित कागज की रोटी को खाने का प्रयत्न तो मूर्ख और बालक भी नहीं करते / इस प्रकार असल नकल के भेद और उसमें रहा हुमा महान् अन्तर स्पष्ट दिखाई देता है, असल की बराबरी नकल कभी नहीं कर सकती, फिर धुरंधर विद्वान और शास्त्र कहे जाने Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 118) वाले मूर्ति को अनंत ज्ञानी, अनंत गुणी ऐसे तीर्थकर प्रभु समान ही माने और वंदना पूजादि करे, यह कितनी हास्य जनक पद्धति है। जबकि-साक्षात् हाथी का मूल्य हजारों रुपया है उसका दैनिक खर्च भी साधारण मनुष्य नहीं उठा सकता, राजा महाराजा ही हाथी रखते हैं, हाथी रखने में बहुत बड़ी आर्थिक शक्ति की आवश्यकता है, इससे उल्टा मूर्ति की ओर देखिये, एक कुम्हार मिट्टो के हजारों हाथी बनाता है और वे हाथी पैसे 2. में बाजार में बालकों के खेलने के लिए बिकते हैं / इस पर ही यदि विचार किया जाय तो असल व नकल में रही हुई भिन्नता स्पष्ट दिखाई देती है। जब साक्षात एक हाथी का ही मूल्य हजारों रुपया है, तब हाथी की एक हजार मूर्तियों का मूल्य हजार पैसे भी नहीं / असल हाथी के रखने वाले राजा महाराजा होते हैं, तब मिट्टी के हजारों हाथी रखने वाले कुम्हार को भर पेट अन्न और पूरे वस्त्र भी नहीं / यदि ऐसे हजारों हाथी वाला कुंभकार राजा महाराजा की बराबरी करने लगे और गर्व यक्त कहे कि-'राजा के पास तो एक ही हाथी है किन्तु मेरे पास ऐसे हजारों हाथी हैं इसलिए मैं तो राजाधिराज (सम्राट) से भी अधिक हूं" ऐसी सूरत में वह कुंभकार अपने मुंह भले ही मियाँ मिट्ट बनजाय किन्तु सर्व साधारण की दृष्टि में तो वह सिर्फ "शेखचिल्ली" ही है। - बस यही हालत "जिन प्रतिमा जिन सारखी" कहने वालों की है यद्यपि मूर्ति को साक्षात् के सदृश मानने का कथन Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 119 ) असत्य ही है, तथापि थोड़े समय के लिए केवल दलील के खातिर इनका यह कथन मान भी लिया जाय तो भी उनकी पूजा पद्धति व्यर्थ ही ठहरती है, क्योंकि-प्रभु ने दीक्षितावस्था के बाद कभी भी स्नान नहीं किया, न फूल मालाएं धारण की, न छत्र मुकुट कुण्डलादि आभूषण पहने, न धूप दीग श्रादि का सेवन कि ग, ऐसे एकान्त त्यागी भगवान के समान ही यदि उनकी मूर्ति मानी जाय तो-उस मूर्ति को सचित्त जल से स्नान कराने, वस्त्राभूषण पहनाने, फूलों के हार पहनाने, फूलों को काट कर उनसे अंगियां बनाने, केले के पेड़ों को काटकर कदली घर श्रादि बनाकर सजाई करने, धूप, दीप द्वारा अगणित त्रस स्थावरों की हत्या करने, केशर चन्दन श्रादि से विलेपन करने आदि की आवश्यकता ही क्या है ? क्या दीक्षितावस्था-(धर्मावतार अवस्था) में कभी प्रभु ने इन वस्तुओं का उपभोग किया था? यदि नहीं किया तो अब यह प्रभु विरोधिनी भक्ति क्यों की जाती है ? जिन दयालु प्रभु ने पानी पुष्पादि के जीवों का स्पर्श ही नहीं किया और अपने श्रमणवंशजों को भी सचित्त पानी, पुष्प, फल, अग्नि आदि के स्पर्श करने की मनाई की, उन्हीं प्रभु पर उनकी निषेध की हुई सचित्त वस्तुओं का प्राण हरण कर चढ़ाना क्या यह भी भक्ति है ? नहीं, ऐसी क्रिया को भक्ति तो किसी भी प्रकार नहीं कह सकते, वास्तव में यह भक्ति नहीं किन्तु प्रभु का 'महान् अपमान है। प्रभु के सिद्धान्तों का प्रभु पूजा के लिए ही प्रभु पूजक दिन दहाड़े भंग करे, यह तो मित्र होकर शत्रुपन के कार्य करने के बराबर है। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / 120) जिन परम दयालु प्रभु ने धर्म के लिए की जाने वाली व्यर्थ हिंसा को अनार्य कर्म कहा, श्रहित कारिणी बताई, उन्हीं के भक्त उन्हीं प्रभु के नाम पर निरपराध मूक प्राणियों का अकारण ही नाश कर धर्म माने, यह कितने आश्चर्य की बात है ? जिस त्यागी वर्ग के लिए त्रिकरण, त्रियोग से हिंसा करने, कराने, अनुमोदने का निषेध किया गया, जिन त्यागी श्रमणों ने स्वयं ईश्वर और गुरु साक्षी से किसी भी करणयोग से हिंसा नहीं करने की स्पष्ट प्रतिज्ञा ली, वही त्यागी वर्ग पक्ष व्यामोह में पड़कर अपने कर्तव्य- अपनी प्रतिज्ञा को ठोकर मारकर प्रभु की पूजा के नाम पर अगणित निरपराध जीवों की हिंसा करने का गला फाड़ 2 कर उपदेश आदेश दे, यह कितनी लज्जा की बात है ? क्या जिन मूर्ति को साक्षात् जिन समान मानने वाले अपनी प्रभु विरोधिनी पूजा के जरिये होते हुए प्रभु के अप. मान को समझ कर सत्यपथ गामी बनेंगे? वास्तव में तो मूर्ति साक्षात् के समान हो ही नहीं सकती जबकि मृतकलेवर भी जीवित की स्थान पूर्ति नहीं कर सकता, इसीलिए जलाकर या पृथ्वी में गाड़ कर नष्ट कर दिया जाता है, तब पत्थर या काष्ट की मूर्ति अथवा चित्र क्या साक्षात् की समानता करेंगे? अतएव सरल बुद्धि से विचार कर मान्यता शुद्ध करनी चाहिए? Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०-समवसरण और मूर्ति प्रश्न-तीर्थकर समवसरण में बैठते हैं तब अन्य दिशाओं में उनकी तीन मूर्तियों में देवता रखते हैं उन मूर्तियों को लोग वन्दना नमस्कार करते हैं. इस हेतु से तोमूर्ति पूजा सिद्ध हुई? उत्तर-उक्त कथन भी पागम प्रमाण रहित और मिथ्या है। भगवान समवसरण में चतुर्मुख दिखाई देते हैं ऐसा जो कहा जाता है उसका खास कारण तो भामण्डल का प्रकाश ही पाया जाता है / हेमचन्द्राचार्य ने योगशास्त्र के नववे प्रकाश के प्रथम श्लोक में स्वयं प्रभुको ही चतुर्मुखस्य' लिख कर चार मुंह वाले कहे हैं किन्तु चार मूर्तिये नहीं कही। ___ आज भी कितने ही मन्दिरों में एक मूर्ति के आस पास ऐसे ढंग से शीशे ( कांच ) रखे हुए देखे जाते हैं कि जिस से एक ही मूर्ति पृथक 2 चार पांच की संख्या में दिखाई दे। कई जगह महलों में ऐसे कमरे देखे गये कि जिसमें जाने से Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 122 ) एक ही मनुष्य अपने ही समान चार पांच रूप और भी देख कर आश्चर्य करने लग जाता है, यह सब दर्पण के कारण ऐसा दिखाई देता है. जब मनुष्य वृत दर्पण में है। ऐसी वि. त्रि दिखाई देती है तब देवकृत नमवसरण के उद्योत में और प्रभामण्डल के प्रकाश तथा तीसरा स्वयं प्रभु का ही ददा प्यमान सूर्य के समान नजावी मुखक.मल, इस प्रकार तीन प्रकार के उद्योत से प्रभु चतुमुख दिखाई दे तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? ___'त्रिप्टिशलाका पुरुष चर' में और जैन रामायण में लिखा है कि रावण अपने हार की नो मणियों की प्रभा के कारण दशानन (दश मुंह वाला) दिखाई देता था। गवर के मुंह का प्रतिबिंब हार की नव मारियों में पड़ने से देखने वालों को रावण दश मुख का दिखाई देता था। इसी प्रकार यदि प्रभामण्डलादि के प्रकाश के.कारण यदि प्रभु चतुर्मुख दिखाई दें तो इसमें कोई अचरज नहीं। किन्तु तीन दिशाओं में मूर्तिये रखने का कथन तो मूर्ति-पूजक महानुभावों का प्रमाण शून्य और मन कल्पित ही पाया जाता है। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१-क्या पुष्पों से पूजा पुष्पों की दया है ? प्रश्न-पुष्पों से पूजा करना पुष्पों की दया करना है। क्योंकि यदि उन पुष्पों को वेश्या या अन्य भोगी मनुष्य ले जाते तो उनके हार गजरे आदि बनाते, शैय्या सजा कर ऊपर सोते, सूंघते तथा इत्र तेल आदि बनाने वाले सड़ागला कर भट्ठी पर चढाते, इस प्रकार पुष्पों की दुर्दशा होती / इस लिये उक्त दुर्दशा से बचाकर प्रभु की पूजा में लगाना उत्तम है, इससे वे जीव सार्थक होजाते हैं, यह उनकी दया ही है ( सम्यक्त्व शल्योद्धार ) और श्रावश्यक सूत्र में 'महिया' शब्द से फूलों से पूजा करने का भी कहा है, यह स्पष्ट बात तो आप भी मानते होंगे? उत्तर-उक्त मान्यता मिथ्यात्व पोषक और धर्म घातक है, इस प्रकार भोगियों की अोट लेकर मूर्ति-पूजा को सिद्ध करना और उसमें होती हुई हिंसा को दया कहना यह तो वेद विहित हिंसा का अनुमोदन करने के समान है / जो लोग हिंसा करके उसमें धर्म मानते हैं उन्हें यश्च में होती हुई Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 194) हिंसा को हेय ( छोड़ने योग्य ) कहने का क्या अधिकार है ? वे मी तो उन जीवों को खाने के लिये मारने वालों से बचा कर यज्ञ में होम कर देव पूजा करना चाहते हैं ? और उसी प्रकार उन जीवों को भी स्वर्ग में भेजना चाहते हैं ? _ महानुभावों ? पक्ष व्यामोह के वश होकर क्यों हिंसाको प्रोत्साह देते हो? आपकी पुष्प पूजा में उक्त दलील को सुनकर जब याशिक लोग आपसे पूछेगे कि महाशय ? हमको खोटे बताने वाले अप खुद देव पूजा के लिए हिंसा करके उसमें धर्म कैसे मानते हो? मार डालने पर उन जीवों की दया कैसे हो सकती है ? हमारी हिंसा तो हिंसा और साथ ही निन्दनीय और आपकी हिंसा दया और सराहनीय यह कहां का न्याय है ? तब श्राप क्या उत्तर देंगे? क्या आपको वहां अधो दृष्टि नहीं करनी पड़ेगी? ___ क्या कभी सरल बुद्धि से यह भी सोचा कि फूल भले ही भोग के लिये तोड़े जांय या इत्र फुलेलादि के या भले ही पूजा के लिए, उनकी हत्या तो अनिवार्य है, हत्या होने के बाद भले ही उनसे शय्या सजावे, हार बनावें या पूजा के काम में लेवें, उन्हें तो जीवन से हाथ धोना ही पड़ा न? पूजा या भोग के लिये तोड़ने में उन्हें कष्ट तो समान ही होता है, दोनों में अत्यन्त दुख के साथ मृत्यु निश्चित ही है फिर इस में दया हुई ? ___ पुष्पों से पूजा करने का उपदेश और आदेश देने वाले श्रमण अपने प्रथम और तृतीय महाव्रत का स्पष्ट भङ्ग करते हैं / यदि इसमें संदेह होतो पुष्प पूजा में दया मानने वाले आपके विजयानन्दसूरिजी ही हिंदी जैन तत्त्वादर्श पृ० 327 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 125) में फल, फूल, पत्रादि तोड़ने को जीव अदत्त कहते हैं, देखिये__'दूसरा सचित्त वस्तु अर्थात् जीव वाली वस्तु फूल, फल, बीज, गुच्छा, पत्र, कंद, मूलादिक तथा बकरा, गाय, सुभरादिक इनको तोड़े, छेदे, भेदे, काटे सो जीव अदत्त कहिये, क्योंकि फूलादि जीवों ने अपने शरीर के छेदने भेदने की आज्ञा नहीं दीनी है, जो तुम हमको छेदो भेदो, इस वास्ते इसका नाम जीव अदत्त है। विजयानन्दसूरिजी के उक्त सत्य कथनानुसार पत्र फूलादि का तोड़ना जीव अदत्त है और अदत्त ग्रहण तीसरे महाव्रत का भङ्गकर्ता है, इसके सिवाय प्राणी हिंसा होने से प्रथम अहिंसा बत का भी नाश होता है, इस प्रकार यह पुष्प पूजा स्पष्ट (प्रत्यक्ष ) महाव्रतों की घातक है, ऐसी महावतों के मूल में कुठाराघात करने वाली पूजा का उपदेश, आदेश और अनुमोदन महाव्रती श्रमण तो कदापि नहीं कर सकते / न हिंसा में दया बताने वाला पापयुक्त लेख ही लिख सकते हैं। इन बेचारे निरपराध पुष्प के जीवों के प्रथम तो भोगी और इत्र तेलादि बनाने वाले ही शत्रु थे, जिनसे रक्षा पाने के लिए इनकी दृष्टि त्यागियों पर थी, क्योंकि जैन के त्यागी भ्रमण छः कायजीवों के रक्षक, पीहर होते हैं, वे स्वयं हिंसा नहीं करते हैं इतना ही नहीं किन्तु हिंसा करने वालों से भी जीवों की रक्षा करने का प्रयत्न करते हैं, अतएव त्यागी म. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (126) हात्मा ही भोगियों को उपदेश देकर हमारी रक्षा का प्रयत्न करेंगे ऐसी अाशा थी किन्तु जब स्वयं त्यागी कहाने वाले भी कमर कसकर पुष्पों की अधिक 2 हिंसा करवा कर उम्र में धर्म बतावें, तब वे बेचारे कहां जावें ? किसकी शरण ले ? यह तो दुधारी तलवार चली, पहले तो भोगी लोग ही शत्रु थे, और अब तो त्यागी कि जिनसे रक्षा की श्राशा थी-वे भी शत्रु होगये। भोगी लेागों में से बहुत से तो फूलों को तोड़ने में हिंसा ही नहीं मानते, और कितने मानते हों तो वे भी अपने भोगों के लिए तोड़ते हैं, किन्तु उसमें धर्म तो नहीं मानते, पर आश्चर्य तो यह है कि-सर्व त्यागी पूर्ण अहिंसक कहाने वाले ये त्यागी लोग फूलों को तोड़ने तुड़वाने में हिंसा तो मानते हैं किन्तु इस हिंसा में भी धर्म दया) होने की-बिष को अमृत कहने रूप-प्ररूपणा करते हैं / इस पर से तो कोई भी सुज्ञ यह सोच सकता है कि-"अधिक पातकी कौन है? ये कहे जाने वाले त्यागी या भोगी ? पाप को पाप, झूठ को भूठ, खोटे को खोटा कहने वाला तो सच्चा सत्य वक्ता है, किन्तु पाप को पुण्य, झूठ को सत्य, खोटे को खरा, कहने वाले तो स्पष्ट सतरहवें पाप स्थान का सेवन ( जानबूझकर माया से भूठ बोलना ) करने के साथ अन्य जीवों को अठारहवें पाप स्थान में धकेलते हैं, और आप भी इसी अन्तिम प्रबल पाप स्थान के स्वामी बन जाते हैं / हजारों भद्र लोगों को भ्रम में डालकर मिथ्या युक्तियों द्वारा उनकी श्रद्धा को भ्रष्ट करने व उन्हें उन्मार्ग गामी बनाने वाले संसार में नाम घारी त्यागी लोग जितने हैं, उतने दूसरे नहीं। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (127 ) श्रय इन लोगों के बताये हुए "महिया" शब्द पर विचार करते हैं:___ आवश्यक हरिभद्रसूरि की वृत्ति वाले में यह स्पष्ट उल्लेख है कि -- "महिया" शब्द पाठान्तर का है, मूल पाठ तो है "मइया' जिसका अर्थ होता है 'मेरे द्वारा' (मेरे द्वारा वंदन स्तुति किये हुए) वृत्तिकार लिखते हैं कि 'मइश्रा-मयका, महिया इतिच पाठान्तरं,' जबकि मू० पू० समाज के मान्य और लगभग 1200 सौ घर्षों के पूर्व होगये ऐसे प्राचार्य ही इस 'महिया' शब्द को पाठान्तर मानते हैं, तब ऐसी हालत में इस विषय पर अधिक उहापोह करने की आवश्यकता ही नहीं रहती। जो 'महिया शब्द हरिभद्रसूरि के समय तक पाठान्तर में माना जाता था वह पीछे के प्राचार्यों द्वारा 'महा' को मूल से हटाकर स्वयं मूल रूप बन गया। फिर भी हम प्रश्नकार के संतोष के लिए थोड़ी देर के वास्ते 'महिया' शब्द को मूल का ही मानलें तो भी इस शब्द का अर्थ-पुष्पादि से पूजा करना ऐसा प्रागम सम्मत नहीं हो सकता, क्योंकि...... ...1 __ क्योंकि यह 'महिमा' शब्द 'चतुर्विंशतिस्तव' (लोगस्स) का है, इस स्तव से चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति की जाती है, यह संपूर्ण पाठ और इसका एक 2 वाक्य स्तुति से ही भरा है. इसके किसी भी शब्द से किसी अन्य द्रव्य से पूजा करने का अर्थ नहीं निकलता, केवल मन, वाणी, शरीर द्वारा ही भक्ति करने का यह सारा पाठ है। अब यह महिया शब्द जहां पाया है उसके पहले के दो शब्द और लिखकर इसका सत्य अर्थ बताया जाता है,-. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कित्तिय वंदिय महिया, कि० वाणी द्वारा कीर्ति ( स्तुति ) करना वं० शरीर द्वारा वन्दन करना, म० मन द्वारा पूजा करना' इस प्रकार तीनों शब्दों का मन, वचन, और शरीर द्वाग भक्ति करने का अर्थ होता है, यदि महिया शब्द से फूलों से पूजा करने का कहोगे तो मन द्वारा भाव पूजा करने का दूसरा कौनसा शब्द है ? और जब सारा लोगस्स का पाठ ही अन्य द्रव्यों से प्रभु भक्ति करने की अपेक्षा नहीं रखता तब अकेला महिया शब्द किस प्रकार अन्य द्रव्यों को स्थान दे सकता है ? वैसे तो आप पुष्पादिभिः के साथ 'जना. दिभिः' 'चन्दनादिभिः' 'श्राभूपणादिभिः धुपादिभिः मनमाना अर्थ लगा सकते हो इसमें आपको रोक ही कौन सक ता है ? किन्तु इस प्रकार मनमानी धकाने में कुछ भी लाभ नहीं है, उल्टा व्यर्थ में हिंसा को प्रोत्साहन मिलता है, जिस से हानि अवश्य है / सरल भाव से सोचने पर ज्ञात होगा कि मूल में तो मात्र 'महिया' शब्द ही है, जिसका अर्थ पूजा Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (126) होता है अब यह पूजा कैसी और किस प्रकार की होनी चाहिये, इसके लिये जैन को तो अधिक विचार करने की प्रा. वश्यकता नहीं रहती. क्योंकि जैनियों के देव वीतराग है वे किसी बाहरी पौदगलिक वस्तु को प्रात्मा के लिये उपयोगी नहीं मानते, पुद्गलों के त्याग को ही जिन्होंने धर्म कहा है वे स्वयं सुगन्ध सेवन आदि के त्यागी हैं, फिर ऐसे वीतराग की पूजा फूलों द्वारा कैसे की जा सके ? ऐसे प्रभु की पूजा तो मन को शुद्ध स्वच्छ निर्विकार बना कर अपने को प्रभु चरणों में भक्ति रूप से अर्पण कर देने में ही होती है, किसी बाहरी वस्तु से नहीं। फिर भी हम यहां आप से पूछते हैं कि अकेले महिया-पूजा शब्द मात्र से फूलों से पूजा होने का किस प्रकार कहा गया? यह फूल शब्द कहां से लाकर बैठाया मया ? यदि इसके मूल कारण पर विचार किया जाय तो यह स्पष्ट भाषित होता है कि फूलों से पूजने में फूलों की हिंसा होती है इससे बचने के लिये ही महिया शब्द की ओट ली गई है जो सर्वथा अनुपादय है। (1) यदि महिया शब्द से पुष्प से पूजा करने का अर्थ होता तो गणधर देव अंतकृशांग सूत्र के छटे वर्ग के तीसरे अध्ययन के चौदहवें सूत्र में अर्जुन माली के मोगरपाणी यक्ष की पुष्प पूजाधिकार में 'पुष्पं चणं करेई' शब्द क्यों लेते ? वहां भी यह महिया शब्द ही लेना चाहिये था? और सूत्रकार को लोगस्स के पाठ में पुष्प पूजा कहना अभिष्ट होता तो 'पुप्फ चणं करेमि' ऐसा स्पष्ट पाठ क्यों नहीं लेते ? महिया शब्द जो कि पुष्प के साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं रखता है क्यों लेते? . Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 130) (2) महिया शब्द चतुर्विंशतिस्तव का है और स्तव तो साधु भी करते हैं, वह भी दिन में कम से कम दो बार तो अवश्य ही अब हमारे मूर्ति पूजक बन्धु यह बतावे कि क्या साधु भी पुष्प से पूजा करे ? अापके मान्य अर्थ से तो मू० पू० साधुओं को भी फूलों से पूजा करना चाहिये, फिर आपके साधु क्यों नहीं करते ? इससे तो यही फलित होता है कि आपका यह अर्थ व्यर्थ है तभी तो उसका पालन श्राप के साधु नहीं करते हैं। इस विषय में मूर्ति पूजक आचार्य विजयानन्दसूरिजी कहते हैं कि 'सामायिक में साधु तथा श्रावक पूर्वोक्त महिया शब्द से पुष्पादिक द्रव्यपूजा की अनुमोदना करते हैं / साधु को द्रव्य पूजा करने का निषेध है परन्तु उपदेश द्वारा द्रव्य पूजा करवाने का और उसकी अनुमोदना करने का त्याग नहीं है। (सम्यक्त्व शल्योद्धार पृ० 181 ) इनके इस प्रकार मनमाने विधान पर पाठक जरा ध्यान से विचार करें कि जो काम स्वयं साधु के लिये त्याज्य है, वह पाप कार्य खुद तो नहीं करे किन्तु दूसरों से करवावे, यह तीन करण तीन योग के त्याग का पालन करना है क्या? मुनि खुद तो हिंसा नहीं करे, झूठ नहीं बोले, चोरी नहीं करे, और दूसरों को हत्या करने झूठ बोलने चोरी करने की प्रा. ना दे ? यह सरासर अन्धेर खाता नहीं तो क्या है ? अरे स्वयं वीर पिता ने आचारांगादि आगमों में धर्म के लिये Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (131 ) वनस्पत्यादि की हिंसा करने का कटु फल बना कर अपने भ्रमण भक्तों को उससे दूर रहने की प्राज्ञा दी है, स्वयं विजयानन्दजी ने भी जैनतत्वादर्श में इसी प्रश्न के उत्तर में प्रारम्भ में बताये अनुसार वनस्पत्यादि का तोड़ना जीव अदत्त ब. ताया है फिर उसी जीव अदत्त की अनुमोदना मुनि करे, यह भी कह डालना श्री विजयानन्दजी का स्ववचन विरोध रूप दूषण से दूषित नहीं है क्या? ऐसा जीव अदत्त और उसके अनुमोदन का जघन्य काम मुनि महोदय किस प्रकार करें ? यह समझ में नहीं पाता। - इसके सिवाय 'कित्तिय, वंदिय, महिया' इन तीनों शब्दों के लिये करण योगों की भिन्नता नहीं है, तीनों शब्द अपेक्षा रहित है, इनके लिये किसी के लिये एक करण और किसी के दो तीन करण या योग का कहना मिथ्या है। ये तीनों शब्द साधु और श्रावक को समान ही लागु होते हैं इनमें से दो शब्दों को छोड़ कर केवल एक महिया' शब्द के लिये पक्षपात वश कुतर्क करना यह कैसे सत्य हो सकता है ? यदि महिया शब्द से साधु स्वयं पुष्पों से पूजा नहीं करके दूसरे की अनुमोदना करे तो क्या त्रिकरण साधु त्यागी स्वयं तो हिंसा नहीं करे किन्तु दूसरे हिंसा करने वालों की अनुमोदना तथा हिसा कारी कार्य का अन्य को उपदेश कर सकते हैं क्या ? ____ हा! एक पंचमहाव्रतधारी साधु कहाने वाले इस प्रकार हिंसा की अनुमोदना करने का और हिंसा करने का उपदेश दें, ग्रन्थों में वैसा विधान करें, यह तो मूर्ति पूजकों काभारी पक्ष व्यामोह ही है, ऐसी विरुद्ध प्ररूपणा शुद्ध साधुमार्ग में तो नहीं चल सकती। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 132) आशा है कि-अब तो पाठक इस महिया शब्द के अर्थ में होने वाले अनर्थ को और उसके कारण को समझ गये होंगे, जबकि-जैनागमों में मूर्ति पूजा और साक्षात् की भी सावद्य पूजा का विधान ही नहीं है, फिर ऐसे कुतर्क को स्थान ही कहां से हो सके ? और पुष्प पूजा से पुष्पों की दया होने का वचन साधु तो ठीक पर अविरति सम्यक्त्वी भी कैसे कह सकें ? नहीं कदापि नहीं। 11: M Tant JADIMARAM GEET JJE -- - - - - - - कसर Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२-आवश्यक कृत्य और मूर्ति-पूजा प्रश्न-जिस प्रकार साधु श्राहार पानी करते हैं, बरसते हुए पानी में स्थंडिल जाते हैं, नदी उतरते हैं, पानी में बहती हुई साध्वी को निकालते हैं, ऐसे अनेकों कार्य जैसे हिंसा होते हुए किए जाते हैं, उसी प्रकार पूजन में यद्यपि हिंसा होती है, तथापि महान् लाभ होने से करणीय है, ऐसी लाभ दायक पूजा का आपके यहां निषेध क्यों किया जाता है? उत्तर-उक्त उदाहरणों से मूर्ति पूजा करणीय नहीं हो सकती, क्योंकि आहार पानी, स्थंडिल गमन श्रादि कार्य शरीर धारियों के लिये प्रावश्यक और अनिवार्य है, इस लि. ये यथाविधि यत्ना पूर्वक उक्त कार्य किये जाते हैं इसी प्रकार कभी नदी उतरना भी अनिवार्य हो तो उसे मी पाचारांग में बताई हुई विधि से उतर सकते हैं, अनाव. श्यकता से नदी उतरने की आज्ञा नहीं है, जैन मुनि यदि कोसों का चक्कर वाला भी रास्ता होगा तो उससे जाने का प्रयत्न करेंगे, किन्तु बिना खास आवश्यकता के नदी में नहीं उतरेंगे। पानी में बहती हुई सान्त्री को मी त्याग मार्ग की Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 134 ) रक्षा के लिये बचा सकते हैं जिसके जीवन से अनेकों का उद्धार और परमारा से लाखों के कल्याण होने की संभावना है बचाना उसको परम वश्यक भी है, एक साधुवत धारिणी मह सति के प्राण बचाने का फल अनन्त जीवों की रक्षा कर ने के समान है, यदि बची हुई साध्वी ने एक भी मिथ्यात्वी अनार्य व क्रूर व्यक्ति को मिथ्यात्व से हटा कर आर्य और दयालु बना दिया, सम्यक्त्व प्राप्त कराया तो उस हिंसक के हाथों से अनेक प्राणी की हिंसा रुक कर भविष्य में वही दया पालक होकर स्व-पर का कल्याण करने वाला हो सकता है, यदि किसी एक को भी बोध देकर साधु दीक्षा प्रदान कं. रेगी तो उससे उसकी आत्मा का उद्धार होने के साथ 2 अनेक प्रकारके परोपकार भी होंगे। इसी उद्देश्य से मंयमी महावती साधु अपने ही समान संयता महावत धारिणी साध्वी की रक्षा करते हैं। यह सभी कार्य श्रावश्यक और अनिवार्य होने से किये जाते हैं, इनमें प्रभु की परवानगी आगमों में बनाई गई है, ऐसे अपवाद के कार्य अनावश्यकता की हालत में नहीं किये जाते, यदि ऐसे कार्य बिना श्रावश्यकता के किये जाय तो करने वाला मुनि दण्ड का भागी होता है / साधु आहार पानी स्थंडिल गमन आदि कार्य क. रते हैं, यही उन्हें शारीरिक बाधाओं के कारण करना पड़ता है, बिना बाधाओं के दूर किये रत्नत्रयी का श्राराधन नहीं हो सकता, अतएव ऐसे कार्य को यतना पूर्वक करने में कोई हानि नहीं है। ऐसे श्रावश्यक और अनिवार्य कार्यों के उदाहरण देकर अनावश्यक और व्यर्थ की मूर्ति पूजा में प्राणी हिंसा करना Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 135) यह सरासर अशान है, मूर्ति-पूजा अनावश्यक है, निरर्थक है प्रभु, अाशा रहित है, लाभ किचिंत भी नहीं है हानि ही है। अतएव ऐसी निरर्थक, अनावश्यक मूर्ति पूजा को उपादेय बनाने के लिये व्यर्थ चेष्टा करना बुद्धिमानी नहीं है। नाता Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३-गृहस्थ सम्बन्धी प्रारंभ मूर्ति-पूजा और प्रश्न-गृहस्थ लोग अपने कार्य के लिये फल, फूल पत्र, अग्नि, पानी आदि का प्रारम्भ करते हैं, गृहस्थ जीव न प्रारम्भ मय जीवन है, इसमें यदि पूजा के लिये थोडासा जल और कुछ फल फूल एक दो दीपक, धूप श्रादि अलपा. रम्भ से प्रभु पूजा कर महान् लाभ उपार्जन किया जाय तो क्या हानि है। उत्तर-आपका उक्त प्रश्न भी विवेक शून्यता का है। समझदार और विवेकवान श्रावक जल, फूलादि कोई भी सचित्त वस्तु आवश्यक्तानुसार ही काम में लेते हैं, प्रा वश्यकता को भी घटाकर थोड़ा प्रारम्भ करने का प्रयत्न करते हैं, आवश्यकता की सीमा में रहकर प्रारम्भ करते हुए भी प्रारम्भ को प्रारम्भ ही मानते हैं और सदैव ऐसे गृहस्थाश्रम सम्बन्धी आवश्यक प्रारम्भ को भी त्यागने क Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 137 ) मनोरथ करते हैं, श्रावक के तीन मनोरथों में सर्व प्रथम मनोरथ यही है ऐसे श्राद्धवर्य कभी भी आवश्यकता से अ. धिक प्रारम्भ नहीं करते, ऐसी हालत में निरर्थक व्यर्थ का प्रारम्भ तो वे विवेकी श्रावक करें ही कैसे ? व्यवहारिक कार्यों में जहां द्रव्य व्यय होता है, वहां भी सुज्ञ मनुष्य आवश्यकतानुसार ही खर्च करता है, निरर्थक एक कौड़ी भी नहीं लगाता। और ऐसे ही मनुष्य संसार में आर्थिक संकट से भी दूर रहते हैं / जो निरर्थक आंख मूंद कर द्रव्य उड़ाते हैं, उनको अन्त में अवश्य पछताना पड़ता इसी प्रकार निरर्थक प्रारम्भ करने वाला भी अंत में दुःखी होता है। __मूर्ति पूजा में जो भी प्रारम्भ होता है वह सब का सब निरर्थक व्यर्थ और अन्त में दुःख दायक है। विवेकी श्रावक जो गृहस्थाश्रम में स्थित होने से प्रारम्भ करता है, वह भी प्रारम्भ को पाप ही मानता है, और इस प्रकार अपने श्रद्धान को शुद्ध रखता हुधा ऐसे पाप से पिण्ड छुडाने की भावना रखता है। किन्तु मूर्ति पूजा में जो प्रारम्भ होता है वह हेय होते हुए भी उपादेय (धर्म, माना जाकर श्रद्धान को बिगाड़. ता है। और जब प्रारम्भ को उपादेय धर्म ही मानलिया तब उसे स्यागने का मनोरथ तो हो ही कैसे ? अतएव मूर्ति-पूजा में होने वाला प्रारम्भ निरर्थक अनावश्यक है तथा श्रद्धान को अशुद्ध कर सम्यक्त्व से गिराने वाला है अतएव शीघ्र स्यागने योग्य है। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४-डाक्टर या खनी ! प्रश्न-जिस प्रकार डाक्टर रोगी की करुण दशा देखकर उसे रोग मुक्त करने के लिए कटु औषधि देता है, आवश्यकता पड़ने पर शस्त्र क्रिया भी करता है, जिससे रोगी को कष्ट तो होता ही है, किन्तु इससे वह रोग मुक्त हो जाता है और ऐसे रोग हर्ता डाक्टर को आशीर्वाद देता है। कदाचित् डाक्टर को अपने प्रयत्न में निष्फलता मिले, और रोगी मर जाय तो भी रोगी के मरने से डाक्टर हत्यारा या खूनी नहीं हो सकता, क्योंकि-डाक्टर तो रोगी को बचाने का ही कामी था। इसी प्रकार द्रव्य पूजा में होने वाली हिंसा उन जीवों की व पूजकों की हितकर्ता ही है, ऐसे परोपकारी कार्य (मू० पू० / का निषेध क्यों किया जाता है ? उत्तर-परोपकारी डाक्टर का उदाहरण देकर मूर्ति पूजा को उपादेय बताना एकदम अनुचित् है। उक्त उदाहरण तो उल्टा मूर्ति पूजा के विरोध में खड़ा रहता है / यहां हम डॉक्टर और रोगी सम्बन्धी कुछ स्पष्टीकरण करके उदाह. रण की विपरीतता बताते हैं। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (136 ) जो व्यक्ति शरीर के सभी अंगोपाङ्ग और उसमें रही हुई हड्डियें आदि को जानता व उसमें उत्पन्न होते हुए रोगों की पहिचान कर सकता है तथा योग्य उपचार से उनका प्रतिकार करने की योग्यता प्राप्त करने के लिए बहुत समय तक अध्ययन मनन आदि कर विद्वानों का संतोष पात्र बना और प्रमाण-पत्र प्राप्त कर सका हो वही व्यक्ति डाक्टर होकर रोगी की चिकित्सा करने का अधिकारी है। जो व्यक्ति रोगी है, वह रोग मुक्त होने के लिए उक्त प्रकार के कार्य कुशल एवं विश्वासपात्र डाक्टर के पास जाकर अपनी हालत का वर्णन तथा निरोग बनाने की प्रार्थना करता है, डाक्टर भी उसके रोग की जांच कर उचित चिकित्सा करता है, डाक्टर के उपचार से रोगी को विश्वास हो जाता है कि मैं निरोग बन जाऊँगा। यदि डाक्टर को शस्त्र क्रिया की आवश्यकता हो तो वह सर्व प्रथम रोगी की अाज्ञा प्राप्त कर लेता है, ये सभी कार्य डाक्टर रोगी के हित के लिए ही करता है, किन्तु भाग्यवशात् डाक्टर अपने परिश्रम में निष्फल होजाय, और रोगी रोग मुक्त होते 2 प्राण मुक्त ही हो जाय, तो भी परोपकार बुद्धि वाला डाक्टर रोगी की हत्या का अपराधी नहीं हो सकता। ... किन्तु एक चिकित्सा विषय का अनभिज्ञ मनुष्य यदि किसी रोगी का उसकी इच्छानुसार भी उपचार करे, और उससे रोगी को हानि पहुँचे, तो वह अनाड़ी ऊंट वैध राज्य नियमानुसार अपराधी ठहर कर दण्डित होता है। __ और जो मनुष्य न तो डाक्टर है, न चिकित्सा ही करना जानता है, किन्तु दुष्ट बुद्धि से किसी मनुष्य को मारडाले, Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 140 ) और गिरफ्तार होने पर कहे कि-मैंने तो उसको रोग मुक्त करने के लिए शस्त्र मारा था, तो ऐसी हास्यजनक बात पर न्यायाधीश ध्यान नहीं देते हुए उसे हत्यारा ठहरा कर या तो प्राण दण्ड देगा या कठिन कारावास दण्ड, जो कि उसे भोगना ही पड़ेगा। हमारे मूर्ति पूजक बंधु पूजा के बहाने बेचारे निरपराध प्राणियों को मार कर उक्त परोपकारी और विश्वासपात्र डाक्टर की श्रेणि में बैठने की इच्छा रखते हैं, यह किस प्रकार उचित हो सकता है ? वास्तव में इनके लिए (डाक्टरनहीं) किन्तु अन्तिम श्रेणी के खुनी का उदाहरण ही सर्वथा उपयुक्त है। क्योंकि-जो पृथ्वी, पानी, बनस्पति आदि स्थावर और त्रस काया के जीव अपने जीवन में ही प्रानन्द मानकर मरण दुःख से ही डरते हैं, सभी दीर्घ जीवन की इच्छा करते हैं, ऐसे उन जीवों को उनकी इच्छा के विरूद्ध प्राण हरण करलेने वाले हत्यारे की श्रेणी से कम कभी नहीं हो सकते / रोगी की तरह वे प्राणी इन पूजक बन्धुओं के पास प्रार्थना करने नहीं आते कि महात्मन् हमारा जीवन नष्ट कर हमारे शरीर की बलि श्राप अपने माने हुए भगवान को चढ़ाइये और हमपर उपकार कर हमें मुक्ति दीजिये। किन्तु पूजक महाशय स्वेच्छा से ही भ्रम में पड़कर उनका हरा भरा जीवन नष्ट कर उन्हें मृत्यु के घाट उतार देते हैं। इसलिये ये डाक्टर की श्रेणी के योग्य नहीं। इन जीवों को अपने भोग विलास के लिये कष्ट पहुंचाने वाले भोगी लोग संसार में बहुत हैं, लेकिन वे भी इनकी हिंसा करके उसमें उन जीवों का उपकार होना तथा स्वयं Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डाक्टर बनना नहीं मानते हैं, किन्तु परोपकारी डाक्टर की पंक्ति में बैठने का डोल करने वाले ये पूजक बन्धु तो बल पूर्वक हत्या करते हुए भी अपने को उस हत्यारे की तरह निर्दोष और उससे भी आगे बढ़कर परोपकारी बतलाते हैं, मला यह भी कोई परोपकार है ? इसमें परोपकार उनजीवों का हित कैसे हुप्रा ? हां नाश तो अवश्य हुश्रा। डाक्टरों को तोचिकित्साप्रारम्भ करने के पूर्व प्रमाण पत्र प्राप्त करना पड़ता है, किन्तु हमारे पूजक बन्धु तो स्वतः ही डाक्टर बन जाते हैं, इन्हें किसी प्रमाण पत्र की आवश्यकता ही नहीं, गुरू कृपा से इनके काम बिना प्रमाण के भी चल सकता है, किन्तु इन्हें याद रखना चाहिये कि इस प्रकार अज्ञानता पूर्वक धर्म के नाम पर किये जाने वाले व्यर्थ प्रा. रंभ का फल अवश्य दुख दायक होगा वहां आपका यह मिथ्या उदाहरण कभी रक्षा नहीं कर सकेगा / अतएव पूजा के लिये होती हुई हिंसा में डाक्टर का उदाहरण एक दम निरर्थक है। यहां तो इसका उल्टा उदाहरण ही ठीक बैठता है। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५-न्यायाधीश या अन्याय प्रर्वतक प्रश्न-जिस प्रकार न्यायाधीश नरहत्या करने वाले को गज्य नियमानुसार प्राणा दण्ड देता हुआ हत्यारा नहीं हो सकता उसी प्रकार मूर्ति पूजा में धर्म नियमानुसार होती हुई हिंसा हानि कारक नहीं हो सकती, फिर ऐसी शास्त्र सम्मत पूजा को क्यों उठाई जाती है? यह दृष्टान्त एक मूर्ति पूजक साधु ने मू० पृ० में होती हुई हिंसा से बचने को दिया था। उत्तर--आपका डाक्टरी से निष्फल होने पर न्यायाधीश के पासन पर बैठने की चेष्टा करना भी निष्फल ही है। यहां भी आपके लिये न्यायाधीश के बजाय अन्याय प्रर्वतक पद ही घटित होता है। सर्व प्रथम यह तर्क ही असंगत है क्योंकि राज्य नीति से धर्म नीति भिन्न है / राज्य नीति जीवन व्यवहार और सर्व साधारण में शांति की सुव्यवस्था स्थापित कर सांसा. रिक उन्नति की साधना के लिये द्रव्य क्षेत्रादि की अपेक्षा से Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती है, और धर्म नीति स्वपर कल्याण मोक्षमार्ग के साथनार्थ होती है, गज्यनीति में मनुष्य के सिवाय प्रायः सभी प्राणियों की हत्या का दण्ड विधान नहीं भी होता है। किन्तु धर्म नीति में सूक्ष्म स्थावर की भी हिंसा को पाप बता कर हिंसा कर्ता को दण्ड का भागी माना है। यहां तक ही नहीं मन से भी बुरे विचार करना हिंसा में गिना गया है, ऐसी हालत में न्यायाधीश का उदाहरण धार्मिक मामलों में अनु. चित है। फिर भी यदि यह बाधा उपस्थित नहीं की जाय तो भी इस दृष्टान्त पर से मूर्ति-पूजक पूजा जन्य हिंसा के अपराध से मुक्त नहीं हो सकते, उल्टे अधिक फंसते / उक्त उदाहरण में मुख्य तीन पात्र हैं, 1. हत्यारा 2. जि. सकी हत्या की गई हो वो और तीसरा न्यायाधीथ / प्रथम पात्र हत्याकारी, जब दुमरे व्यक्ति की हत्या कर डालता है, तब गिरफ्तार होकर नीसरे पात्र न्यायाधीश के सम्मुख अपराध की जांच और उवित दण्ड के लिये नगर रक्षक की ओर से खड़ा किया जाता है। न्यायाधीश अपराधी का अपराध प्रमाणित होने पर योग्य पंचों से परामर्श कर कानून के अनुसार ही दण्ड देता है। न्यायाधीश इस प्रकार के अपराधों के दण्ड देने के योग्य न्याय शास्त्र का अभ्यासी और अधिकार सम्पन्न होता है इसीसे अपराधी को अपराध की शिक्षा न्यायशास्त्रानुसार प्राण दण्ड तक देता हुआ भी हत्यारा दोषी नहीं हो सकता। अपराधी के अपराध का दण्ड देने में भी पर हित सार्वजनिक शान्ति की भावना रही हुई है। यदि अपराधी को Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 144) उचित दण्ड नहीं दिया जाय तो भविष्य में वह अधिक अ. पराध कर जन साधारण को कष्टदाता होगा। दूसरा अन्य लोग भी जब यह नहीं जानेंगे कि अपराधों का दण्ड नहीं मिलता, तो अधिक उत्पात या अनर्थ करने लगे ऐसी सम्भावना है अतएव परहित दृष्टि से नियमानुसार दण्ड देना भी आवश्यक है। ___ न्यायाधीश और खूनी का उदाहरण मूर्ति पूजा की सिद्धि में नहीं किन्तु विरोध में उपयुक्त है, क्यों के न्यायाधीश का उदाहरण तो अपराधी को सप्रमाण दण्ड देने का सिद्ध कर ता है / और हमारे मूर्ति पूजक भाई ईश्वर भक्ति के नाम से स्वेच्छानुसार निरपराध जीवों की हत्या करते हैं। क्या हमारे भाई यह बता सकेंगे कि वे पानी, पुष्प, फल, अग्नि आदि के जीवों को किस अपराध पर प्राण दण्ड देते हैं ? उन्हें दण्ड देने का अधिकार कब और किससे प्राप्त हुआ है ? वे किम धर्मशास्त्रानुसार उनके प्राण लूटते हैं ? यह तो मामला ही उल्टा है, न्यायाधीश का उदाहरण अपराधी को अपराध का दण्ड देना बताता है, और आप करते हैं निरपराधों के प्राणों का संहार ! ... कोई प्राततायी मार्ग चलते किसी निर्बल की हत्या करके पकड़े जाने पर कहे कि मैंने तो उसे अपराध का दण्ड दिया है / तब जिस प्रकार उसका यह झूठा कथन अमान्य होकर अन्त में वह दण्डित होता है, उसी प्रकार निरपराध प्राणियों को धर्म के नाम पर मार कर फिर ऊपर से न्यायाधीश बनने का ढोंग करने वाले भी अन्त में अपराधी के कठहरे में खड़े किये जाकर कर्म रूपी न्यायाधीश से अवश्य अपराध का दण्ड पाएंगे। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 145) नरहत्या कर खूनी कहाने वाला किसी दुष्ट बुद्धि से ही हत्या करते हैं, उस हत्या का कोई भी अनुमोदन नहीं करता, किन्तु जो मूर्ति पूजा में केवल धर्म के नामसे सूक्ष्म और स्थूल जीवों की हत्या कर फिर भी उसे अच्छा समझते हैं और सर्व त्यागी महामुनि कहे जाने वाले उस भारम्भ की अनुमोदना करते हैं, अनुमोदना ही नहीं, कहकर करचाते हैं, यह कितने श्राश्चर्य की बात है ? यदि इसे सरासर अन्धेर भी कहा जाय तो क्या अतिशयोक्ति है? मातरम Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६-क्या ३२मूल सूत्र बाहर का साहित्य मान्य है ? प्रश्न-आप बत्तीस मूल सूत्र के सिवा अन्य सूत्र ग्रंथ तथा उन सूत्रों की टीका, नियुक्ति,चूर्णि,भाष्य दीपिका प्रादि को क्यों नहीं मानते ? नन्दीसूत्र जो कि 32 में ही है उसमें अन्य सूत्रों के भी नामोल्लेख है, फिर ऐसे सूत्र को क्या मूर्ति पूजा का अधिकार होने से ही तो आप नहीं मानते उत्तर-जो शास्त्र, ग्रंथ, या टीकादि साहित्य वीत. राग प्ररूपित द्वादशांगी वाणी के अनुकूल है वही हमारा मान्य है, हमारी श्रद्धानुसार एकादशांग और अन्य 21 सूत्र ऐसे 32 सूत्र ही पूर्ण रूप से वीतराग वचनों से प्रशधित है इसके सिवाय के साहित्य में बाधक अश भी प्रविष्ट हो गया है तथा उपस्थित है, अतएव उनको पूर्ण रूप से मानने को हम तय्यार नहीं हैं / 32 सूत्रों के बाहर भी जो साहित्य है Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (147) और उसका जितना अंश पागम प्राशययुक्त या जिन वचनों को अबाधक है, उसे मानने में हमें कोई हानि नहीं। / ___ हम मूल सूत्र के सिवाय टीका नियुक्ति आदि को मी मानते हैं, किन्तु वे होने चाहिये मूलास्य युक्त, मूल के बिना या मूल के विपरीत मान्य नहीं हो सकते / वर्तमान में ऐसी पूर्ण अबाधक टीका नियुक्ति नहीं होती अभी जितनी टीकाएं या नियुक्ति प्रादि हैं उनमें कहीं 2 तो सर्वथा बिना मूल के ही और कहीं मूल के विपरीत भी प्रयास हुआ पाया जाता है, ऐसी हालत में वर्तमान की टीका नियुक्ति प्रादि साहित्य पूर्ण रूप से मान्य नहीं है। हां उचित और अबाधक अंश के लिये हमारा विरोध नहीं है। वर्तमान की टीकाएं प्राचीन नहीं, किन्तु अर्वाचीन हैं / इस विषय में स्वयं विजयानन्दजी सूरि भी जैन नत्वादर्श पृ० 312 पर लिखते हैं कि____ 'सर्व शास्त्रों की टीका लिखी थी। वो सर्व विच्छेद हो इसी प्रकार प्राचीन टीका का विच्छेद होना स्वयं टीका कार भी स्वीकार करते हैं / इससे सिद्ध हुआ कि इस समय जितनी टीकाएं उपलब्ध हैं वे सभी प्राचीन नहीं किन्तु अ. वर्वाचीन है, इसके सिवाय वर्तमान टीकाकार भी प्रायः चत्य वादी और चैत्यवासी परम्परा के ही थे। तथा टीकाओं में टीकाकार का स्वतन्त्र मंतव्य भी तो होता है। बस चैत्यवाद प्रधान समय में होने से इन टीकाओं में अपने समय के इष्ट भावों का श्राजाना कोई बड़ी बात नहीं है। कितने ही महा शय ऐसे भी होते हैं जो अपने मंतव्य को जनता से मान्य करवाने के हेतु उसे सर्वमान्य साहित्य में मिला देते हैं, इस Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (148) प्रकार भी जैन साहित्य में बिगाड़ा हुआ है। कोंकि स्वार्थ परता मनुष्य से चाहे सो करा सकती है। भाष्य, वृत्ति, नियुक्ति प्रादि में स्वार्थ परताने भी अपना रंग जमाया है। हमारी इस बात को तो श्री विजयानन्द सूरि भी जैन तत्वा. दर्श हिंदी के पृष्ट 35 में लिखते हैं कि 'अनेक तरह के भाष्य, टीका दीपिका रचकर अर्थों की गड़बड़ कर दीनी सो 'अवताइकरते ही चले जाते हैं। __ यद्यपि उक्त कथन वेदानुयाइयों पर है, तथापिइस घृणित कार्य से स्वयं जैनतत्त्वादर्श के कर्त्ता और इनके अन्य मूर्तिपूजक टीकाकार भी वंचित नहीं रहे हैं, ग्रन्थकारों ने भी अपने मन्तव्य के नूतन नियम पागम याने जिनवाणी के एक दम विपरीत घड़ डाले हैं, सर्व प्रथम मूर्ति पूजक समाज के उक्त विजयानन्द सूरि के जैनतत्वादर्श के ही कुछ अवतरण पाठकों की जानकारी के लिए देता हूं, देखियेः (1) 'पत्र, वेल, फूल, प्रमुख की रचना करनी......... शतपत्र, सहस्रपत्र, जाई, केतकी, चम्पकादि विशेष फूलों करी माला, मुकुट, सेहरा, फूलधरादिक कीरचना करे, तथा जिनजी के हाथ में बिजोरा, नारियल, सोपारी, नागवल्ली, मोहोर, रुपैया, लड़ प्रमुख रखना.. " (पृ० 405) (2) प्रथम तो उष्ण प्राशूक जल से स्नान करे, जेकर उष्ण जल न मिले तब वस्त्र से छान करके प्रमाण संयुक्त शीतल जल से स्नान करें। (पू० 399) Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (146) (3) मैथुन सेवके नथा वमन करके इन दोनों में कछुक देर पीछे स्नान करे। (पृ० 400) (4) देव पूजा के वास्ते गृहस्थ को स्नान करना कहा है, तथा शरीर के चैतन्य सुख के वास्ते भी स्नान है। (पृ०४००) (5) सूके हुए फूलों से पूजा न करे, तथा जो फूल धरती में गिरा होवे तथा जिसकी पांखड़ी सड़गई होवे,नीच लोगों का जिसको स्पर्श हुआ होवे, जो शुभ न होवे, जो विकले हुए न होवें."रात को बासी रहे, मकड़ी के जाले वाले, जो देखने में अच्छे न लगे, दुर्गध वाले, सुगंध रहित, खट्टी गंध वाले....."ऐसे फूलों से जिनदेव की पूजा न करणी। (पृ० 413) (6) मन्दिर में मकड़ी के जाले लगे हों उनके उतारने की विधि बताते हुए लिखते हैं कि साधु नोकरों की निय॑न्छना करें."पीछे जयणा से साधु आप दूर करे। (पृ० 417) (7) देव के आगे दीवा बाले......."देवका चन्दन देव का जल""""(पृ० 426) (6) संग निकालते समय साथ में लेने का सामान आदि का विधान भी देखिये आडम्बर सहित बड़ा चरु,घड़ा, थाल, डेरा, तम्बू, कहाहियां साथ लेवे, चलतां कूपादिक को सज करे, तथा गाड़ा Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 150) सेज वाला, रथ, पर्यक, पालखी, ऊँट, घोड़ा प्रमुख साथ लेवे, तथा श्रीसंघ की रक्षा वास्ते बड़े योद्धों को नोकर रक्खें योद्धों को कवच अंगकादि उपस्कर देवे, तथा गीत नाटक वाजिंत्रादि सामग्री मेलवे"......"फूल घर कदली घरादि महापूजा करे....." नाना प्रकार की वस्तु फल एक सौ पाठ, चौवीस, व्यासी, बावन, बहत्तरादि ढोवे, सर्व भक्ष भोजन के थाल ढोवे। (पृ. 474) 6) सुन्दर अंगी, पत्र भंगी, सर्वाङ्गाभरण, पुष्पगृह, कदली गृह, पूतली पाणी के यंत्रादि की रचना करे, तथा नाना गीत नृत्यादि उत्सव से महापूजा रात्रि जागरण करे"" ..." तथा तीर्थ की प्रभावना वास्ते बाजे गाजे प्रौढाडम्बर से गुरु का प्रवेश करावे / (पृ० 474) (10) श्री संघ की भक्ति में- 'सुगन्धित फूल भक्ति से नारियलादि विविध तांबूल प्रदान रूप भक्ति करे' (पृ० 475) सुझ बन्धुत्रो ! देखा मूर्ति पूजक प्राचार्य श्री विजयानन्दजी के धार्मिक प्रवचन-धर्म ग्रन्थ के धार्मिक विधान का नमूना? क्या ऐसा उल्लेख जैन साधु कर सकते हैं ? क्या इसमें से एक बात भी किसी जैनागम से प्रमाणित हो सकती है? नहीं कदापि नहीं। .. फल, फूल, पत्रादि तोड़े, कदली गृह बनावे, स्नान करे, मैथुन सेवन कर स्नान करे, गाड़े, घोड़े सैनिक, शस्त्र, डेरा, तम्बू, चरू, कड़ाही, आदि साथ ले, गीत, नृत्य वाजिंत्रादि करे फवारे छोड़े, तांबूल प्रदान करे, आदि 2 बातों में किस धर्म की प्ररूपणा हुई। इसमें कौनसा आत्महित है। ऐसा प्रत्यक्ष Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 151) माश्रव वर्द्धक कथन जैन मुनि तो कदापि नहीं कर सकता। मेरे विचार से उक्त कथन केवल इन्द्रियों के विषय पोषण रूप स्वार्थ से प्रेरित होकर ही किया गया है, सुगन्धित पुष्पों से घाणेन्द्रिय के विषय का पोषण होता है, और इसी लिए अरुचि कर खट्टी गंध वाले, सड़े बिगड़े ऐसे फूलों का बहिष्कार किया गया है, श्रवणेन्द्रिय के विषय का पोषण करने के लिए वाजिंत्र युक्त, गान, तान पर्याप्त है, नेत्रों का विषय पोषण, सुन्दर अंगी पत्र भंगी. दीप गशि. मनोहर सजाई, यंत्र से जलका विचित्र प्रकार से होड़ना, और नृत्त्य आदि से हो ही जाता है, रसेन्द्रिय के विषय पोषण के लिए तो चरू कढ़ाई आदि की सूचना हो ही गई है, इसी से रूदोष आहार भी उपादेय माना जा रहा है और भक्तों को तांबूल प्रधान करने का संकेत भी कुछ थोड़ा महत्त्व नहीं रखता, शारीरिक सुखों की पूर्ति की तो बात ही निराली है, इसीलिए तो "जैन तत्वादर्श पृ० 462 में यह भी लिख दिया गया है कि- .. ११-साधुओं की पगचंपी करे। इस प्रकार सभी कार्य पांचों इन्द्रियों के विषय पोषक हैं, यदि ऐसे कार्यों के लिए भी ग्रन्थों में विधान नहीं होतो इच्छा पूर्ण किस प्रकार हो सके / धर्म की ओट में सब चल सकता है, नहीं तो व्यापारी समाज अपनी गाढ़ी कमाई के पैसे को कभी भी ऐसे नुकतानकारी कार्य में खर्च नहीं करे, वणिक लोगों से जाति या धर्म के नाम से ही इच्छित ख़र्च करवाया जा सकता है। ऐसे ही कार्यों में यह समाज उदार है। बन्धुओ ? आप केवल विजयानन्दजी के उक्त अवतरण देख कर यह नहीं समझे कि-इनके सिवाय और किसी मूर्ति पूजक Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 152) माचार्य ने ऐसा कथन नहीं किया होगा, यदि अन्य आचार्यों के उल्लेखों का उद्धरण भी दिया जाय तो व्यर्थ में निबन्ध का कलेवर अधिक बड़ा हो जाय, इसलिए इस प्रकार के अन्य अवतरण नहीं देकर आपको चौंका देने वाले दो चार अवतरण अन्य आचार्यों के भी देता हूं। देखिये (12) श्री जिनदत्त सरिजी विवेक विलास (आवृत्ति 5) में लिखते हैं कि "छए रसमा आधार स्वरूप उष्णक्रांति प्रद, कफ, कृमि, दुगंध, भने वायु नो नाश करनार, मुख ने शोभा अर्पनार एवा तांबूल ने जे माणसो खाय छे तेना घरने श्री कृष्णना घरनी पेठे लक्ष्मी छोड़ती नथी " (पृष्ठ 36) (13) अब जरा सावधान होकर स्त्री वशीकरण सम्बन्धी जैनाचार्य का बताया हुआ प्रयोग भी देखिये___ "जे दिशानी पोतानी नासिका बहेती होय ते तरफ कामिन ने आसन ऊपर अथवा शैय्या ऊपर बेसाड़े छे,आम करवाथी है उन्मत्त कामिनिमओ तत्काल मांज वशीभूत थइ जाय छे" (पृष्ठ 160) (14) जे दिवसेभारे भोजनन कयु होय, तृषा तुधादिनी वेदना अंगमां लवलेश पण न होय, स्नानादिक थी परवारी मंगे चन्दन केसर आदि नु विलेपन कयु होय, अने हृदय मां प्रीति तथा स्नेह नी उर्मीमो उछलती होय तोज ते स्त्री ने भोगवी शके छे” (पृष्ठ 166) ___ इस विषय में जैनाचार्यजी ने और भी बहुत लिखा है, किन्तु यहां इतना ही पर्याप्त है, अब जरा इनके कलि-काल सर्वज्ञ श्री Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (153) हेमचन्द्राचार्यजी का भी वशीकरण मन्त्र देख लीजिए आप योग पास्त्र के पांचवे प्रकाश के 242 वें श्लोक में बताते हैं कि आसने शयने वापि, पूर्णागे विनिवेशिताः / वशी भवंति कामिन्यो, न कार्मण मतः परम // 242 अर्थात्-आसन या शयन के समय पूर्णग की ओर बिठाई हुई स्त्रिये स्वाधीन हो जाती है, इसके सिवाय दूसरा कोई कार्मण नहीं। पाठकों ! क्या, ऐसा लेख जैन मुनि का हो सकता है / यदि मापको ऐसी शंका हो तो मेरे निर्देश किये हुए. स्थलों पर मिलान करा लीजिए आपको विश्वास होजायगा कि जो कथन काम शास्त्र का होना चाहिए वह जैन शास्त्र में और वह भी जैन के कलिकाल सर्वज्ञ महान् प्राचार्य कहे जाने वालों के पवित्र कर कमलों से लिखा जाय, यह पानी में आग और अमृत में हलाहल विष के समान है, अब आप ही बतलाइये कि इस प्रकार के धर्म घातक प्रारम्भ और विषय वर्द्धक पोथों को किस प्रकार धर्म ग्रन्थ माने। . ऐसे ही हमारे मूर्ति पूजक बन्धुओं के कथा ग्रन्थों या अन्य ढाले रास चरित्र और महात्म्य ग्रन्थों को भी आप देखेंगे तो वहां भी आप को मूर्ति पूजा विषयक गपोड़े प्रचुरता से मिलेंगे पर ये हैं सब मन गढन्त ही, क्योंकि उभय मान्य और गणधर रचित, स्त्रों में तो इस विषय का संकेत मात्र भी नहीं है। संक्षेप में यहां कुछ गपोड़ों का नमूना भी देखिये:-- .. कुमारपाल राजा के इस विशाल राज्य ऐश्वर्य का कारण निम्न प्रकार बताया है। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 154 ) - नव कोड़ी ने फूलड़े, पाम्यो देश प्रहार / कुमार पाल गजा थयो, बन्या जय जयकार / अर्थात्-केवल नो कोड़ी के फूलों से मूर्ति की पूजा करके ही कुमारपाल अठारह देश का गजा हुआ / ऐसा पूर्व जन्म का इतिहास तो बिना विशिष्ट ज्ञान के कोई नहीं बता सकता, और अवधि आदि विशिष्ट ज्ञान का कथाकार के समय में अभाव था, तब ऐसी पूर्व भव की बात और उस पुष्प पूजा क' ही अठारह देश पर राज्य का फल कैसे जाना गया ? क्या यह मन गढन्त गप्प गोला नहीं है। पाठक स्वयं विचारें तो मालुम होगा कि स्वार्थ परता क्या नहीं कराती ? और देखिये कल्प सूत्र व आवश्यक की कथा है उसमें यह बतलाया है कि-दश पूर्व धर श्रीमद् वज्रस्वामीजी महाराज मूर्ति पूजा के लिए आकाश में उड़कर अन्य देश में गये और वहां से बीम लाख फूल लाकर पूजा करवाई। पाठक वृन्द ! जब श्रीमद्वजस्वामी जैसे दशपूर्वधर महान् आचार्य भी मूर्ति पूजा के लिए लाखों फूल अनेक योजन माकाश मार्ग से जाकर लाये और पूजा करवाई तब माजकल के साधु लोग मन्दिर के बगीचे में से ही थोड़े से फूल तोड़कर पूजा करें तो इसमें क्या बुरी बात है ? इन्हें भी चाहिए कि प्रातः काल होते ही ये वृक्ष और ल तामों पर टूट पड़ें, जितने अधिक फूलों से पूजेंगे उतना अधिक फल होगा, और उतने ही अधिक फूलों के जीवों की इनके मतानुसार दया भी होगी / यदि यह कहा जाय कि-श्री वज्र स्वामी ने उस समय अन्य देशों से पुष्प लाकर शासन की बड़ी भारी प्रभावना की और राजा जैन धर्म Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर के द्वेष को शान्त कर उसे जैन धर्मी बना दिया, यह कथन भी ठीक नहीं, क्योंकि-जैन धर्म का प्रभाव फूलों या फलों से मूर्ति पूजने में नहीं किन्तु, इसके कल्याणकारी प्राणीमात्र को शान्तिदाता ऐसे विशाल एवं उदार सिद्धांत से ही होता है। वज्र स्वामी पूर्वधर और अपने समय के समर्थप्रभावक आचार्य थे, वे चाहते तो अपने प्रकाण्ड पांडित्य और महान् आत्मबल से धर्म एवं जिन शासन की प्रभावना करके जैनत्व की विजय वैजयंति फहरा सकते / क्या लाखों फूलों की हिंसा करने में ही धर्म एवं शासन की प्रभावना है / क्या श्रीमद्वज्रस्वामीजी में शान और चारित्र बल नहीं था, जो वे लाखों पुष्पों के प्राण लूट का असाधुता का कार्य करते। यदि सत्य कहा जाय तो दशपूर्वधर श्रीमवज्राचार्य ने साधुता का घातक और आस्रव वर्धक ऐसा कार्य किया ही नहीं न कल्प सूत्र के मूल में ही यह बात है, किन्तु पीछे से किती महामना महाशय ने इस प्रकार की चतुराई किली गुप्त आशय से की है ऐसा मालुम होता है, इस प्रकार समर्थ आचार्यों के नाम लेकर अन्ध श्रद्धालुओं से आज तक मनमानी क्रियाएं करवाई जा रही हैं। इसी प्रकार त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र, जैन रामायण, पाण्डव चरित्र समरादित्य चरित्र आदि ग्रंथों की कथाओं में सैंकड़ों स्थानों पर मूर्ति की कल्पित कथाएं गढ़ी गई हैं, श्री हेमचन्द्राचार्य ने महावीर चरित्र में तो यहां तक लिख दिया कि “इन्द्रशर्मा ब्राह्मण ने साक्षात प्रभु को भी सचित्त फूलों से पूजा की थी " जो अनन्त चारित्रवान प्रभु सचित्त पुष्प, बीज मादि का स्पर्श भी नहीं करते उनके लिए ऐसा कहना असत्य नहीं तो क्या है ? सूत्रों में अनेक स्थानों पर एक सम्राट से लेकर सामान्य जन समुदाय ट्रक के प्रभु भक्ति का अर्थात् वन्दन Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (156) नमन सेवा करने का कथन मिलता है, किन्तु किसी भी स्थान पर किसी अन्य सचित्त या अचित्त पदार्थ से पूजा करने का उल्लेख नाम मात्र भी नहीं है, फिर श्रीमद् हेमचन्द्रजी ने जो कि से 1700 वर्ष पीछे हुए हैं, सचित्त फूलों से पूजने का हाल किस विशिष्ठ ज्ञान से जान लिया / खैर। अब पाठक इनके पहाड़ों की प्रशंषा दर्शक बचनों की भी कुछ हालत देखें-शत्रुजय पर्वत की महत्ता दिखाते हुए लिखा "ज लहइ अन्न तित्थे, उग्गेण तवेण बंम चरेण / तं लहइ पयत्तेण सेत्तंज गिरिम्मि निवसन्तो॥" ___ अर्थात्-जो फल अन्य तीर्थों में उत्कृष्ट तप और ब्रह्मचर्य से होता है, वही फल उद्यम करके शत्रंजय में निवास करने से होता है। ___ बस चाहिये ही क्या ? फिर तप ब्रह्मचर्य पालन कर काय कष्ट कयों किया जाता है ? जव भयंकर कष्ट सहन करने का भी फल मात्र शत्रंजय पर्वत पर निवास करने समान ही हो तो फिर महान तपश्चर्या कर व्यर्थ शरीर और इन्द्रियों को कष्ट क्यों देना चाहिये ? इस विधान से तो साधु होकर संयम पालन करने की भी आवश्यकता नहीं रहती / और देखियेजंकोड़ीए पुन्नं कामिय-आहार भोइ आजेउ / जं लहइ तत्थ पुन्न, एगो वासेण सेतुंजे // . अर्थात्--क्रोडी मनुष्यों को भोजन कराने का जितना पुण्य Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 157 ) होता है उतना ही पुण्य शत्रुजय पर मात्र एक उपवास करने से ही हो जाता है। ___ हां, है ही बड़े मतलब की बात पैसे बचे और लाखों रुपये के खर्च के बराबर पुण्य भी मिल गया, फिर व्यर्थ ही द्रव्य व्यय कर भूखों को अन्नदान देने की आवश्यकता ही क्या है ? ऐसा सस्ता सौदा भी नहीं कर सके वैसा मूर्ख कौन है ? भाग्य फूटे बेचारे दीन दुखियों के कि जिनके पेट पर यह फल विधान की छुरी फिरी / आगे बढ़िये अठावयं समेए पावा चंाई उज्जत नगेय / वंदित्ता पुन्नं फलं, सयगुणंतपि पुंडरिएं // अर्थात्-अष्टापद जहां श्री ऋषभ देवजी, समेदशिखर जहां बीस तीर्थंकर पावापुरी में श्री महावीर प्रभु चम्पा में श्री वासु पज्यजी गिरनार जहां श्री नेमिनाथजी मोक्ष पधारे इन सभी तीर्थों के वन्दन का जो पुण्य फल होता है उससे भी सो. गुण अधिक फल पुंडरिक गिरि के दर्शन से होता है। __घर और व्यापार के कार्यों को छोड़ कर दूर दूर के अन्य तीर्थों में भटकने वाले शायद मूर्ख ही हैं, जो केवल एक बार शत्रंजय के दर्शन कर अन्य तीर्थों से 'सोगुण अधिक लाभ प्राप्त नहीं कर लेते ! इस विधान से गुजरात, काठियावाड़, महाराष्ट्र, मालवा, आदि देशों के रहने वाले मूर्ति पूजक भाइयों के लिए तो पूरे पौवारह है, इन्हें अब अपने समय और द्रव्य का विशेष व्यय कर बिलकुल थोड़े लाभ के लिए दूर के तीथों में जाने की जरूरत नहीं रही, थोड़े समय और द्रव्य खर्च से अपने पास ही के शत्रुजय पर एक बार जाकर इस विधान के अनुसार महान लाभ प्राप्त कर लेना चाहिये। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 158 ) ब्यापारिक समाज तो सदैव सस्ते सौदे को ही पसन्द करती है। अधिक खर्च कर थोड़ा लाभ प्राप्त करना और थोड़े खर्च से होने वाले अधिक लाभ को छोड़ देना व्यापारियों के लिये तो उचित नहीं है / इसलिए इन्हें अन्य तीर्थों में जाना एक दम बन्द कर देना चाहिए / अब जग सम्हल कर पढ़िये - चरण रहियाई संजय, विमल गिरि गोयमस्स गणि प्रो। पडिला भेय मेग साहण', अड्ढी दीव साहू पडिल भई // अर्थात्-चारित्र से रहित (केवल वेषधारी ) ऐसे साधु को भी विमल गिरि पर गौतम गणधर के समान म्.मझना चाहिए ऐसे एक साधु को प्रतिलाभने से अढ़ाई द्वीप के सभी साधुओं को प्रतिलाभने का फल होता है। (ऐसा ही फल विधान श्रावकों के लिये भी है।) - उक्त गाथा से हमारे मूर्ति पूजक बन्धुओं के लिये अब विनकुल सरल मार्ग हो गया है, न तो गृहस्थाश्रम छोड़ने की आवश्यकता है, और न मेरु समान कठिन पंच महाव्रत पालना भी आवश्यक है, निरर्थक कष्ट सहन करने की प्रा. वश्यकता ही क्या है ? जबकि केवल शत्रुजय पर्वत पर साधु वेष पहन कर कोई भी व्यलिंगी चला श्रावे तो वह गौतम गणधर जैसा बन जाता है इससे अधिक तब चाहिये ही क्या? और भावुक भक्तों को भी किसी ऐसे द्रव्यलिंगी को बुलाकर शीघ्र ही मिष्टान्न से पात्र भर देना चाहिये, बस होगया बेड़ापार / विश्व भर के सुविहित साधुओं को दान देने का महाफज सहज ही प्राप्त होगया, कहिये कितना सस्ता सौदा है ? क्या ऐसा सहज, सुखद, सस्ते से सस्ता और Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (15) महान् लाभकारी मार्ग कोई सुविहित बता सकता है? शायद इसी महान् लाभ के फल विधान को जानकर इससे भी अत्य. धिक लाभ प्राप्त करने को पालीताने में सम्पत्तिशाली भक्तों ने रसोड़े भोजनालय खोल रक्खे होंगे? . .. इस हि पात्र से तो श्रेणिक, कौणिक, कृष्ण, सुभूम और ब्रह्मदत्त आदि महाराजा लोग या तो मूर्ख या मक्खीचूस होंगे, जो ऐसे सस्ते सौदे को भी नहीं पटा सके और तो ठीक पर भगवान महावीर प्रभु का अनन्य भक्त ऐसा सम्राट कौणिक जो प्रभु के सदैव समाचार मंगवाया करता था, और इस कार्य के लिये कुछ सेवक भी रख छोड़े थे, वह एक छोटासा मन्दिर भी नहीं बना सका? कितना कंजुस होगा? इसीसे तो उसे नर्क में जाना पडा ? यदि वह कम से कम एक भी मंदिर बनवा देता तो उसे नर्क तो नहीं देखनी पड़ती ? पाठक बन्धुश्रो ! आश्चर्य की कोई बात नहीं, यह सब लीला स्वार्थ देव की है, यह शक्तिशाली देव अनहोनी को भी कर बताता है / अब ऐसी ही पौराणिक गप्प आपको और दिखाता हूं। ___ मूर्ति पूजक बन्धु शत्रुजय पर्वत के समीर की शत्रुजया नदी के लिये इस प्रकार गाते हैं किकेवलियों के स्नान निमित्त,। ' इशान इन्द्र प्राणी सुपक्ति / नदी शQजय सोहामणी। ... . ___ भरते दीठी कौतुक भणी॥ अर्थात् केवल शानियों के स्नान के लिये इशानइन्द्र स्वर्ग से शत्रु की नदी लाया, यह देखकर भरतेश्वर को प्राश्चर्य Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 160) क्या अब भी कोई गप्प की सीमा है ? हमारे मूर्ति पूजक बन्धु केवलज्ञानी भाषक सिद्धों को भी स्नान कराकर अप. वित्र से पवित्र करना चाहते हैं, सो भी उर्द्धलोक स्वर्ग के जल से ही ! वाह, कहीं केवली भी इस मनुष्य लोक के जल से नहा सकते हैं ? किन्तु इशानेन्द्र ने एक भूल तो अवश्य की, उन्हें यह नहीं सूझा कि इस स्वर्ग:गंगा को मैं मनुष्य लोक में लेजाकर पृथ्वी पर क्यों पटक हूँ / इससे तो वह इस लोक की साधारण नदियों जैसी हो गई ? कमसे कम पृथ्वी से दो चार हाथ तो ऊंची अधर रखना था, जिससे स्वर्ग-गंगा का महत्त्व भी बना रहता, शासन प्रभावना भी होती, और श्राज विचारकों को यह बात गप्प नहीं जान पड़ती। श्राज के सभी विचारक प्रायः इस बात को चंडुखाने की गप्प से अ. धिक मानने को तय्यार नहीं है / इसके सिवाय इस स्वर्ग गंगा (शत्रुजय नदी) ने भी अपना स्वभाव साधारण नदी जैसा बना लिया, विरोधी तो दूर रहे, पर 8-10 वर्ष पहले कुछ भक्तों को भी अपने विशाल पेट में समा लिये। फिर क्योंकर इसे स्वर्ग वासिनी कही जाय ? हां, जिस परम पुनीत नदी में केवल ज्ञानी भी स्नान कर पवित्र होते हैं, वहां सामान्य साधु स्नान कर कर्म मल रहित होने की चेष्टा करें इसमें तो कहना ही क्या है ? किन्तु जब हम इन लोगों के सिद्धान्त देखते हैं तब ऐसा मालूम होता है कि यह लोग भी साधुओं को स्नान करना नहीं मानते, किन्तु साधुओं के लिये स्नान का निषेध करते हैं, और स्नान से संयम भंग होना मानते हैं, वे ही ऐसे गपोड़ोंपर विश्वास कर इनको सत्य माने यह कहां का न्याय है ? Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धुओं यह तो किंचित् नमूना मात्र ही है किन्तु यदि सारे शत्रुजय महात्मयं को भी गपौड़ा शास्त्र कहा जाये तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं है / ऐसे सपौड़ शास्त्रों को किस प्रकार श्रागम वाणी मानी जाय ? इसी लिये इनके बनाये हुए ग्रन्थ प्रामाणिक नहीं माने जाते, और ऐसे ग्रन्थों को अप्रमाणित घोषित कर देना ही साधुमागियों की न्याय परता है। इसी प्रकार 32 सूत्र के बाहर जो सूत्र कहे जाते हैं और जिनका नामोल्लेख नन्दी सूत्र में है उनमें भी महामना (?) महाशयों ने अपनी चतुराई लगा कर असलियत बिगाड़ दी श्रतएव उनके भी बाधक अंश को छोड़ कर आगम सम्मत अंश को हम मान्य करते हैं। जिस महानिशीथ का नाम नंदी सूत्र में है उसमें भी बहुत परिवर्तन होगया है ऐसा उल्लेख स्वयं महानिशीथ में भी है, और मंडल प्रश्नोत्तर कर्त्ता भी लिखते हैं कि ( महानिशीथनो ) पाछलनो भाग लोप थई जवाथी जेटलो मली श्राव्यो तेटलो जिनाचा मुजब लखी दी, इस प्रकार शुद्धि और जिर्णोद्धार के नाम से इन लोगों ने इच्छिन अंश इन खडिन या अखंडित सूत्रों में मिला दिया है। अन्य सूत्रों को जाने दीजिये, अंगोपांग में भी इन महानुभावों ने अनेक स्थानों पर न्यूनाधिक कर दिया है, और अर्थ का अनर्थ भी। इसके सिवाय भावों को तोड़ मरोड़ने में तो Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 162 ) कमी रक्खी ही नहीं है। अंगोपांगादि के मूल में कल्पित पाठ मिलाने के कुछ प्रमाण देने के पूर्व श्री विजयदान सूरिजी विषयक जैन तत्वादर्श पृ० 585 का निम्न अवतरण दिया जाता है,"जिन्होंने एकादशांग सूत्र अनेक वार शुद्ध करे'।। बन्धुओ? यह बार बार अंगशुद्धि कैसी ? और वह भी श्री धर्मप्राण लोकाशाह के थोड़े ही वर्षों बाद श्री विजयदानसूरिजी ने की ! इसमें अवश्य कुछ रहस्य है। यहां हम इतना तो अवश्य कह सकते हैं कि इन शुद्धिकर्ता महोदय ने मूल में पाठान्त श्रादि के रूप से धूल तो मिला ही दी होगी, क्योंकि शुद्धिकर्ता श्री विजयदान सूरिजी श्रीमान् धर्म प्राण लोकाशाह के बाद ही हुए हैं। उधर श्रीमान् लोकाशाह ने भागमोक्त शुद्ध जनत्व का प्रचार कर मूर्ति पूजा के विरुद्ध बुलंद आवाज उठाई, मूर्ति पूजा को सर्वज्ञ अभिप्राय रहित घोषित की और शिथिल हुए माधु समुदाय की भी खबर ली, ऐसी हालत में यदि भागमों को असली हालत में ही रहने दिया जाय तब तो मूर्ति-पूजा का अस्तित्व ही खतरे में था, क्योंकि इन्हीं श्रागमों के बल पर तो लोकाशाह ने मूर्ति-पूजा का विरोध किया था ? इस लिये आगमों में इच्छित परिवर्तन करना विजयदान सूरिजी को सर्व प्रथम आवश्यक मालूम हुअा हो बस करडाली मनमानी! और इस प्रकार आगमों के नाम से जनता को अपने ही जाल में फंसाये रखने में भी सुभीता ही रहा। आगे की बात छोड दीजिये, अभी इन विजयानन्द सूरिजी ने भी पाठ परिवर्तन करने में कुछ कमी नहीं रक्खी, 'सम्यक्त्व शल्योद्धार' Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 163) हिंदी की चौथी आवृत्ति के पृ० 186 में श्री प्राचारांग सूत्र का निम्न पाठ दिया है, देखिये, (1) 'भिक्खु गामाणुगामं दृइज्जमाणे अन्तरासे नई प्रा. गच्छेज्ज एगं पायं जले किच्चा एगं पायं थले किच्चा एवं एहं संतरह। इस प्रकार पाठ लिखकर विशेष में लिखते हैं कि'यहां भगवंत ने हिंसा करने की आज्ञा क्यों दीनी ? उक्त मूल पाठ में श्री विजयानन्दजी ने कई शब्दों को उड़ा कर कैसा निकृष्ट कार्य किया है, यह बताने के लिए मूर्ति पूजक समाज के रायधनपतिसिंह बहादुर के सम्बत 1936 के छपाये हुए आचारांग सूत्र दूसरे श्रुतस्कन्ध पृ० 144 में का यही पाठ दिया जाता है- . "से भिक्खुवा भिक्खुणिवा गामाणुगामं दृइज्जमाणे अंतरासे जंघा संतारिमे उदएसिया से पुवामेव ससीसो वारियं पोदय पमज्जेज्जासे पुवामेव पमज्जित्ता जाव एग पादं जले किच्चा एगं पादं थले किच्चा तो संजया मेव जंघा संता रिमे उदगे श्राहारियं रिएज्जा"। प्रिय पाठक महोदयों ? जरा विजयानन्दजी के दिये हुए पाठ से इस पाठ का मिलान करिये, और फिर हिसाब लगाइये कि-न्यायांभोनिधि, कलिकाल सर्वज्ञ समान कहाने पाले श्री विजयानन्दसूरिजी ने इस छोटे से पाठ में से कितने शब्द चुराये हैं ? एक छोटे से पाठ को इस प्रकार विगाड़कर उसमें से अनेक शब्दों को उड़ाने वाले साधारण अक्षर या Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 164) मात्रादि न्यूनाधिक करने में क्या देर करते होंगे? और एक अावश्यक व अनिवार्य कार्य की यतना पूर्वक करने की विधि को हिंसा करने की आशा बताकर कितना महान् अनर्थ करते हैं ? जबकि-साधारण मात्रा या अनस्वारतक को न्यनाधिक करने वाला अनन्त संसारी कहा जाता है, तब पाठ के पाठ बिगाड़ देने वाले यदि अपनी करणी के फल भोग रहे हों तो आश्चर्य ही क्या है? (2) उक्त महात्मा की दूसरी बहादुरी देखिये-सम्यक्त्व शल्योद्धार चतुर्थावृत्ति पु० 184 में श्रावारांग सूत्र का पाठ इस प्रकार दिया है जाणं वा नो जाणं बदेता' अब रायधनपतिसिंह बहादुर के प्राचारांग का उक्त पाठ देखिए ____'जाणं वा णो जाणं ति वदेज्जा' उक्त शुद्ध पाठ को बिगाड़कर मनःकल्पित अर्थ करते हैं। कि-'जानता होवे तो भी कह देवे कि मैं नहीं जानता हूं, अर्थात् मैंने नहीं देखा है" इस प्रकार प्रत्यक्ष मृषावाद बोलने का विधान करते हैं किन्तु इन्हीं के मतानुयायी श्री पार्श्वचन्द्रजी बाबू के प्राचारांग में भाषानुवाद करते हुए टीका. कार के इस प्रकार झूठ बोलने के अर्थ को असत्य बताकर वहां मौन रहने का अर्थ करते हैं। (3) उक्त सूरिजी ने उसी सम्यक्त्व शल्योद्धार पृ० 185 में श्री भगवती सूत्र शतक 8 उद्देशा 1 का पाठं इस प्रकार लिखा है उपाठ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (165) "मणसच्च जोगणिया वय मोस जोग परिणया" और इस पाठ का अर्थ करते हैं कि-"मृगपृच्छादिक में मन में तो सत्य है और वचन में मृषा है"। ___ उपरोक्त पाठ और अर्थ दोनों असत्य है भगवती सूत्र के उक्त स्थल पर इस प्रकार का पाठ है ही नहीं, फिर यह नूतन पाठ और इच्छित अर्थ कहां से लिया गया?यह विजयानन्द जी ही जानें। (4) उपासकदशांग के आनन्दाधिकार में-'अएण उस्थिय परिगहियाणि' के प्रागे "अरिहंत' शब्द अधिक बढ़ा दिया गया है। (5) उववाई सूत्र में चम्पा नगरी के वर्णन. में-'बहुला अरिहंत चेइयाई' पाठ तढ़ा दिया, कितने ही मू० पू० विद्वान तो इसे पाठान्तर मानते हैं, और कुछ लोग पाठान्तर मानने से भी इन्कार करते है। अभी थोड़े दिन पहले इन लोगोंकी 'माक्षेप निवारिणी समिति के ओर से 'जैन सत्य प्रकाश' नामक मासिक पत्र प्रकट हुश्रा है, उसके प्रारम्भ के तीसरे अङ्क पृ० 76 में 'जिन मन्दिर' शीर्षक लेख में श्री दर्शनविजयजी, उववाई का पाठ इस प्रकार देते हैं आयारवंत चेय विविह सन्निविट्ठ बहुला सूत्र ? : और अर्थ करते हैं कि-'चम्पा नगरी सुन्दर चैत्यों तथा सुन्दर विविधता वाला सन्निवेशोथी युक्त छे' / ते चम्पा वर्णनमां पाठान्तर छ केअरिहंत चेइय जण-वई-वि परिण विष्ट बहुला-सूत्र 1 अर्थ-चम्पापुरी अरिहंत चैत्यो, मानवीओ अने मुनियो ना सन्निवेशो बड़े विशाल छे। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 166) इस प्रकार श्री दर्शनविजयजी ने मून पाठ और पाठान्तर बताया है, हमारे विचार से तो यह पाठान्तर भी इच्छापूर्वक बनाकर लगाया है। __ श्रीमान् दर्शनविजयजी भी मूल पाठ में से एक शब्द खा गये और पाठान्तर का अर्थ भी मनमाना कर दिया। देखिये शुद्ध मूल पाठ आयारवन्त चेहय 'जुबइ विविह समिणविट्ट बहुला / इस छोटे से पाठ में से 'जुवइ' शब्द श्रीमान् दर्शनविजयजी ने क्यों उड़ाया / यह तो वे ही जानें, हमें तो यही विश्वास होता है कि यह शब्द जानबूझ कर ही उड़ाया गया है क्यों कि इस शब्द का टीकाकारने "युवति वेश्या" अर्थ किया है जो श्री दर्शन विजयजी को चैत्य के साथ होने से कुछ बुरा मालुम दिया होगा। किन्तु इस प्रकार मनमाना फेरफार करना यह तो प्रत्यक्ष में सैद्धान्तिक कमजोरी सिद्ध करता है। ___यहां एक यह भी विचारणीय बात है कि इनके आचार्यों को जब 'आयारवन्त चेइय' शब्द से जिन मन्दिर-मूर्ति अर्थ इष्ट नहीं था तभी तो इन लोगों ने पाठान्तर के बहाने यह नूतन पाठ बढ़ाया है / इस से यह सिद्ध हुआ कि-चैत्य शब्द का अर्थ जिन मन्दिर-मूर्ति नहीं होकर यक्षालय भी है। (6) ज्ञाताधर्म कथांग में द्रौपदी के सोलहवें अध्ययन में "रामोत्थुणं " आदि पाठ अधिक बढ़ाया हुआ है। इस प्रकार साहसिक महानुभावों ने अपने.मत की सिद्धि के लिए मूल में धूल मिलाकर जनता को बड़े भ्रम में डाल दिया है। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 167 ) मूल सूत्र के नाम से जो गप्पें उड़ाई गई हैं अब उनके भी कुछ नमूने दिखाये जाते हैं / लीजिये (1) सम्यक्त्वशल्योद्धार पृ० 6 के नोट में उत्तराध्ययन सूत्र का नाम लेकर एक गाथा लिखी है वो इस प्रकार है तीए वि तासि साहूणीणं समीवे गहिया दिक्खाकय सुव्वयनामा तव संजम कुणमाणी विहरइ / बन्धुओ ! उत्तराध्ययन के इवें अध्ययन की कुल 62 गाथाएं हैं, किन्तु इन सभी काव्यों में उक्त काव्य का पता ही नहीं, फिर उत्तराध्ययन सूत्र के नाम से गप्पं क्यों उड़ाई गई? (2) मूर्ति मण्डन प्रश्नोत्तर पृ० 237 में सूत्र कृतांग श्रुतस्कन्ध अध्ययन 6 का नाम लेकर माद्रकुमार के सम्बन्ध में लिखते हैं कि सूत्र मां तो 'प्रथम जिन पडिमा' एम स्पष्ट प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभ देव स्वामी नी प्रतिमानो पाठ छे"। __ यह भी एक पूर्ण रूप से गप्प ही है मूल सूत्र में यह बात है ही नहीं। (3) पुनः उक्त ग्रन्थकार पृ० 221 में एक गाथा की दुर्दशा इस प्रकार करते है प्रारम्मे नत्थी दया, विना प्रारम्भ न होइ महापुन्नो। पुन्ने न कम्म निज्जरे रान कम्म निज्जरे नत्थी मुक्खी // अर्थात्-प्रारभ्भ में दया नहीं, धिना प्रारम्भ के महापुण्य नहीं होता, पुण्य से कर्म की निर्जरा होती है, निर्जरा बिना मोक्ष नहीं मिल सकता। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 168 ) ___अब उक्त गाथा इन्हीं के मतानुयायी श्रावक भीमसी माणेक के छपवाये हुए 'पर्युषण पर्वनी कथाओ' नामक ग्रन्थ के पृ० 53 में इस प्रकार है आरम्भे नत्थी दया, महिला संगेण नासए : संकाए सम्मतं"....."पवज्जा प्रत्थगहणे // यद्यपि इस शुद्ध पाठ में भी अशुद्धि है किन्तु इससे यह तो सिद्ध हो गया कि मृति मण्डन कारने न जाने किस अभिप्राय से इस गाया के तीन चरण तोड़ कर उनकी जगह ये पद विठा दिये है। __ये तो इनके मिथ्या प्रयासों के कुछ नमूने मात्र हैं / अब थोड़ा सा अर्थ का अनर्थ करने के भी कुछ प्रमाण देखिये (1) आवश्यक सूत्र के लोगस्स के पाठ में आये हुए " महिया " शब्द का अर्थ फूलों से पूजा करने का लिखकर अनर्थ ही किया है। (2) निशीथ, बृहदूकल्प, व्यवहार, कल्प सूत्र आदि में आये हुए "विहार भूमिवा" शब्द का अर्थ स्थंडिल भूमि होता है, किन्तु इससे विरुद्ध " जिन मन्दिर " अर्थ कर इन्होंने यह भी एक अनय किया है। (3) सूत्रों में " जाए " शब्द आया है जिसका अर्थ " याग यज्ञ " होता है, जैन सिद्धांतों को भाव यज्ञ ही मान्य है, द्रव्य नहीं, प्रश्न व्याकरण में दया को यज्ञ कहा है, तथा भगवती सूत्र श०१८ उद्देशा 20 में सोमिल ब्राह्मण के प्रश्नों के उत्तर में प्रभु ने क्रोधादि के नाश को यज्ञ कहा है इसी प्रकार शाता धर्म कथांग अ० 4 में इन्द्रिय नो इन्द्रिय यज्ञ बताया है, इन सभी का भाव आत्मोत्थान रूप क्रियामों भाव यज्ञ-से ही Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, इस प्रकार जैन धर्म को मान्य ऐसे भाव यज्ञ को स्पष्ट व्याख्या होते हुए भी मूर्ति पूजक ग्रन्थकारों ने कल्प सूत्र में इसका " जिन प्रतिमा " अर्थ कर दिया, यदि यह शब्द किसी कथानक में द्रव्य यज्ञ को बताने वाला होतो भी वहां " मूर्ति " अर्थ तो किसी भी तरह नहीं हो सकता, ऐसे स्थान पर भी " हवन " अर्थ ही उपयुक्त हो सकता है, अतएव यह भी अर्थ का अनर्थ ही है। (4) यज्ञ की तरह ये लोग " यात्रा" शब्द का अर्थ भी पहाड़ों में भटकना बतलाते हैं किन्तु जैन मान्यता में यात्रा शब्द का अर्थ ज्ञानादि चतुथ्य की आराधना करना बताया है, जिसके लिए भगवती, ज्ञाता, स्पष्ट साक्षी है। अतएव यात्रा शब्द का अर्थ भी पहाड़ों में भटकना जैन मान्यता और आत्म कल्याण के लिए अनर्थ ही है। (5) व्यवहार सूत्र में सिद्ध भगवान की वैयावृत्त्य करने का कहा है, जिस का अर्थ मूर्ति मण्डन प्रश्नोत्तरकार पृ० 150 में निम्न प्रकार से करते है, ____ “सिद्ध भगवान् नी वैयावच्च ते तेमनं मन्दिर बंधावी, मूर्ति स्थापन करी वस्त्राभूषण, गंध पुष्प, धूप, दीपेकरी अष्ट प्रकारी, सत्तर कारी पूजा करे तेने कहे छे"। ___ इस प्रकार मन माना अर्थ बनाकर केवल अनर्थ ही किया (6) श्री आत्मारामजी ने हिंदी सम्यक्त्वशल्योद्धार में भगवती सूत्र श० 3 उ०५ का पाठ लिखकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि-"संघ के कार्य के लिए लब्धि फोड़ने में प्रायश्चित नहीं " किन्तु इस विषय में जो मूल पाठ दिया Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 170) गया है उसका यह अर्थ नहीं हो सकता, वहां तो भवितात्मा अनगार की शक्ति का वर्णन है, जिसमें श्रीगौतमस्वामीजी के प्रश्न करने पर प्रभु ने फरमाया कि__ " भावितात्मा अनगार स्त्री रूप बना सकते हैं, स्त्री रूप से सारा जंबूद्वीप भर सकते हैं, पताका, जनेऊ धारण कर, तलवार, ढाल (या तलवार का म्यान) हाथ में लेकर आकाश में उड़ सकते हैं / घोड़े का रूप बना सकते हैं / इत्यादि इसके बाद यह बताया है कि-आत्मार्थी मुनि ऐसा नहीं करते और करेंगे वे "मायावी " कहे जावेंगे, उन्हें प्रायश्चित लेना पड़ेगा बिना प्रायश्चित के वे विराधक-आज्ञाबहार होंगे। इस प्रकार के कथन से श्री विजयानन्दजी लब्धि फोड़ने की सिद्धि किस प्रकार कर सकते हैं ? यहाँ तो लब्धि फोड़ने वाले को विराधक और मायावी कहा है फिर यह अन्याय क्यों ? और बिना किसी आधार के ही " संघका काम पड़े तो लब्धि फोड़े" ऐसा क्यों कहा गया ? ___ क्या साधु स्त्री रूप बना कर या घोड़ा बनकर या तलवार लेकर संघ की भक्ति या रक्षा करे ? यह माया चारिता नहीं है क्या ? स्त्री रूप से संघ सेवा किस प्रकार हो सकती है ? आदि प्रश्नों का यहां समाधान अत्यावश्यक हो जाता है। वास्तव में सूत्र में ऐसे कामों से शासन सेवा नहीं पर शासन विरोध और मायाचारीपन कहा गया है अतएव यह भी अनर्थ ही है। (7) मूर्ति मण्डन प्रश्नोत्तर पृ० 278 में ठाणांग सू आये हुए " श्रावक " शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है___ "ठाणांग सूत्र मां श्रावक शब्द नो अर्थ कयों छे त्यां (1) जिन प्रतिमा (2) जिन मन्दिर (३)शाल (4) साधु (5) Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (171) साध्वी (6) श्रावक (7) श्राविका ए सात क्षेत्रे धन खर्च वानों हुकम फरमाव्यों छे” / ___ इस प्रकार श्रावक शब्द का मन कल्पित ही अर्थ किया गया है / जब कि-सूत्रों में स्पष्ट श्रावक के कर्तव्य बताये गये है उन सब की उपेक्षा कर मनमाना अर्थ करना साफ अनर्थ है। (E) इसी प्रकार उत्तराध्ययन सूत्र के पाठ का अर्थ करते हुए मूर्ति मण्डन प्रश्नोत्तर पृ० 278 में लिखा है कि___"उत्तराध्ययनना 28 मा अध्ययन मां कह्या मुजब सम्यक्त्व ना आठ आचार सेवन कर्या छे तेमां सात क्षेत्र पण आवी मया, कारण के ते आचारों मां स्वधर्मी वात्सल्य तथा प्रभावना ए बे प्राचार कह्या छे, तो स्वधर्मी वात्सल्य मा साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, ए चार क्षेत्र जाणवा, ने प्रभावना मां जिन बिंब, जिन मन्दिर तथा शाल, ए त्रण प्रावी गया, एमाणन्द कामदेवादि तथा परदेशी राजाए पण करेल छे"। इस प्रकार मन्दिर मूर्ति सिद्ध करने के लिए अर्थ का अनर्थ किया गया है। (१)श्री भवगती सूत्र का नाम लेकर मूर्ति मण्डन प्रश्नोत्तर पृ० 287 में जो अनर्थ किया गया है वह भी जरा देख लीजिए " स्थायर तीर्थ ते शेव्रुजय, गिरनार, नन्दीश्वर, अष्टापद, आबू, सम्मेतशिखर, वगेरे छ, तेनी जात्रा जंघाचारण, विद्याचारण मुनिवरो पण करे छे, एम श्री भगवती सत्र मां फरमाव्यु छे"। - यह भी अनर्थ पूर्वक गप्प ही है / (10) प्रश्न व्याकरण के प्रथम आस्रव द्वार में हिंसा के कथन में देवालय, चैत्यादि के लिए हिंसा करने वाले को मन्द Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धि और नर्क गमन करने वाले बताये हैं, वहां उक्त मूर्ति मण्डन प्रश्नोत्तरकार अपना बचाव करने के लिए उन देवालयों को म्लेच्छों, मच्छी मारों, यवनों आदि के बताते हैं, और इस बात को सिद्ध करने के लिए प्रश्न व्याकरण का एक पाठ भी निम्न प्रकार से पेश करते हैं__ "कयरे जे तेसो परिया मच्छवं धासा उणिया जाव कूर कम्मकारी इमेव बहवे मिलेख जाति किते सब्वे जवणा" | (पृ० 282) उक्त पाठ भी स्वेच्छा से घटा बढ़ा कर दिया गया है, इस प्रकार का पाठ काई प्रश्नव्याकरण में नहीं है और न यह मन्दिर मूर्ति से ही सम्बन्ध रखता है, इस प्रकार मन माना अंश इधर उधर से लेकर मिला देना सरासर अनर्थ है। (11) श्री विजयानन्द सूरिजी “जैनतत्वादर्श' पृ० 231 में लिखते हैं कि___ "श्रावकों जिन मन्दिर बनाने से, जिन पूजा करने से सघम्मिवत्सल करने से, तीर्थयात्रा जाने सें, रथोत्लव, अठाई उत्सव,प्रतिष्ठा, अरु अंजन शलाका करने से, तथा भगवान के सन्मुख जाने से, गुरु के सन्मुख जाने से, इत्यादि कर्तव्य से, जो हिंसा होवे सो सर्व द्रव्य हिंसा है, परन्तु भाव हिंसा नहीं, इसका फल अल्प पाप अरु बहुत निर्जरा है, यह भगवती सूत्र में लिखा है, यह हिंसा साधु आदि करते हैं"। इस प्रकार श्री विजयानन्दसूरि ने एकदम मिथ्या ही गप्प मारदी है, भगवती सूत्र में उक्त प्रकार से कहीं भी नहीं लिखा है, हां, शायद सूरिजी ने अपनी कोई स्वतंत्र प्राइवेट, भगवती बनाली हो, और उसमें ऐसा लिखकर फिर दूसरी को इस प्रकार बताते रहे हों तो यह दूसरी बात है ? Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 173 ) . इस प्रकार मन्दिर व मूर्ति के लिए जिन के सूरिवर्य भी अर्थ के अनर्थ और मिथ्या गप्पें लगाते रहें, वहां सत्य शोधन की तो बात ही कहां रहती है ? इस प्रकार अनेक स्थलों पर मनमानी की गई है, यदि कोई इस विषय की खोज करने को बैठे तो सहज में एक बृहत ग्रन्थ बन सकता है। प्रतएव टस विषय को यहीं पूर्ण कर इनकी टीका नियुक्ति प्रादि की विपरीतता के भी कुछ प्रमाण दिखाये जाते हैं टीका, भाष्यादि में विपरीतता कर देने के दुःख से दुखित हो स्वयं विजयानन्दसूरिजी जैन तत्वादर्श पृ० 35 में लिखते हैं कि "अनेक तरह के भाष्य, टीका, दीपिका, रचकर अर्थों की गड़बड़ कर दीनी सो अव ताई करते ही चले जाते हैं"। यद्यपि श्री विजयानन्द जी का उक्त आक्षेप वेदानुयायियों पर है किन्तु यही दशा इन मूर्ति पूजक आचार्यों से रचित टीका नियुक्ति भाष्य प्रादि का भी है, उनमें भी कर्ताओं ने अपनी करतूत चलाने में कलर नहीं रक्खी है. जबकि स्वयं विजयान्द जी ने मूल में प्रक्षेप करते कुछ भी संकोच नहीं किया, और कई स्थानों पर अर्थों के अनर्थ कर दिये जिनके कुछ प्रमाण पहले दिये जा चुके हैं. तर टीका भाष्यादि में गड़बड़ी करने में तो भय ही कौनसा है ? जैसी चाहें वैसी व्याख्या करदें। श्री विजयानन्दजी का पूर्वोक्त कथन पूर्ण रूपेण इनकी समाज पर चरितार्थ होता है। श्री विजयानन्दसूरि जैन तत्वादर्श पृ० 312 पर लिखते हैं कि- .. Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (174) "प्रभावक चरित्र में लिखा है कि-सर्व शास्त्रों की टीका लिखी थी वो सर्व विच्छेद होगई"। .. ___ उक्त कथन पर से यह तो सिद्ध हो गया कि-प्राचीन टीकाएँ जो थी वो विच्छेद--नष्ट हो चुकी, और अब जो भी टीकाएं श्रादि हैं वे प्रायः नूतन टीकाकारों के मत पक्ष में रंगी हुई हैं, और अनेक स्थलों पर मूलाशय विरुद्ध मनमानी व्याख्या भी की गई है, इन मन्दिर मूर्तियों के लिये ही कितनी मनमानी की गई है, इसके कुछ नमूने देखिये (1) प्राचारांग की नियुक्ति में तार्थ यात्रा करने का बिना मूल के लिख दिया है। (2) सूत्र कृतांग, उपासकदशांग आदि की टीका में भी वृत्तिकारों ने मूर्ति पूजा के रंग में रंग कर सर्वज्ञ नहीं होते हुए भी सैकड़ों ही नहीं हजारों वर्ष पहले की बात सर्वज्ञ कथित आगमों से भी अधिक टीकाओं में लिख डाली। (3) कल्पसूत्र के मूल में साधुओं के चातुर्माप करने योग्य क्षेत्र में 13 तेरह प्रकार की सुविधा देखन की गणना की गई है, उनमें मंदिर का नाम तक भी नहीं है, किन्तु टीकाकार महोदय ने मूल से बढ़कर चौदहवां जिन मंदिर की सुविधा का वचन भी लिख मारा है। (4) अावश्यक नियुक्ति में भरतेश्वर चक्रवर्ती ने अष्टापद पर श्री ऋषभदेव स्वामी और भविष्य के अन्य 23 तीशंकरों के मंदिर मूर्ति बनवाये ऐसा बचन बिना ही मूल के लिख डाला है। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 175) (5) उत्तराध्ययन की नियुक्ति में श्री गौतम स्वामी ने साक्षात् प्रभु को छोड़कर अष्टापद पहाड़ पर सूर्य किरण पकड़ कर चढ़े, ऐसा बिना किसी मूलाधार के ही लिख दिया (6) श्रावश्यक नियुक्तिकार ने श्रावकों के मंदिर बनवाने पूजा करने आदि विषय में जो अडंगे लगाये हैं. ये सब बिना मूल के ही झाड़ पैदा करने बराबर है। इस विषय में और भी बहुत लिखा जा सकता है किन्तु ग्रंथ बढ़ जाने के भय से अधिक नहीं लिख कर केवल मूर्ति पूजक समाज के विद्वान पं० बेचरदासजी दोशी रचित जैन साहित्य मां विकार थवाथी थयेली हानि नामक पुस्तक के पृ० 1.3 का अवतरण दिया जाता है, पंडितजी इन टीकाकारों के विषय में क्या लिखते हैं, जरा ध्यान पूर्वक उनके हृदयोद्गारों को पढिये। ___ "मारुं मानवू छेके कोई पण टीकाकारे मूलना प्राशय ने मूलना समय ना वातावरण नेज ध्यानमां लईने स्पष्ट करवो जोइए, श्रारीते टीकाकरनारो होय तेज खरो टीकाकार होइ शके छे, परन्तु मूल नो अर्थ करती वखते मौलिक समय ना वातावरण नो ख्याल न करतां जो श्रापणी परिस्थिति ने ज अनुसरिए तो ते मूलनी टीका नथी पण मूलको मूसल करवा जे छ, हुं सूत्रोनी टीकाओ सारी रीते जोई गयो छु, परन्तु तेमां मने घणे ठेकाणे मूलनुं मूसल करवा जेवू लाग्यु छे, अने तेथी मने घणुं दुःख थयुं छे, प्रा संबंधे अहिं विशेष लखवू अप्रस्तुत छ, तो पण समय श्राव्ये सूत्रों ने टीकाश्रो ए विषे हुं विगतवार हेवाल आपवानुं मारूं कर्तव्य चूकीश नहिं Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 176) तो पण आगल जणावेला श्री शीलांक सूरिए करेला श्राचा. गंग ना केटलाक पाठोना अबला अर्थो उपरथी अने चैत्य शब्द मा अर्थ उपर थी श्राप की कोई जोई शक्या हशोके टीकाकारो ए अर्थो करवा मां पोताना समय नेज सामोराखी केटलुं बधुं जोखम खेडयु छ / हुं आ बावत ने पण स्वीकार करू छु के जो महेरबान टीकाकार महाशयोए जो मूल हो अर्थ मून नो समय प्रमाणेज कयों होत तो जैन शाशन मां वर्तमान मांजे मतमतांतरो जोबा मां श्रावे छे ते घणा अोछा होत, अने धर्म ने. नामे श्रावू अमासन अंधारूं घणुं अोछु व्यापत" श्रागे पृ० 131 में लिखते हैं कि___ जे बात अंगो ना भूल गटो मां नथी ते वात तेना उपांगोमां, नियु कनोमा, भाष्योमां, चूर्णिो मां, श्रवचूर्णिो मां, अने टीकाओ मां शीरीते होइ शके ? इस प्रकार जब मूल की टीकात्रों की यह हालत है तब स्व. तन्त्र ग्रन्थों की तो बात ही क्या ? इन बंधुओं ने मूर्ति पूजा को शास्त्रोक्त सिद्ध करने के लिये कितने ही नूतन ग्रन्थ बना डाले हैं / पहाड़ पर्वतों की महिमा भी खूब भर पेट कर डा. ली है, अन्य को शिक्षा देने में कुशल ऐसे श्री विजयानन्दजी ने स्वयं 'अज्ञानतिमिर भास्कर' नामक ग्रन्थ के पृ० 18 में 'तीर्थों का महात्म्य सो टंक साल है' शीर्षक से स्पष्ट लिखते हैं कि___ "नदी, गाम, तालाब, पर्वत, भूमि इत्यादिकं जो वेदों में. नहीं हैं तिनके महात्म्य लिखने लगे तिनकी कथा जैसी 3 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुगनी होती गई तैसी 2 प्रमाणित होती गई, और फल भी देने लगी............"यह टंकसाल अब भी जारी है। श्री विजयानन्द सूरि के उक्त शब्द शत्रुजय गिरनारादि पहाड़ों के विषय में भी अक्षरशः लागू होते हैं, क्योंकि इनके महात्म्यादि के ग्रन्थ कथाएं तथा मान्यता सभी आगम विरुद्ध होने से मन कल्पित पाखरड और अन्ध विश्वास से श्रोत प्रोत है, और साथ ही स्वार्थी के स्वार्थ साधन का सुलभमार्ग भी। इसके सिवाय इन लोगों ने स्वार्थ और मान्यता में कुठा. राघात होने के भय से एक नया मार्ग और भी निकाला है वो यह है कि जिस ग्रंथ से अपने माने हुए पंथ को वाधा पहुंचती हो, उसके अस्तित्व एवं मान्यता से भी इन्कार कर देना, जैसे कि गत वर्ष वि० सं० 1662 लघ शतावधानी म० श्रीमान् सौभाग्यचन्द्रजी ( संतवालजी) की जैन प्रकाश पत्र में 'धर्म प्राण लोकाशाह' नामक ऐतिहासिक न भाव-पूर्ण लेख माला प्रकाशित हुई, उसमें लेखक ने मूर्ति-पूजा यह धर्म का अंग नहीं है इसकी सिद्धि करने को श्रीमद् भद्रगहु स्वामी रचित व्यवहार सूत्र की चूलिका के पांचवे स्वप्न फल का प्रमाण दिया, जिसके प्रकट होते ही मूर्ति-पूजकों के गुरू पं० न्यायविजयजी महाराज एक दम आपे से बहार होगये। और भावनगर से मूर्ति पूजक पत्र 'जैन' में हिम्मत और बहादुरी पूर्वक उन्होंने इस प्रकार छपवाया कि Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 178 ) ___ 'श्रीमद् भद्रबाहु स्वामी कृत व्यवहार सूत्र चूलिका छेज नहिं . . ."ए तो संतवाल रचित छे...."बिलकुल जाली तथा नवीन सूत्र छे...... कल्पित छे ..... "आदि / यद्यपि इन महात्मा का उक्त कथन एकान्त मिथ्या है, तथापि इन की दूरदर्शिता का पूर्ण परिचायक यदि ये ऐसा नहीं करे तो कथित मूर्ति पूजा की कलितता स्पष्ट होकर इनकी जमी हुई जड़ खोखली होजाय इसके सिवाय ( उक्त ग्रन्थ को कल्पित कहे सिवाय) इनके पास अपने बचाव का दूसरा मार्ग भी तो नहीं है। . अब यह लेखक न्याय का गला घोंटने वाले इन न्याय विजयजी के उक्त लेख को मिथ्या लिद्ध करने के लिये इन्हीं के मतानुयायी और हमारे पूर्व परिचित मूर्ति-मंडन प्रश्नोतरकार के निम्न लिखित प्रमाण देता है, कि जिन्हें देखकर श्रीन्यायविजयजी को व्यवहार सूत्र की चूलिका श्री भद्रबाहु स्वामी रचित है ऐसा सत्य स्वीकार ने की सूझे / और जनता इनके असत्य कथन पर विश्वास नहीं कर प्र. माण युक्त सत्यंबात को स्वीकार करें, देखिये, मूर्ति मंडन प्रश्नोत्तर (1) श्री भद्रबाहु स्वामीए पण श्री व्यवहार चूलिका मां प्रविधिनो निषेध करी विधिनो आदर कर्मो छ। (पृ०२६३) (2 श्री भद्रश स्वामी वली व्यवहार सूत्र नी चूलिका मां चोथा स्वप्न ना अर्थ मां कहे के के .......' (पृ. 264) . (3) श्री भद्रबाहु स्वामीए व्यवहार सूत्र नी चूलिका मां द्रव्य लिंगी चैय स्थापन करवा. ल गीजरोत्यां मूर्ति स्थापना नो अर्थ कयों छे, ( पृ० 286 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (176 ) (4) श्री वल्लभविजयजी गप्प मालिका में लिखते हैं कि श्री भद्रबाहु स्वामी ने व्यवहार सूत्र की चूलिका में विघि पूर्वक प्रतिष्ठा करने का कहा है। इन प्रमाणों पर पाठक विचार करें, इनसे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि व्यवहार सूत्र की चूलिका श्री भद्रबाहु स्वाभी रचित है, इसे अस्वीकार कर श्री संतवाल रचित, कल्पित तथा जाली कहने वाले स्वयं जालबाज और अविश्वास के पात्र ठहरते हैं / इस प्रकार एक सत्य वस्तु को असत्य कहकर तो श्री न्यायविजयजी ने न्याय का खून ही किया है। ऐसी अनेक करतूते मात्र अपने मन कल्पित मत को जनता के गले मढ़ने के लिये की जाती है, इसलिये तत्वगवेषी महानुभावों को इनसे सदैव सावधान रहना चाहिये। अब यह सेवक तत्वेच्छुक महानुभावों से निवेदन करता है कि वे स्वयं निर्णय करे, सत्य का स्वीकार करते हुए स्वपर कल्याणकर्ता बने। मू० पू० प्रमाणों से मूर्ति-पूजा की अनुपादेयता यह तो मैं पहले ही बता चुका हूं कि मूल अंगोपांगादि 32 सूत्रों में कहीं भी मूर्ति पूजा करने, मन्दिर बनवाने, पहाडों में भटकने श्रादि की आशा नहीं है, और न किसी साधु या श्रावक ने ही वैसा किया होऐसा उल्लेख ही मिलता है। सूत्रों मेजहां 2 श्रावकों का वर्णन आया है वहां उनके प्रभु वन्दन धर्मश्रवण, व्रताचरण, व्रतपालन, कष्ट सहन श्रादि का कथन तो है। किन्तु मूर्ति पूजा के सम्बन्ध में तो एक अक्षर भी Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 180) नहीं है / कोणिक राजा प्रभु का परम भक्त था. सदेव प्रभु के समाचार मंगवाया करता था। सम्वाद प्राप्त करने को उसने कितने ही नौकर रख छोरे थे / जो कि प्रभु के विहारादि के समाचार हमेशा पहुंचाया करेंऐसा औपपातिक सूत्र में कथन है, किन्तु ऐसे स्थान पर भी यह नहीं लिखा कि कौणिक महाराज ने एक छोटासा भी मन्दिर बनाया हो, या मूर्ति के दर्शन पूजन करता हो, इस पर से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि मूर्ति-पूजा शास्त्रोक्त नहीं है। हमारे इतने प्रयास से मूर्ति-पूजा अनावश्यक और वीत. राग धर्म के विरुद्ध प्रमाणित हो चुकी, तथापि अब मू० पू० की हेयता दिखाने को मूर्ति-पूजक समाज के मान्य ग्रन्थों के ही कुछ प्रमाण देकर यह अनावश्यक सिद्ध की जाती है। (1) सव प्रथम श्री विजयानन्द सूरिजी के निम्न प्रश्नोसर को ध्यान पूर्वक पढिये। प्रश्न-तुमने कहा है जो सूत्र में कथन करा है सो प्ररूपण करे, जो पुनः सूत्र में नहीं है और विवादास्पद लोगों में है। कोई कैसे कहता है और कोई किस तरह कहता है, तिस विषयक जो कोई पूछे तब गीतार्थ को क्या करना उचित है ? उत्तर-जो वस्तु अनुष्ठान सूत्र में नहिं कथन खरा है, करने योग्य चैत्य वन्दन आवश्यकादि षत् और प्राणा तिपात की तरह सूत्र में निषेध भी नहीं करा है, और लोगों Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (181) में चिरकाल से रूढिं रूप चला पाता है, सो मी संसार मीरु गीतार्थ स्वमति कल्पित दूषणे करी दृषित न करे। . (अशान तिमिर भाष्कर पृ० 264 ) इस उत्तर में यह स्पष्ट कहा गया है लि-चैत्यवंदन सूत्र में नहीं कहा है, पुनः स्पष्टीकरण देखिए__"कितनीक कियां को जे पागम में नहिं कथन करी है तिनको करते हैं, और जे आगम ने निषेध नहीं करी हैचिरंतन जनों ने प्राचरण करी है तिनको प्रविधिकह करके निषेध करते हैं, और कहते हैं यह क्रियाओ धर्मी जनां को करणे योग्य नहीं है, किन किन क्रियायो विषे"चैत्य कृत्येषु. स्नात्रबिम्ब प्रतिमाकरणादि,” तिन विषे पूर्व पुरुषों की परंपरा करके जो विधि चली आती है तिसको प्रविधि कहते (अशान तिमिर भास्कर पृ० 296 ) श्री विजयानन्दसूरि के उक्त कथन से यह स्पष्ट होगया कि-चैत्य कराना, स्नात्र पूजा, बिम्ब प्रतिमा स्थापना आदि कृत्य सूत्रों में नहीं कहे, किन्तु केवल पूर्वजों से चली आती हुई रीति है। (2) संघपट्टक कार श्री जिन वल्लभसूरि क्या कहते हैं देखिये "आकृष्टं मुग्ध-मीनान् बडिशपि शितवद् विबमादर्श्य जैनं / तनाम्ना रम्यरूपा-नयवर-कमठान स्वेष्ट-सिद्धथै विधान्य / यात्रा स्नात्राद्युपायैर्नमसितक-निशा जागरायै श्छलैश्च / श्रद्धालु म जैनैश्चलित इव शठैर्वच्यते हा जनोऽयम् // 21 // Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 182 ) अर्थात्-जिस प्रकार रसनेन्द्रिय में मग्ध मकलियों को फंसाने के लिए बधिक लोग मांस को कांटे में लगाते हैं, उसी प्रकार द्रव्य लिंगी लोग मांसवत् ऐसे जिन विम्ब को दिखाकर, तथा स्वर्गादि इष्ट सिद्धि कहकर, यात्रा स्नात्रादि उपायों से, निशा जागरणादि छलों से यह श्रद्धालु भक्त, धूर्त की तरह नामधारी जैनों से ठगे जाते हैं यह दुःख की बात ___ यह एक मू० पू०. श्राचार्य के दुःखद हृदय के उद्गार रूप संघपट्टक का २१वां काव्य मूर्ति पूजा के पाखण्ड और स्वार्थ पिपासुओं की स्वार्थपरता को खुल्ला करने में पर्याप्त है, वा. ‘स्तव में मूर्ति पूजा की पोट से मतलबी लोगों ने जन साधा. रण को खूब धोखा दिया है, अतएव मुमनुओं को इससे सर्वथा दूर ही रहना चाहिये। (3) स्वयं विजयानन्दसूरि मूर्ति पूजा को धर्म का अंग नहीं मानकर लौकिक पद्धति ही मानते हैं, देखिये जैनतत्वा दर्श पृ० 418 "विघ्न उपशांत करणे वाली अङ्ग पूजा है, तथा मोटा अभ्युदय पुण्य की साधने वाली अग्रपूजा है, तथा 'मोक्ष की दाता भाव पूजा है"। इसमें केवल भाव पूजा को ही मोक्ष दाता मानी है, और भाव पूजा का स्वरूप ये ही पृ० 416 पर लिखते हैं कि 'इहां सर्व जो भाव पूजा है, सो श्री जिनामा का पालना Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 183 ) इसी तरह श्री हरिभद्रमूरि भी लिखते हैं कि 'पापी मुक्ति ईश्वरनी आज्ञा पालवा मांज छः'। (जैन दर्शन प्रस्तावना पृ० 33) फिर पूजा का स्वरूप भी हरिभद्रसूरि क्या बताते हैं, देखिए'पूजा एटले तेश्रोनी आज्ञानु पालन' / ( जैन दर्शन प्र० पृ० 41) इस प्रकार प्रभु श्राज्ञा पालन रूप भाव पूजा ही श्रात्मकल्याण में उपादेय है, किन्तु मूर्ति पूजा नहीं। और भाव पूजा में साधुवर्ग भी पंच महाव्रत, ईर्ष्या भाषादि पंच समिती तीन गुप्ति, और ज्ञानादि चतुष्टय का पालन करके करते हैं, श्रावक वर्ग सम्यक्त्व पूर्वक बारह व्रत तथा अन्य त्याग प्र. त्याख्यानादि करके करते हैं, यह भाव पूजा अवश्य मोक्ष जैसे शाश्वत सुख की देने वाली है। और मूर्ति पूजा तो श्रात्मकल्याण में किसी भी तरह आदरणीय नहीं है, यह तो उल्टी पानव द्वार का जो कि-श्रात्मा को भारी बनाकर आत्मकल्यण से वंचित रखता है, सेवन कराने वाली है, जिसमें प्रभु श्राशा भंग रूप पाप रहा हुआ है, अतएव त्यागने योग्य ही है। (4) श्री सागरानन्दसूरिजी 'दीक्षानुं सुन्दर स्वरूप' नाम पुस्तिका के पृ० 147 पर लिखते हैं कि - __'श्री जिनेश्वर भगवाननी पूजा वगेरे नुं फल चारित्र धर्मना आराधन ना लाखमां अंशे पण नथी श्रावतुं, अने तेथी तेवी पूजा आदिने छोड़ी ने पण भाय धर्म रूप चारित्र अंगीकार करघा मां श्रावे छे'। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 184 ) अब हमारे पाठक स्वयं विचार कर निर्णय करें किकहां तो धर्म का अङ्ग चारित्राराधन और कहां उसके लाखवें अंश में भी नहीं आने वाली मूर्ति पूजा ? वास्तव में तो मूर्ति पूजा में अनन्तवें भाग भी धर्म नहीं है, किन्तु अधर्म ही है, अतएव त्यागने योग्य है। ___ (5) पुनः सागरानन्दसूरिजी इसी ग्रन्थ के पृ० 17 में एक चौभंगी द्वारा भाष निक्षेप को ही बन्दनीय, पूजनीय सिद्ध करते हैं, देखिये वह चौभंगी___ 'एक तो चांदी नो कटको जो के चोखी चांदी नो छे, छतां रुपियां नी महोर छाप न होय तो तेने रुपियो कहवाय नहीं, अने ते चलण तरीके उपयोग मां आधी शके नहीं? बीजो रुपियानी छाप त्रांबा ना कटका उपर होय तो पण ते त्रांबा नो कटको रुपिया तरीके चाली शके नहीं, त्रीजो त्रांबा ना कटका कार सानी छाप होय तो ते रुपियो नज गणाय, अने चोथो भांगोज एवो छ के जेमा चांदी चोखी अने छाप पण रुपियानी साची होय, तेनोज दुनियां मां रुपिया तरीके व्यवहार थह शके, अने चलण मां चाले'। यही उदाहरण श्री हरिभद्रसूरि ने श्रावश्यक वृत्ति में वन्दनाध्ययन की व्याख्या करते हुए वन्दनीय पर भी दिया ___ यद्यपि उक्त चौभंगी लेखक ने मूर्ति पूजा पर नहीं दी, तथापि उक्त चौभंगी पर से यह तो स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि-चतुर्थ भंग अर्थात् सक्षात् भाव निक्षेप युक्त प्रभु ही कार्य साधक हैं, और मूर्ति पूजा तो तांबे के टुकड़े पर रुपये 224 की छाप वाले दूसरे भंग की तरह एकदम निरर्थक है / मुमुनुओं को इस पर खूब मनन करना चाहिये / Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (185) (6) चौदह पूर्वधर श्रीमान् भद्रबाहु स्वामी ने व्यवहार सूत्र की चूलिका में चन्द्रगुप्त राजा के पांचवें स्वप्न के फल में भविष्य में कुगुरुओं द्वारा प्रचलित होने वाली मूर्ति पूजा की भयंकरता दिखाते हुए लिखा है कि "पंचमए दुवालस फणि संजुत्तो, करहे अहि दिट्ठो, तसफलं-दुवाल सवास परिमाणो दुक्कालो भविस्सइ तत्थ कालिय-सुयप्पमुहाणि सुत्ताणि वोच्छिज्जिसंति, चेइयं उया. बेइ, दवहारिणे। मुणिणो भविस्संति, लोभेण माला रोहण देवल-उवहाण-उज्जमण-जिण बिम्ब-पइछावण विहिं पगासिस्संति, अविहि पंथे पडिसह तत्थ जे केइ साहू साहूणिो . सावय-सावियाश्रो, विहि-मम्गे बुहिसंति तसिं बहूणं हिलणाणं, णिंदणाणं, खिसणाणं, ठारहणाणं, भविस्सई"। ___ अर्थात्-पांचवें स्वप्न में द्वादश फलों वाले काले सर्प को जो देखा है उसका फल यह है कि भविष्य में द्वादश वर्ष का दुष्काल पड़ेगा, उस समय का लिका आदि सूत्र विच्छेद जायँगे, द्रव्य रखने वाले मुनि होंगे, चैत्य स्थापना करेंगे, लोभ के वश होकर मूति के गले में मालारोपण करेंगे, मन्दिर, उपधान, उजमणा करावेंगे, मूर्ति स्थापन व पतिष्ठा की विधि प्रकट करेंगे, अविधि मार्ग में पड़ेंगे, और उस समय जो कोई साधु साध्वी, श्रावक, श्राविका, विधि मार्ग में प्रवर्तने वाले होंगे, उनको बहुत निंदा, अपमान, अप शब्दादि से हीलना करेंगे। प्रिय पाठक वृन्द ! श्रीमद्भद्रबाहु स्वामी का उक्त भविष्य कथन बराबर सत्य निकला, ऐसा ही हुआ, और अब तक बरा. र हो रहा है। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 186) श्रीमद् भद्रबाहु स्वामी के उक्त कथन को बताने वाली श्री व्यवहार सूत्र की चूलिका पर श्री न्याय विजयजी इतने ऋद्ध हैं कि-यदि इनकी चलती तो उक्त चूलिका की रूमा प्रतियें एकत्रित कर हवन कुण्ड की भेट कर देते, किंतु विवशता वश सिवाय मिथ्या भाषण के अन्य कोई उपाय ही नहीं सूझता, जिस.का परिचय पहले करा दिया गया है। (7) सम्बोध प्रकरण में हरिभद्र सूरि लिखते हैं कि संनिहि महा कम्मं जल, फल, कुसुमाइ सब सचित्तं चेक्ष्य मठाइवासं पूयारंभाइ निच्चवासित्तं / देवाइ दव्वभोगं जिणहर शालाइ करणं च // . - अर्थात्-प्रथम रूचित्त जल, फल, फूलों का प्रारम्भ पूजा के लिए हुवा, चैत्यवासऔर चैत्य पूजा चली देव द्रव्य भोगना, जिन मन्दिरादि बनवाना चला। (8) सन्देह दोलाबली में लिखा है कि गड्डरी-प्पवाहऊ जे एइ नयरंदीसइ बहुजिणेहिं जिणग्गह कारवणाइ सो धम्मो सुत्त विरुद्धो अधम्मोय / अर्थात्-लोक में गडुरिया प्रवाह से गतानुगतिक चलने वाला समूह अधिक होता है, वे जिन मन्दिरादि करवाना यह सूत्र विरुद्ध अधर्म को भी धर्म मानने वाले हैं। . . (E) विवाह चूलिका के ! वै पाहुड़े के 8 वें उद्देशे में लिख है कि-- Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (187) जइणं भंते जिण पडिमाणं बन्दमाणे, अच्चमाणे सुयधम्म चरित्त धम्म ल भेज्जा ? गोयमा ? णो अढे समढे / सेकेणटेणं भते एवं वुच्चइ ? गोयमा ? पुढवी कायं हिंसइ, जाव तस कार्य हिंसइ / अर्थात्-श्री गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं कि-अहो भगवान् ! जिन प्रतिमा की वन्दना अर्चना करने से क्या श्रत धर्म चारित्र धर्म की प्राप्ति होता है ? उत्तर-यह अर्थ समर्थ नहीं। पुनः प्रश्न-ऐसा क्यों कहा गया? उत्तर-इसलिए कि-प्रतिमा पूजा में पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक के जीवों की हिंसा होती इस प्रकार विवाह चूलिका में भी मू० पू० द्वारा सूत्र चारित्र धर्म की हानि वताई गई है। यद्यपि विवाह चूलिका से उक्त सम्वाद प्रभु महावीर और श्री गौतम स्वामी के बीच होना पाया जाता है, किन्तु यह ध्यान में रखना चाहिए कि-ग्रन्थकारों की यह एक शैली है, जो प्रश्नोत्तर में प्रसिद्ध और सर्व मान्य महान आत्माओं को खड़ा कर देते हैं / वर्तमान के बने हुए कितने ही ऐसे स्वतंत्र ग्रन्थ दिखाई देते हैं जिनमें उनके रचनाकार कोई अन्य महात्मा होते हुए भी प्रश्नोत्तर का ढांचा भगवान महावीर और श्री गौतमगणधर के परस्पर होने का रचा गया है, ऐसे ही जो सूत्र ग्रन्थ पूर्वधर आदि आचार्य रचित हैं, उनमें भी ऐसी भी शैली पकड़ी गई है, तदनुसार विवाह चूलिका के रचयिता श्री भद्रबोहु स्वामी ने भी जनता को भगवदाज्ञा का स्वरूप बताने के लिये उक्त कथन का श्री महावीर और गौतम गणधर के Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) बीच होना बताया है, किन्तु वास्तव में यह रचना शैली ही है. श्री महावीर गौतम की उक्ति से सत्य नहीं, क्योंकि-प्रभू की उपस्थिति के समय तो यह प्रथा थी ही नहीं। इसीलिये किसी प्रमाणिक और गणधर रचित अंग शास्त्रों में भी ऐसा उल्लेख नहीं है, अतएव इस कथन को साक्षात् प्रभु और गणधर के बीच होना मानना भूल है,तो भी मूर्ति पूजा के निध में तो उक्त कथन बहुत स्पष्ट है, इस ग्रन्थ को मूर्ति पूजक लोग भी मानते है, इसके सिवाय अब किती प्रमाण की आवश्यकता नहीं रहती। (10) महा निशीथ सूत्र का तीसरा और पाँचवां अध्ययन तो इस मूर्ति पूजा को जड़ काटने में कुछ भी न्यूनता नहीं रखता, जो कि-मूर्ति पूजकों का मान्य ग्रन्थ है। __ इस तरह मूति पूजक मान्य ग्रन्थों से भी मूर्ति पूजा निषिद्ध ठहरती है, आत्मार्थी बन्धुओं को इसका त्याग कर इतना समय आत्म कल्याण की साधक सामायिक में लगाना चाहिये / मू० पू० से सामायिक करना श्रेष्ठ है। द्रव्य पूजा ( अन्य मचित्त या अचित्त वस्तुओं से पूजा करना ) सावद्य-हिसायुक्त है, साथ ही व्यर्थ और निरर्थक भी। अतएव इसका त्याग कर भाव पूजा रूप सामायिक कर प्रात्म साधन करना चाहिए श्रावकों की सामायिक थोड़े समय का देशविरती चारित्र है, अतएव इसका आराधन करना स्वल्प कालका चारित्र धर्म पालना है। स्वयं विजयानन्द सूरि स्वीकार करतेहैं कि जब श्रावक सामायिक करता है, तब साधु की तरह हो जाता है, इस वास्ते श्रावक सामायिक में देव स्नात्र, पूजादिक, न करें, क्योंकि भाव स्तव के वास्ते द्रव्य स्तव करना है सो Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (18) भावस्तव सामायिक में प्राप्त होजाता है, इस वास्ते श्रावक सामायिक में द्रध्यस्तवरूप जिन पूजा न करें। जैनतत्वादर्श पृ० 371) इनके सिवाय “पर्यपण पर्वनी कथाओं के पृ० 16 में भी लिखा है कि' वली सामायिक करता थकां सावध योग नो स्याग थाय, माटे सामायक श्रेष्ठ छ, तथा सामायक करनार ने मात्र पूजादिक ने विषे पण अधिकार नथी, अर्थात् द्रव्यस्तव करण नी योग्यता नथी, ते सामायिक उदय प्रायव महा दुर्लभ छ। इन दो प्रमाणों के सिवाय सामायिक की उत्कृष्टता में और भी प्रमाण दिये जा सकते हैं, किन्तु अन्य गौरव के भय से यहां इतना ही बताया जाता है, इससे स्पष्ट सिद्ध होता है किमूर्ति पूजक भाइयों के कथन से भी मूर्ति पूजा से सामायिक अत्यधिक श्रेष्ठ है। एक साधारण बुद्धि वाला भी समझ सकता है कि-मूर्ति पूजा सावद्य-हिंसाकारी-व्यापार है, और सामायिक में सावध व्यापार का त्याग हो जाता है, इस नग्न सत्य को मूर्ति पूजक भी स्वीकार कर चुके हैं, इसलिए मूर्ति पूजक समाज के साधुओं को चाहिये कि-श्रावकों को सावध मूर्ति पूजा छोड़ कर सावध त्याग रूप सामायिक करने का ही उपदेश करें, किन्तु जब मनुष्य मतमोह में पड़ जाता है तब हेय को छोड़ने योग्य समझकर भी नहीं छोड़ता है, यही हाल ऊपर में सामायिक को श्रेष्ठ कहने वाले श्री विजयानन्दजी का भी हुआ पहले सामायिक की प्रशंसा की और फिर ये ही आगे बढ़ कर सामायिक वाले श्रावक को सामायिक छोड़कर पजा के लिए फूल गूंथने आदि की आज्ञा प्रदान करते है / देखिये Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (190) " पूजादिक सामग्री के प्रभाव से द्रव्य पूजा करणे असमर्थ है. इस वास्ते सामायिक पारके काया से जो कुछ फूल गंथना. दिक कृत होवे सो करे। प्रश्न-सामायिक त्याग के द्रव्य पूजा करणी उचित नहीं ? उत्तर-सामायिक तो तिसके स्वाधीन है / चाहे जिस वखत कर लेवे, परन्तु पूजा का योग उसको मिलना दुर्लभ है, क्यों कि-पूजा का मंडाण तो संघ समुदाय के आधीन है, कदेई होता है, इस वास्ते पूजा में विशेष पुण्य है / जैनात्वाद पृ०४१७) इस प्रकार वेही विजयानन्दजी यहां भावस्तव रूप सामा. थिक को त्याग कर युक्ति से सावद्य पूजा में प्रवृत्त होने की आज्ञा प्रदान करते हैं, एक सामायिक का उदय आना दुर्लभ कहता है तो दूसरा उल्टा पूजा का योग कठिन बताता है / इस प्रकार मन गढ़त लिख डालने वालों को क्या कहा जाय ? श्रीमान् विजयानन्द सूरि के मन्तव्यानुसार तो सामायिक में ही फूल गूंथ लेने चाहिये, क्योंकि इन्हीं का कथन (सम्यक्त्व शल्योद्धार में ) है कि-फूलों से पूजना फूलों की दया करना है। आश्चर्य तो यह है कि-सम्यक्त्व शल्योद्धार में तो इस प्रकार लिखा, और जैन तत्वादर्श में सामायिक में द्रव्य पूजा का निवेध भी कर दिया ! वास्तव में सामायिक उदय आना ही कठिन है इसमें मन वचन व शरीर के योगों को आरम्भादि सावध व्यापार से हटा कर निरारम्भ ऐसे सम्बर में लगाना होता है, जो कि उतने समय का चारित्र धर्म का आराधन है / गृहस्थ लोगों से Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (11) प्रारम्भ परिग्रह आदि का छूटना ही अधिक कठिन है, इसलिए सामायिक का उदय में आना ही दुर्लभ है। मूर्तिपूजा में दुर्लभता कैसी ! झट से स्नान किया, फूल तोड़े, केशर चन्दनादि घिस कर पूजा की / ऐसे आरम्भ जन्म कार्य से तो चित्त प्रसन्न हो होता है, और यह प्रवृत्ति भी सब को सरल व सुखद लगती है, इसमें दुर्लभता की बात ही क्या है ? धर्म दया में है हिंसा में नहीं महानुभावो ! खरा धर्म तो इच्छाओं को वश कर विषय कषाय और आरम्भ के त्याग में तथा प्राणी मात्र की दया में है। इसके विपरीत निरर्थक हिंसा भव भ्रमण को बढ़ाने वाली होती है / मात्र एक दया ही संसार से पार करने में समर्थ है, यदि शंका हो तो प्रमाण में आगम वाक्य भी देखिये (1) श्री आचागंग सूत्र के शस्त्रपरिज्ञा नामक प्रथम अध्ययन में जाइ मरण मोयगाए कह कर धर्म के लिए की गई पृथ्वी कायादि जीवों की हिंसा को अहित एवं अबोधी कर बताई है, और प्रभु ने स्पष्ट कहा है कि जो इस प्रकार की हिंसा से त्रिकरण त्रियोग से निवृत्त है, उसे ही मैं संयमी साधु कहता हूं। (2) सूत्र कृतांग अ० 11 गा० 6 से मोक्ष मार्ग की प्ररूपणा करते हुए प्रभू फरमाते हैं कि पुढवी जीवा पुढो सत्ता, आउ जीवा तहागणी। वाउजीवा पुढो सत्ता, तण रुक्खा स-बीयगा // 7 अहावरा तसा पाणा, एवं छकाय आहिया। एतावए जीवकाए, पावरे कोइ विजइ // 8 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 182) •सवाहिं अणुजुत्तिहिं, मतिमं पडिलेहिया / सव्वे अक्कंत दुक्खाय, अतो रूब्वे अहिंस्या // 6. . .. एयं खुणाणिणो सारं, जं नहिंसइ किंचणं / अहिंसा समयं चेव, एतावत्तं वियाणिया // 10 उंड्ढे अहेय तिरियं, जेकेइ तस थावरा / सव्वत्य विरति कुज्जा, संति णिव्वाण माहियं // 11 अर्थात्-पृथ्वी, अप, तेजस वायु, बनस्पति, बीज सहित तथा त्रस प्राणी, इस तरह छः कायरूप जीव कहे गये हैं, इनके सिवाय संसार में कोई जीव नहीं है इन रूव जीवों का दुःख अप्रिय है, ऐसा युक्तिओं से बुद्धिमान का देखा हुआ है / अहिंसा और समता ही मुक्ति मार्ग है, ऐसा समझ कर किसी जीव की हिसा नहीं करे, यही ज्ञानी का सार है। उर्ध्व अधो और तिर्यक दिशा में जो जीव रहने वाले हैं उनकी हिंसा से निवृत्ति करने को निर्वाण मार्ग कहा है। , (3) “दाणाण सेटे अभयप्ययाणं"। सूत्रकृतांग श्रु०२ अ०६। (4) पुन. सूत्र कृतांग श्रु० 2 अ० 17 में “जे इमे तस थावरा पाणा भवंति तेणो सयं समारंभत्ति, णो अण्णे हि समारंभाति, अण्णं समारंभंतं न समणु जाणंति, इति से महतो आयाणाओ उवसंते उवसंते उवट्टिए, पडिविरते से भिक्खू / (5) ज्ञाता धर्म कथांग में मेघकंवार ने हार्थी के भव में एक पशु की दया की जिससे संसार परित् कर दिया, स्वरयं सूत्रकारने वहां पाणाणु सम्पयाए। आदि से संसार को परि मित कर देने का कारण दया ही बताया है / Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 183) (6) ज्ञाता धर्म कथा अ० 8 में भगवती मल्लि कुमारी ने चोक्खा परिव्राजिका को कहा कि जिस प्रकार रक्त में सना हुवा वस्त्र रक्त से धोने पर शुद्ध नहीं होता, उसी प्रकार हिंसा करने से धर्म नहीं हो सकता। . (7) प्रश्न व्याकरण के प्रथम सम्वर द्वार में स्वयं श्रीगणधर महाराजा ने दया को महिमा की है और साथ ही दयावानों की महिमा करते हुए दया के गुण निष्पन्न 60 नाम भी बताये हैं। उक्त प्रकरण में यहां तक लिखा गया है कि-श्री सर्वज्ञ प्रभु ने " समस्त जगत् के जीवों की दया अर्थात् रक्षा के लिए ही धर्म कहा है"। (c ) उत्तराध्ययन सूत्र अ०१८ में सगर चक्रवर्ती का दया से ही मोक्ष पाना बताया है, यथा मगरो वि सागरंतं, भरहं वासं नराहिवो। इसरियं केवलं हिच्चा, दयाए परिणिधुए // उक्त प्रमाणों से हमारे प्रेमी पाठक यह स्पष्ट समझ सके होंगे-कि जैनागमों में आत्मकल्याण की साधना के लिये दया को सर्व प्रधान और अत्यधिक महत्व का स्थान दिया गया है, किन्तु मूर्ति पूजा के लिए तो एक बिन्दु मात्र भी जगह नहीं है, . क्योंकि-यह दया की विरोधिनी और हिंसा जननी है। * अब इस दद्या की महिमा में कुछ प्रमाण मूर्ति पूजक ग्रन्थों के भी देखिये, जिन में कि ये धर्म के कार्यों में भी हिंसा करना बुरा कहते हैं (1) योगशास्त्र के प्रकाश 2 में श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य लिखते हैं। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 194) * हिंसा विघ्नाय जायते, विघ्न शांत्ये कृताऽपिहि। . कुलाचार धियाप्येषा, कृता कुल-विनाशिनी // 26 अर्थात्-विघ्न शांति या कुलाचार की बुद्धि से भी की गई हिंसा विघ्नवर्द्धक एवं कुल का क्षय करने वाली होती है। (2) पुनः हेमचन्द्रजी उक्त ग्रन्थ और उक्त ही प्रकाश के श्लोक 31 में लिखते हैं कि दमो देव गुरुपास्ति-दानमध्ययनं तपः / सर्वमप्येतद् फलं, हिंसां चेन्न परित्यजेत् // 31 अर्थात्-जो हिंसा का त्याग नहीं करे तो देव गुरु की सेवा और दान, इन्द्रिय दमन, तप, अध्ययन, यह सब निष्फल है। (3) फिर आगे चालीसवाँ श्लोक पढ़ियेशम शील या मूलं, हित्वा धर्म जगद्धितं / अहो ! हिंसापि धर्माय, जगदे मन्दबुद्धिभिः // 40 अर्थात्-शान्ति शील व दया मूलके जगहितकारी धर्म को छोड़कर मन्दबुद्धि वाले लोग धर्म के लिए भी हिंसा कहते हैं, यह महदाश्चर्य है। (4) श्री हेमचन्द्राचार्य मन्दिर मूर्ति से तप संयम की महिमा अधिक बताते हुए प्रकाश, श्लोक 108 के विवेचन में लिखते हैं कि-(योगशास्त्र भा० पृ० 137) कंचण-मणि सोवाणं, थंभ सहस्सो-सियं भुवण-तलं / जो कारिजइ जिणहरं, तो वि तव-संजमो अहिओ // अर्थात्-सोने व मणिमय पायरी वाला हजारों स्तंभों से उन्नत तले वाला भी यदि कोई जिनमन्दिर बनावे तो उससे भो तप संयम श्रेष्ठ है। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (165) (5) योग शास्त्र भाषान्तर आवृत्ति चौथी पृ० 137 यं० 10 में 108 वें श्लोक का विवेचन करते हुए श्री केशर विजयजी गणि लिखते हैं किबहेतर छे के प्रथमथीज धर्म निमित्ते श्रारम्भ न करवो" दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के शानावर्णव ग्रन्थ के आठवें सर्ग में अहिंसावत के विवेचन का कुछ अवतरण पढियेअहो व्यसन विध्वस्तैलोकः पाखण्डिभिर्बलात नीयते नरकं घोरं, हिंसा शास्त्र पदेशकः // 1 // शान्त्यर्थं देवपूजार्थं यज्ञार्थमथवा नृभिः / कृतः प्राणभृतां घातः, पातयत्यविलंबितं / 18 / चारु मंत्रौषधानांवा, हेतो रन्यस्यवा चित् / कृता सती नहिंसा, पातत्य विलंबितं // 27 // धर्मबुद्धयाऽधमैः पापं जंतु घातादि लक्षणम् / क्रियते जीवितस्यार्थ पीयते विषमं विषं // 26 // अहिंसैव शिवं सूते दत्तेच, त्रिदिवश्रिय / अहिंसैव हितं कुर्याद व्यसनानि निरस्यति।३३। अहिंसकापि यत्सौख्यं, कल्याणमथवाशिवम् / दत्ते तद्देहिनां नायं, तपः श्रत यमोत्करः॥४७॥ अर्थात् धर्म तो दयामय है किन्तु स्वार्थी लोग हिंसा का उपदेश देने वाले शास्त्र रचकर जगत जीवों को बलात्कार से नर्क में ले जाते हैं यह कितना.अनर्थ है ? // 16 // Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 166 ) अपनी शान्ति के लिये या देवपूजा अथवा यज्ञ के लिये जो प्राणी हिंसा करते हैं वह हिंसा उनको शीघ्र ही नर्क में लेजाने वाली होती है // 18 // देवपूजा, या मन्त्र अथवा औषध के लिये अथवा अन्य किसी भी कार्य के लिये की हुई हिंसा जीवों को नर्क में लेजा. ती है / / 27 // ___ जो पापी धर्म बुद्धि में हिंसा करते हैं वे जीवन की इच्छा से विषपीत हैं / / 26i ___ यह अहिंसा ही मुक्ति और स्वर्ग लक्ष्मी की दाता है यही हित करती है, और समस्त आपत्तियों का नाश करती है। // 33 // अकेली अहिंसा ही जीवों को जो सुख, कल्याण एवं अभ्युदय देती है, वह तप स्वाध्याय और यमनियमादि नहीं देख सकते / / 47 // ___ इतने स्पष्ट प्रमाणों से अहिंसामय धर्म ही श्रात्मा को शान्तिदाता सिद्ध होता है। इससे प्राणी हिंसा मय मूर्ति पूजा निरर्थक और अहितकार ही पाई जाती है। यदि आ. चार्य पं चतुरसेनजी शास्त्री के शब्दों में कहा जाय तो पा. खण्डी की जड़ अधिकांश में मूर्ति-पूजा ही है / इस मूर्ति पूजा के आधार से कितनी ही अंध श्रद्धा फैली हुई है और कई प्रकार की अंध श्रद्धाओं की यह जननी भी है। जितनी हत्या धर्म के नाम पर मूर्ति-पूजा द्वारा हुई और हो रही है उतनी अन्य किसी भी कारण से नहीं हुई व न होगी। इसी मूर्ति-पूजा के नाम पर होती हुई हिंसा को मिटाने के लिये श्रीर रामचन्द्र शर्मा को अपने बलिदान करने की बारबार Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 197) तैयारियां करनी पड़ती है। यद्यपि जैन समाज की मूर्ति पूजा में इस प्रकार की हिंसा नहीं होती, तथापिछहोंकाया केजीवों का याने एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तकके असंख्यात जीवों का घमासान तो हो ही जाता है, और धर्मान्धता के चलते स. मय 2 पर एकान्त निन्दनीय ऐसी मानव हत्या, अरे अपने भाई की हत्या भी हो जाती है, जिसके लिये केसरिया तीर्थ हत्याकाण्ड का काला कलंक प्रसिद्ध ही है / ऐसी अनर्थ एवं अहित की मूल, पाखण्ड की प्रचारक व अन्धविश्वास की जननी इस मूर्ति पूजा को समझदार लोग कभी उपादेय नहीं कह सकते। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०-अंतिम निवेदन - इतने कथन के अन्त में अपने मूर्ति पूजक बन्धुओं से सनम्र निवेदन करता हूं कि वे व्यर्थ की धांधली और शान्त समाज पर मिथ्या आक्रमण करना छोड़कर शुद्ध हृदय से विचार करें। और जिस प्रकार दयादान, सत्य संयम,आदि हितकर धर्म की पुष्टि और प्रमाणिकता सिद्ध की जाती है उसी प्रकार मूर्ति पूजा की सिद्धि कर दिखावें, और यदि यह कार्य आगम सम्मत होतो वह भी जाहिर करदें कि अमुक उभय मान्य मूल सिद्धान्त में सर्वश प्रभु ने मूर्ति पूजा करने की आशा प्रदान की है / इस प्रकार विधिवाद के स्पष्ट प्रमाण पेश करें, कथाओं की व्यर्थ अोट लेना, और शब्दों की निरर्थक खींच तान करना यह तत्वगवेषियों का कार्य नहीं किन्तु अभिनिवेष में उन्मत्त मतान्ध व्यक्तियों का है। इसलिये प्रा. गमों के विधिवाद दर्शक प्रमाण ही पेश करें, कथाओं की ओट और शब्दों की खींचतान अथवा पागम श्राशा की श्र. वहेलना करने वाले ग्रन्थों के प्रमाण तो किसी भोले और ग्रामीण भक्तों को समझाने के लिये ही रख छोड़ें / मैं श्राप लोगों की सुविधा के लिये आप ही की मूर्ति पूजक समाज के प्रतिभाशाली विद्वान पं० बेचरदासजी दोशी रचित 'जैन साहित्य मां विकार थवाथी थयेली हानि' नामक पुस्तक में पंडितजी के विचार आपके सामने रखता हूं जिससे आपको तत्व निर्णय में सरलता हो, देखिये पृ० 125 से Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 166 ) 'मूर्तिवाद चैत्यवाद पछीनो छ,एटले तेने चेत्यवाद जेटलो प्राचीन मानवाने आपणी पासे एक पण एवं मजबूत प्रमाण मथी के जे शास्त्रीय सूत्र विधि निष्पन्न ) होय वा ऐतिहासिक होय, श्राम तो श्रापणे कुलाचार्यो शुद्धां मूर्तिवाद ने अनादि नो ठराववानी तथा वर्द्धमान भाषित जणाववानी बणगा फूंकवा जेवी वातो कर्या करीए छीए, पण ज्यारे ते वातो ने सिद्ध करवा माटे कोई ऐतिहासिक प्रमाण वा अंग सूत्रनुं विधि वाक्य मांगवा मां आवे छे स्यारे पापणी प्रवाह वाही परंपरानी ढाल ने आगल धरीए छीए अने बचाव माटे श्रापणा घडिलो ने पागल करीए छीर मैं घणी कोशिष करी तो पण परंपरा अने बावा वाक्यं प्रमाणं सिवाय मूर्तिवाद ने स्थापित करवा माटे मने एक पण प्रमाण वा विधान मली शक्युं नथी वर्तमान कालमा मूर्ति पूजा ना समर्थन मां केटलीक कथाओ ने(चारण मुनि नी कथा, द्रौपदी नी कथा, सूर्याभ देवनी कथा अने बिजयदेवनी कथा ) पण पागल करवा मां आवे छे, किन्तु वाचकोए था बाबत खास लक्षमा लेवानी छे के विधि ग्रन्थोंमां दर्शावातो विधि प्राचार ग्रन्थों मां दर्शावातो श्राचार विधान खास शब्दो मांज दर्शाववामां आवे छे, पण को. इनी कथाश्रो मां थी के कोइना ओठां लइने अमुक 2 प्राचार वा विधान उपजावी शकातो नथी / .."(आगे पृ० 127 में )..."ते छतां तेमां जे विधान नी गंध पण न जणाती होय से विधान ना समर्थन माटे आपणे कथाश्रो नां ओठां लइए ने कोई ना उदाहरणों आपीए. ते बावत ने हुं 'तमस्तरण' सिवाय बीजा शब्द थी कही शकतो नथी, 'हुं हिम्मत पूर्वक कही शकुं छं के मैं साधुओ तेम श्रावकों माटे देव दर्शन के देव पूजन नु विधान कोई अंग सूत्रोंमांजोयुनथी, वांच्यु नथी Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 200 ) पटलुंज नहीं पण भगवती वगेरे सूत्रोमा केटलाक श्रावकों नी कथाश्रो श्रावे छे, ते मां तेश्रोनी चर्यानी पण नोंध छे परं. तु तेमां एक पण शब्द एवो जणातो नथी के जे ऊपर थी श्रापणे श्रापणी उभी करेली देव पूजननी श्रने तदाधित देव द्रव्यनी मान्यताने टकावी शकीए / ___ हुं श्रापणी समाज ना धुरंधरों ने नम्रता पूर्वक विनन्ति करूं छं के तेश्रो मने ते विषेनुं एक पण प्रमाण वा प्राचीन विधान-विधि वाक्य बतावशे तो हुँ तेश्रोनो घणोज ऋणी थइश / ... ...(श्रागे पृ० 131 में)...." हुँ तो त्यां सुधी मान छु के श्रमण ग्रन्थकारो जेश्रो पंच महाव्रत ना पालक छे, सर्वथा हिंसा ने करता नथी, करावता नथी, अने तेमां सम्म ति पण श्रापता नथी, जेओ माटे कोइ जातनो द्रव्यस्तव विधेय रूपे होइ शकतो नथी, तेत्रो हिंसा मूलक पा मुर्तिवाद ना विधान नो अने तदवलम्बी देव द्रव्यवाद ना विधान नो उल्लेख शी रीते करे ?" तत्त्वेच्छुक पाठक महोदयो ? मूर्ति पूजक समाज के एक प्रसिद्ध विद्वान के उक्त तटस्थ विचार मनन करने में आपको भारी सहायता देंगे, इस पर से आप अच्छी तरह से समझ सफेंगे कि-हमारे मू िपूजक बंधु सन्मा से वंचित हैं, इन्हें सत्यासत्य के निर्णय करने की रुचि नहीं है इसीसे ये लोग श्रांखें बंदकर सूत्र तथा चारित्र धर्म का घातक, संसार वर्द्धक एवं सम्यक्त्व को दृषित करने वाली ऐसी मूर्ति पूजा के चक्कर में पड़े हुए हैं। ऐसी हालत में आपका यह कर्तव्य हो जाता है किप्रथम आप स्वयं इस विषय को अच्छी तरह समझ लें, फिर Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 201) अपने से मिलने वाले सरल बुद्धि के मूर्ति पूजक बंधुओं को केवल परोपकार बुद्धि से योग्य समय नम्र शब्दों से समझाने का प्रयास करें / आवेश को पास तक नहीं फटकने दें। तो.! माशा है कि आप कितने ही भद्र बंधुओं का उद्धार कर सकेंगे, उन्हें शुद्ध सम्यक्त्वी बना सकेंगे, और वे भी आपके सहयोग से शुद्ध धर्म की श्रद्धा पाकर अपनी आत्मा को उन्नत बना सकेंगे। इस छोटीसी पुस्तिका को पूर्ण करने के पूर्व मैं मूर्ति पूजक विद्वानों से निवेदन करता हूं कि-वे एक बार शुद्ध अन्तःकरण से इस पुस्तक को पठन मनन करें. उचित का आदर करें और जो अनुचित मालूम दे, उसके लिये मुझे लिखें, मैं उनकी सूचना पर निष्पक्ष विचार करूंगा, और योग्य का श्रादर एवं अयोग्य के लिये पुनः समाधान करने का प्रयास करूंगा। मू पूजक विद्वान लोग यदि मूर्तिपूजा करने की भगवदाशा 32 सूत्रों के मूल पाठ से प्रमाणित कर देंगे, तो मैं उसी समय स्वीकार कर लूंगा। यदि इस पुस्तिका में कहीं कटु शब्द का प्रयोग होगया हो तो उसके लिये मैं सविनय क्षमा चाहता हुआ निवेदन करता हूं कि-पाठकवृन्द कृपया इसके भावों पर ही विशेष लक्ष्य रखते हुए आई हुई शाब्दिक कटुता को कटु औषधि के समान न्यायिहर मान कर ग्रहण करें, अप्रसन्न नहीं होवें, इस तरह मनन करने पर आपकी श्रद्धा शुद्ध होकर आपको विशुद्ध जैनत्व के उपासक बना देगी जिससे मेरा प्रयत्न भी सफल होगा। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (202) : अन्त में श्री जिनवाणी से विपरीत कुछ भी शब्द वाक्य मा अर्थ लिखा गया हो तो मिथ्या दुष्कृत देता हुआ, भागमा बहुश्रुतों से नम्र विनती करता हूं कि वे कृपया भूल को समझा देने का कष्ट स्वीकार करें। // सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु // + डात 61 MERA RE STATERNORA CASTHAILDRILLERRENERASNA कामक HIRANA RECOMH Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 203 ) // कवाली // बहाना धर्म का करके, कुशुरु हिंसा बढ़ाते हैं। बिम्ब पे, बील, दल, जल, फूल, फल माला चढ़ाते हैं // टेर। नेत्र के विषय पोषन को, रचे नाटक विविध विधि के / हिंडोला रास और साँजी, मूढ़ मण्डल मंडाते हैं // 1 // करावें रोशनी चंगी, चखन की चाह पूरन को। बता देवें भगति प्रभु की, आप मौजें उड़ाते हैं // 2 // लिखा है प्रकट निशि भोजन, अभक्ष्यों में तदपि भोंदू / रात्रि में भोग मोदक का, प्रभू को क्यों लगाते हैं // 3 // न कोई देव देवी की, मूर्ति खाती नजर आती। दिखा अंगुष्ट मूरति को, पुजारी' माल खाते हैं // 4 // कटावें पेड़ कदली के, बनावें पुष्प के बंगले / भक्ति को मुक्तिदा कहके, जीव बेहद सताते हैं // 5 // सरासर दीन जीवों के, प्राण लूटें करें पूजा। बतावें श्रङ्ग परभावन् कुयुक्ति षठ लगाते हैं // 6 // सुगुरु श्री मगन मुनिवर को, चरण चेरो कहे 'माधव' / धर्म के हेतु हिंसा जो, करें सो कुगति जाते हैं // 7 // ' पुजारी-पूजा, अरि, लेखक Page #240 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शुद्धि-पत्र पं० अशुद्ध कायो या चने शुद्ध कार्यों याचने विधिमार्ग चतुर्थ वृत्ति चतुर्थावृत्ति भी विशाल विशाला करना करनी पत्नि पत्नी और अतः प्रविधिमार्ग 18 शया शय्या स्वीकार कहीं अस्वीकार नहीं शीघ्र शील गये . सूची सूचि इस सभा . इन सभी 12 से पृष्ठ 35 पर्यन्त का अंश फूट नोट है, पाठक ध्यान रक्खें। जितनी कितनी ऊर्द्ध ऊर्व 'जाते ऊर्वादि 36 .. 6. . ऊद्धादि ती Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 शीर्षक (2) अशुद्ध तुगिया ऐसा हैं अर्थ है पठन शुद्ध तुगिया ऐसा किया है अनर्थ है पालन ध 51 52 MEW महिता माहता थुबं . थुभं महाकर महाक्रूर स्तनो , . स्ततो ओर श्रोट __ मूर्ति में मूर्तिये को मात्र ही कहते मात्र कहने को ही 17. उनको उनके 22 . मूति मूर्ति निर्गतायुक्तिर्याः निर्गतायुक्तिर्यस्याः यह ग्रंथों प्रागयाशय भागमाशय सामायिय सामायिक प्रतित प्रतीत विपयसि विपर्यय और प्रार्याश्चत 0 आचार्य देवरक्त आचार्य देव रक्त नीत पुनीत ... श्री ग्रंथों - 6 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) तो 67 70 71 ७र 74 क द्वेश पं० . अशुद्ध शुद्ध -क्या हितचिन्तक हितचिन्तन फल्यो कल्यो থগা थतां मुखराशाकशीभिन: मुखराशोकशोभिनः मालव्य मालंब्य कुतक कुतर्क द्वेष गिना गिनना दान दाना . खावे रक्खे हो स्मारण स्मरण ऐस ऐसे भोजन भाजन युगमें काल) युग (काल) में बह मूल्य बहुमूल्य भी. मन 'दमन न्याय मल पाप मल की तरह "की तरह" স্মথ। अर्थ नून नूतन पट पेट .. 6 . निषे R: 60mnm n n n K: koc k". हों . U V 9 Mom W की d 105 117 निषेध Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 4 ) 121 122 124 127 121 131 136 138 142 on Gendincome mona अशुद्ध अनुदन . अनुमोदन कत्तव्य कर्तव्य पजा पूजा मूर्तियों में मूर्तिये चित्र चित्रता दया हुई ? दया कैसे हुई ? महिमा महिया अंतकृशांग अंतकृद्दशांग साधु त्यागी त्यागी साधु हिसा , हिंसा बचना उसको उसको बचना यही . यह श्रलपा अल्पा अनुचित् अनुचित মায प्राण दोषी नहीं जानेंगे जानेंगे ময় अंश मूलास्य मूलाशय संग संघ वर्त्य वा अाजकल अाजकल के राजा राजा के . (ोषी 143 144 147 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (5) पं०, अशुद्ध शुद्ध था थी श्रादि कि से प्रशंषा MNAWow u1 : oran चरेण साहणो पडिल भई भोजनालय सुपक्ति प्रादि का कि प्रभु से प्रशंसा चेरेण साहुणो पडिलब्भई (भोजनालय) सुपवित्त 'उर्द्ध पाठान्त ऊर्ध्व. पाठान्तर सूत्र सूत्र मूर्ति मच्छीमारों सत्र मूति " कोई मच्छीमारा काई जिन के नियुक्ति जिनके नियुक्ति .. सवज्ञ देखन - प्रथ की सर्वश देखने ग्रंथ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'करा कल्याण 180 20 183 17 184 24 185 15-16 1914 162 23 166 16 अशुद्ध खरा कल्यण 224 का लिका जन्म खरयं खण्डी कालिक जन्य खयं खण्ड Page #247 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक मिलने के पते १-जैन रत्न पुस्तकालय, सिंहपोल, जोधपुर. २-जैन रत्न विद्यालय, भोपालगढ़ (स्टेट-जोधपुर) ३--रतनलाल डोसी सैलाना (मालवा)