________________ यतन शास्त्रों में वर्णित पाये जाते हैं, और प्राचीन मूर्तियां भी मिलती हैं / परन्तु कोई यह कहने का साहस करे कि नहीं, जिन मन्दिर-तीर्थकर मन्दिर-और मूर्तियां भी थीं, तो यह उसकी केवल अनभिज्ञता है। वास्तव में मूर्ति पूजा का श्री गणेश पहले पहल बौद्ध मतानुयायियों ने ही किया, वह भी बुद्ध निर्वाण के बाद ही, उसमें भी प्रारम्भ में तो बुद्ध के स्तूप, पात्र, धर्मचक्र आदि की पूजा की जाने लगी, तदन्तर बुद्ध की मूर्तियां स्थापित होने लगी। और इन्हीं बौद्धों की देखा देखी जैन धर्मानुयायियों ने भी कुशाण काल में जिन मंदिरों को बनाया, और पूजा प्रतिष्ठा करने लगे। __ जैन धर्म निवृत्ति प्रधान एवं आध्यात्मिक भावों का ही द्योतक है, इस बात को भूलकर ऊपरी आडम्बर में ही धर्म 2 चिल्लाने वाले कितने शिथिल होगये थे, धर्म के नाम पर क्या 2 पाखंड रचे जाने लगे, इसका वर्णन हम श्री हरिभद्र सूरिजी के शब्दों में ही व्यक्त कर आये हैं। यही कारण है कि जैन धर्म के असली प्राण भाव को उसी समय से तिलांजली देदी गई, और पतन का सर्वनो व्यापी बना दिया गया, हमारे कहने का प्राशय यह है कि जैनियों ने प्राडम्बर को महत्व देकर लाभ नहीं उठाया, वरन् उल्टा अपना गंवा बैठे। श्रीमान् लोकाशाह ने इन्हीं शिथिलताओं को दूर कर फिर से आडम्बर रहित अहिंसा धर्म को बतलाया, और शास्त्रानुकूल जीवन व्यतीत करने का उपदेश दिया। परन्तु खेद है कि फिर भी वही पुराना ढर्रा ( अपनी ही ढपली बजाना) चल रहा है कितने ही व्यक्ति अपना अधिकार न समझकर उल्टी बातों का फैलाप करते ही रहे, और वर्तमान में कर भी रहे हैं / इतना ही नहीं सत्य जैन समाज पर अघटित आक्षेप करने से बाज नहीं आते, और अपनी तू तू मैं मैं की