________________ ( 163) हिंदी की चौथी आवृत्ति के पृ० 186 में श्री प्राचारांग सूत्र का निम्न पाठ दिया है, देखिये, (1) 'भिक्खु गामाणुगामं दृइज्जमाणे अन्तरासे नई प्रा. गच्छेज्ज एगं पायं जले किच्चा एगं पायं थले किच्चा एवं एहं संतरह। इस प्रकार पाठ लिखकर विशेष में लिखते हैं कि'यहां भगवंत ने हिंसा करने की आज्ञा क्यों दीनी ? उक्त मूल पाठ में श्री विजयानन्दजी ने कई शब्दों को उड़ा कर कैसा निकृष्ट कार्य किया है, यह बताने के लिए मूर्ति पूजक समाज के रायधनपतिसिंह बहादुर के सम्बत 1936 के छपाये हुए आचारांग सूत्र दूसरे श्रुतस्कन्ध पृ० 144 में का यही पाठ दिया जाता है- . "से भिक्खुवा भिक्खुणिवा गामाणुगामं दृइज्जमाणे अंतरासे जंघा संतारिमे उदएसिया से पुवामेव ससीसो वारियं पोदय पमज्जेज्जासे पुवामेव पमज्जित्ता जाव एग पादं जले किच्चा एगं पादं थले किच्चा तो संजया मेव जंघा संता रिमे उदगे श्राहारियं रिएज्जा"। प्रिय पाठक महोदयों ? जरा विजयानन्दजी के दिये हुए पाठ से इस पाठ का मिलान करिये, और फिर हिसाब लगाइये कि-न्यायांभोनिधि, कलिकाल सर्वज्ञ समान कहाने पाले श्री विजयानन्दसूरिजी ने इस छोटे से पाठ में से कितने शब्द चुराये हैं ? एक छोटे से पाठ को इस प्रकार विगाड़कर उसमें से अनेक शब्दों को उड़ाने वाले साधारण अक्षर या