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________________ (5) सर्वस्व अर्पण कर दिया। क्रियोद्धार में मंलग्न होकर विकार को निकाल फेंका। उस समय विरोधी बलने भी तेजी से प्रतिवाद किया, किन्तु अन्त में विजय तो सत्य ही की होती है, यही हुआ। विरोधियों के विरोध के कारण ये हैं(१) श्रमण वर्ग का शैथिल्य (2) चैत्यवाद का विकार (3) अहं. भाव की श्रृंखला। इन विरोधी बलों ने कई ज्योतिधरों को निरुत्साही बना दिये थे। कयों को अपने फंदे में फंसा लिया था। और कइयों को पराजित कर दिया था। किन्तु श्रीमान् लोकाशाह इन सब विरोधी बलों को धकेलते हुए रास्ता साफ करते गये / और जैन धर्म को फिर से देदीप्य. मान बनाते गये। श्रमणवर्ग के शिथिलाचार का प्रबल बिरोध किया, तथा सत्य सिद्धांतों का प्रचार किया। धन्य है इन धर्म प्राण लोकाशाह को कि जिन ने धर्म के नाम पर अपने तन, मन, धन और स्वार्थ की बाजी लगा दी, और परार्थवृत्ति धारण कर फिर से जैन धर्म का सितारा चमका दया / इस प्रकार शिथिलाचार को दूर फेंकने वाले श्रीमान् लोकाशाह कितने वीर पुरुष थे, उनमें धीरता और गम्भीरता केतनी थी, इस विषय में कुछ लिखना सूर्य को दीपक दिखाके के समान है। ऐतिहासिक रष्टि से एक अंग्रेज लेखिका श्रीमान् शाह के विषय में लिखती है कि "About A. 1). 1452 x The Lonka Seot arose ind was followed by the Sthanakwasi sect, dated wbich coincide strikingly with the Lutheran and Paritan movements in Europe. [Heart of Jainism] इस पर से स्पष्ट मालूम होता है कि श्रीमान् लोका शाह ने हम पर बहुत उपकार किया / हमें ढोंग और धतिंग से पंचाया। धर्म निवृत्ति में ही है, इस बात को बताकर बाह्य
SR No.004485
Book TitleLonkashahka Sankshipta Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunamchandra, Ratanlal Doshi
PublisherPunamchandra, Ratanlal Doshi
Publication Year
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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