________________ ( 184 ) अब हमारे पाठक स्वयं विचार कर निर्णय करें किकहां तो धर्म का अङ्ग चारित्राराधन और कहां उसके लाखवें अंश में भी नहीं आने वाली मूर्ति पूजा ? वास्तव में तो मूर्ति पूजा में अनन्तवें भाग भी धर्म नहीं है, किन्तु अधर्म ही है, अतएव त्यागने योग्य है। ___ (5) पुनः सागरानन्दसूरिजी इसी ग्रन्थ के पृ० 17 में एक चौभंगी द्वारा भाष निक्षेप को ही बन्दनीय, पूजनीय सिद्ध करते हैं, देखिये वह चौभंगी___ 'एक तो चांदी नो कटको जो के चोखी चांदी नो छे, छतां रुपियां नी महोर छाप न होय तो तेने रुपियो कहवाय नहीं, अने ते चलण तरीके उपयोग मां आधी शके नहीं? बीजो रुपियानी छाप त्रांबा ना कटका उपर होय तो पण ते त्रांबा नो कटको रुपिया तरीके चाली शके नहीं, त्रीजो त्रांबा ना कटका कार सानी छाप होय तो ते रुपियो नज गणाय, अने चोथो भांगोज एवो छ के जेमा चांदी चोखी अने छाप पण रुपियानी साची होय, तेनोज दुनियां मां रुपिया तरीके व्यवहार थह शके, अने चलण मां चाले'। यही उदाहरण श्री हरिभद्रसूरि ने श्रावश्यक वृत्ति में वन्दनाध्ययन की व्याख्या करते हुए वन्दनीय पर भी दिया ___ यद्यपि उक्त चौभंगी लेखक ने मूर्ति पूजा पर नहीं दी, तथापि उक्त चौभंगी पर से यह तो स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि-चतुर्थ भंग अर्थात् सक्षात् भाव निक्षेप युक्त प्रभु ही कार्य साधक हैं, और मूर्ति पूजा तो तांबे के टुकड़े पर रुपये 224 की छाप वाले दूसरे भंग की तरह एकदम निरर्थक है / मुमुनुओं को इस पर खूब मनन करना चाहिये /