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________________ आडम्बरों से पिण्ड छुड़वाया। इतनी क्रांति मचा कर भी लोकाशाह ने अपना मत या सम्प्रदाय स्थापित नहीं किया। किन्तु सत्य सनातन जैन धर्म के सिद्धान्तों का ही प्रचार किया / उन महानुभाव ने धर्म क्रांति में मूर्ति-पूजा का प्रबल विरोध किया, साधु संस्था का शैथिल्य दूर किया, नथा अधिकारवाद की शृंखला को तोड़ फेंकी / इतना करने पर भी धे एक संकुचित वर्तुल में ही बंधे हुए नहीं रहे, किन्तु विशाल क्षेत्र में पदार्पण किया, और निर्भय होकर धर्म सुधार किया। जिससे धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा रुकी, और अहिंसा धर्म का फिर से. उद्योत हुना / ऐसे अहिंसा धर्म को वृद्धिगत करने वाले वीर पुरुष का नाम लेकर कौन सत्य का पुजारी हर्षित नहीं होगा? आखिर सत्य तो सत्य ही रहता है। फलस्वरूप इन्हीं सिद्धान्तों को मानने वाले लाखों की संख्या में हुए / धर्म को बाह्य रूप नहीं देकर श्रा न्तरिक रूप दिया गया। प्राडम्बर में धर्म नहीं रह सकता, वहां स्वार्थ की छाया झलकती है / जहां स्वार्थ घुसा नहीं कि परोपकारी वृत्तियों के पैर उखड़े / धर्म प्राण लोकाशाह ने इन स्वार्थ पोषक सिद्धान्तों का प्रबल विरोध किया, और सत्य को सबके सामने रखा / उस सत्य को स्वीकार न करते हुए मिथ्यावादियों ने अपना प्रलाप तो चालू ही रक्खा, और भोले भाले जीवों को लगे भरमाने, "अरे भाई ? मूर्ति पूजा शाश्वति है। सूत्रों में स्थान स्थान पर मूर्ति पूजा का वर्णन श्राता है / मूर्ति पूजा से ही धर्म रह सकता है। हजारों वर्ष पहले की मूर्तियां है" श्रादि आदि कपोल कल्पित बातें कर कर भोली जनता को भ्रम में डालने लगे / अहा ! कितना अन्धेर ? कहां महावीर के जमाने में ही मूर्ति पूजा का प्रभाव, और कहां हजारों वर्ष ? हां, यक्षादिकों की मूर्तियां एवं यक्षा
SR No.004485
Book TitleLonkashahka Sankshipta Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunamchandra, Ratanlal Doshi
PublisherPunamchandra, Ratanlal Doshi
Publication Year
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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