________________ ( 162 ) कमी रक्खी ही नहीं है। अंगोपांगादि के मूल में कल्पित पाठ मिलाने के कुछ प्रमाण देने के पूर्व श्री विजयदान सूरिजी विषयक जैन तत्वादर्श पृ० 585 का निम्न अवतरण दिया जाता है,"जिन्होंने एकादशांग सूत्र अनेक वार शुद्ध करे'।। बन्धुओ? यह बार बार अंगशुद्धि कैसी ? और वह भी श्री धर्मप्राण लोकाशाह के थोड़े ही वर्षों बाद श्री विजयदानसूरिजी ने की ! इसमें अवश्य कुछ रहस्य है। यहां हम इतना तो अवश्य कह सकते हैं कि इन शुद्धिकर्ता महोदय ने मूल में पाठान्त श्रादि के रूप से धूल तो मिला ही दी होगी, क्योंकि शुद्धिकर्ता श्री विजयदान सूरिजी श्रीमान् धर्म प्राण लोकाशाह के बाद ही हुए हैं। उधर श्रीमान् लोकाशाह ने भागमोक्त शुद्ध जनत्व का प्रचार कर मूर्ति पूजा के विरुद्ध बुलंद आवाज उठाई, मूर्ति पूजा को सर्वज्ञ अभिप्राय रहित घोषित की और शिथिल हुए माधु समुदाय की भी खबर ली, ऐसी हालत में यदि भागमों को असली हालत में ही रहने दिया जाय तब तो मूर्ति-पूजा का अस्तित्व ही खतरे में था, क्योंकि इन्हीं श्रागमों के बल पर तो लोकाशाह ने मूर्ति-पूजा का विरोध किया था ? इस लिये आगमों में इच्छित परिवर्तन करना विजयदान सूरिजी को सर्व प्रथम आवश्यक मालूम हुअा हो बस करडाली मनमानी! और इस प्रकार आगमों के नाम से जनता को अपने ही जाल में फंसाये रखने में भी सुभीता ही रहा। आगे की बात छोड दीजिये, अभी इन विजयानन्द सूरिजी ने भी पाठ परिवर्तन करने में कुछ कमी नहीं रक्खी, 'सम्यक्त्व शल्योद्धार'