SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (68) मानने वालों की कितनी संख्या है ? कहना नहीं होगा कि साहित्य प्रचार को नहीं मानने वाली प्रभागी समाज शायद ही कोई विश्व में अपना अस्तित्व रखती हो / श्राज पुस्तक द्वारा दूर देश में रहा हुआ कोई व्यक्ति अपने से भिन्न स. माज,मत, धर्म के नियमादि सरलता से जान सकता है परन्तु यह कार्य मूर्ति द्वारा होना असंभन को भी संभव बनाने सदृश है, जिस प्रकार अनपढ़ के लिये शास्त्र व्यर्थ है उसी प्रकार मूर्ति पूजा अजैनों के लिये ही नहीं किन्तु श्रुतज्ञान रहित मूर्ति पूजकों के लिये भी व्यर्थ है / मूर्ति-पूजक बंधु जो मूर्ति को देखने से ही प्रभु का याद अाना कहते हैं, यह भी मिथ्या कल्पना है, यदि बिना मूर्ति देखे प्रभु याद नहीं आते हो तो मूर्ति पूजक लोग कभी मन्दिर को जा ही नहीं सकते क्योंकि मूर्ति तो मन्दिर में रहती है और घरमें या रास चलते फिरते तो दिखाई देती नहीं जब दिखाई ही नहीं देत तब उन्हें याद कैसे प्रासके ? वास्तव में इन्हें याद तो अपने घ पर ही श्राजाती है जिससे ये लोग तान्दुल श्रादि लेकर मन्दि को जाते हैं / अतएव उक्त कथन भी अनुपादेय है। जिनको तीर्थकर प्रभु के शरीर या गुणों का ध्यान करन हो उनके लिये तो मूर्ति अपूर्ण और व्यर्थ है ध्याता के अपने हृदय से मूर्ति को हटाकर औपपातिक सूत्र में बता हुए तीर्थकर स्वरूप का योग शास्त्र में बताए अनुसार ध्या करना चाहिये, मूर्ति के सामने ध्यान करने से मूर्ति ध्याता का ध्यान रोक रखती है, अपने से श्रागे नहीं बढ़ने देती, यह प्रत्यक्ष अनुभव सिद्ध बात है। अतएव मूर्ति पूजा करणी य सिद्ध नहीं हो सकती।
SR No.004485
Book TitleLonkashahka Sankshipta Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunamchandra, Ratanlal Doshi
PublisherPunamchandra, Ratanlal Doshi
Publication Year
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy