________________ कर श्रमण धर्म के लिये विधि विधान बतलाने वाले अनेक शास्त्र हैं, जैसे श्राचाराङ्ग सूत्रकृताङ्ग, ठाणाङ्ग, समवायाङ्ग विवाहप्राप्ति, दशवकालिक, उत्तराध्ययन आदि: इन सूत्रों में त्यागी वर्ग के लिये हलन, चलन, गमनागमन, शयन, मिता गमन, प्रतिलेखन, प्रमार्जन, पालाप-संलाम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, आराधन, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, आदि अनेक श्रावश्यक अत्यावश्यक, अल्पावश्यक कायों की विधि का विधान करने में आया है, यहां तक कि रात्रि को निद्रा लेते यदि करवट फिराना हो तो किस प्रकार फिराना, मल मूत्रादि किस प्रकार परिष्ठापन करना, कभी सूई, कैंची, चाकू या चने की श्राव. श्यकता हो तो कैसे याचना, फिर लौटाते समय किस प्रकार लौटाना, अन्य मार्ग न होने पर कभी एकाध बार नदी पार करने का काम पड़े तो किस प्रकार करना, आदि विधियों का विस्तृत विवेचन किया गया है। छेद सूत्रों में दराड विधान किया गया है कि उसमें कितने ही ऐसे कार्यों का भी दण्ड बताया गया है कि जिनका मुनि जीवन में प्रायः प्रसंग मी उपस्थित नहीं होता। इतने कथन से हमारे कहने का यह प्राशय है कि परमोपकारी तीर्थकर महाराज ने जो प्रागार और अणगार धर्म बताया है, उसमें "मूर्ति-पूजा" के लिए कहीं भी स्थान नहीं है, न मूर्ति पूजा धर्म का अंग ही है। हमारे कितने ही मूर्ति पूजक बन्धु यों कहा करते हैं कि "मूर्ति-पूजा सूत्रों में सैकड़ों जगह प्रतिपादन की गई है" किन्तु उनका यह कथन एकान्त मिथ्या है।