________________ ( 160) क्या अब भी कोई गप्प की सीमा है ? हमारे मूर्ति पूजक बन्धु केवलज्ञानी भाषक सिद्धों को भी स्नान कराकर अप. वित्र से पवित्र करना चाहते हैं, सो भी उर्द्धलोक स्वर्ग के जल से ही ! वाह, कहीं केवली भी इस मनुष्य लोक के जल से नहा सकते हैं ? किन्तु इशानेन्द्र ने एक भूल तो अवश्य की, उन्हें यह नहीं सूझा कि इस स्वर्ग:गंगा को मैं मनुष्य लोक में लेजाकर पृथ्वी पर क्यों पटक हूँ / इससे तो वह इस लोक की साधारण नदियों जैसी हो गई ? कमसे कम पृथ्वी से दो चार हाथ तो ऊंची अधर रखना था, जिससे स्वर्ग-गंगा का महत्त्व भी बना रहता, शासन प्रभावना भी होती, और श्राज विचारकों को यह बात गप्प नहीं जान पड़ती। श्राज के सभी विचारक प्रायः इस बात को चंडुखाने की गप्प से अ. धिक मानने को तय्यार नहीं है / इसके सिवाय इस स्वर्ग गंगा (शत्रुजय नदी) ने भी अपना स्वभाव साधारण नदी जैसा बना लिया, विरोधी तो दूर रहे, पर 8-10 वर्ष पहले कुछ भक्तों को भी अपने विशाल पेट में समा लिये। फिर क्योंकर इसे स्वर्ग वासिनी कही जाय ? हां, जिस परम पुनीत नदी में केवल ज्ञानी भी स्नान कर पवित्र होते हैं, वहां सामान्य साधु स्नान कर कर्म मल रहित होने की चेष्टा करें इसमें तो कहना ही क्या है ? किन्तु जब हम इन लोगों के सिद्धान्त देखते हैं तब ऐसा मालूम होता है कि यह लोग भी साधुओं को स्नान करना नहीं मानते, किन्तु साधुओं के लिये स्नान का निषेध करते हैं, और स्नान से संयम भंग होना मानते हैं, वे ही ऐसे गपोड़ोंपर विश्वास कर इनको सत्य माने यह कहां का न्याय है ?