________________ ( 182 ) अर्थात्-जिस प्रकार रसनेन्द्रिय में मग्ध मकलियों को फंसाने के लिए बधिक लोग मांस को कांटे में लगाते हैं, उसी प्रकार द्रव्य लिंगी लोग मांसवत् ऐसे जिन विम्ब को दिखाकर, तथा स्वर्गादि इष्ट सिद्धि कहकर, यात्रा स्नात्रादि उपायों से, निशा जागरणादि छलों से यह श्रद्धालु भक्त, धूर्त की तरह नामधारी जैनों से ठगे जाते हैं यह दुःख की बात ___ यह एक मू० पू०. श्राचार्य के दुःखद हृदय के उद्गार रूप संघपट्टक का २१वां काव्य मूर्ति पूजा के पाखण्ड और स्वार्थ पिपासुओं की स्वार्थपरता को खुल्ला करने में पर्याप्त है, वा. ‘स्तव में मूर्ति पूजा की पोट से मतलबी लोगों ने जन साधा. रण को खूब धोखा दिया है, अतएव मुमनुओं को इससे सर्वथा दूर ही रहना चाहिये। (3) स्वयं विजयानन्दसूरि मूर्ति पूजा को धर्म का अंग नहीं मानकर लौकिक पद्धति ही मानते हैं, देखिये जैनतत्वा दर्श पृ० 418 "विघ्न उपशांत करणे वाली अङ्ग पूजा है, तथा मोटा अभ्युदय पुण्य की साधने वाली अग्रपूजा है, तथा 'मोक्ष की दाता भाव पूजा है"। इसमें केवल भाव पूजा को ही मोक्ष दाता मानी है, और भाव पूजा का स्वरूप ये ही पृ० 416 पर लिखते हैं कि 'इहां सर्व जो भाव पूजा है, सो श्री जिनामा का पालना