________________ (67) मूर्ति को मूर्ति दृष्टि से देखने मात्र तक ही सीमित रक्खें तो | फिर भी उतनी मूर्खता से क्या बच सकते हैं, यह स्मरण है कि--जिस प्रकार शास्त्रों का पठन पाठन रूप उपयोग शान वृद्धि में आवश्यक है इस प्रकार मूर्ति आवश्यक नहीं शास्त्र द्वारा अनेकों का उपकार हो सकता है क्योंकि सा. हित्य द्वारा ही अजैन जनता में भारत के भिन्न 2 प्रांतों और विदेशों में रहने वालों में जैनत्व का प्रचार प्रचूरता से हो सकता है। मनुष्य चाहे किसी भी समाज या धर्म का अनु. यायी हो, किन्तु उसकी भाषा में प्रकाशित साहित्य जब उस के पास पहुंच कर पठन पाठन में आता है तो उससे उसे जैनत्व के उदार एवं प्राणी मात्र के हितैषी सिद्धान्तों की स. च्ची श्रद्धा हो जाती है इस से जैन सिद्धान्तों का अच्छा प्रभाव होता है, अाज भारत या विदेशों के जैनेतर विद्वान जो जैन धर्म पर श्रद्धा की दृष्टि रखते हैं यह सब साहित्य प्रचार ( जो स्वल्प मात्रा में हुआ है) से ही हुआ है इसलिये जड़ होते हुए भी सभी को एक समान विचारोत्पादक शास्त्र जितने उपकारी हो सकते हैं उनकी अपेक्षा मूर्ति तो किञ्चित मात्र भी उपकारक नहीं हो सकती, श्राप ही बताईये कि अजैनों में मूर्ति किस प्रकार जैनत्व का प्रचार कर सकती है ? आज तक केवल मूर्ति से ही किञ्चित् मात्र भी प्रचार हुभा हो तो बताईये। प्रचार जो होता है वह या तो उपदेशकों द्वारा या साहित्य प्रचार से ही मूर्ति को नहीं मानने वालों की आज सं. सार में बड़ी भारी संख्या है वैसे साहित्य प्रचार को नहीं