________________ ( 183 ) इसी तरह श्री हरिभद्रमूरि भी लिखते हैं कि 'पापी मुक्ति ईश्वरनी आज्ञा पालवा मांज छः'। (जैन दर्शन प्रस्तावना पृ० 33) फिर पूजा का स्वरूप भी हरिभद्रसूरि क्या बताते हैं, देखिए'पूजा एटले तेश्रोनी आज्ञानु पालन' / ( जैन दर्शन प्र० पृ० 41) इस प्रकार प्रभु श्राज्ञा पालन रूप भाव पूजा ही श्रात्मकल्याण में उपादेय है, किन्तु मूर्ति पूजा नहीं। और भाव पूजा में साधुवर्ग भी पंच महाव्रत, ईर्ष्या भाषादि पंच समिती तीन गुप्ति, और ज्ञानादि चतुष्टय का पालन करके करते हैं, श्रावक वर्ग सम्यक्त्व पूर्वक बारह व्रत तथा अन्य त्याग प्र. त्याख्यानादि करके करते हैं, यह भाव पूजा अवश्य मोक्ष जैसे शाश्वत सुख की देने वाली है। और मूर्ति पूजा तो श्रात्मकल्याण में किसी भी तरह आदरणीय नहीं है, यह तो उल्टी पानव द्वार का जो कि-श्रात्मा को भारी बनाकर आत्मकल्यण से वंचित रखता है, सेवन कराने वाली है, जिसमें प्रभु श्राशा भंग रूप पाप रहा हुआ है, अतएव त्यागने योग्य ही है। (4) श्री सागरानन्दसूरिजी 'दीक्षानुं सुन्दर स्वरूप' नाम पुस्तिका के पृ० 147 पर लिखते हैं कि - __'श्री जिनेश्वर भगवाननी पूजा वगेरे नुं फल चारित्र धर्मना आराधन ना लाखमां अंशे पण नथी श्रावतुं, अने तेथी तेवी पूजा आदिने छोड़ी ने पण भाय धर्म रूप चारित्र अंगीकार करघा मां श्रावे छे'।