________________ (4) मां मंगावी ले छे / क्रय-विक्रयना कार्यों मां भाग ले छे / नाना बालकों ने चेलां करवा माटे वेचता ले छे। बैदु करे छ / दोरा धागा करे छे। शासननी प्रभावना ने वहाने लड़ालड़ी करे छ / प्रवचन संभलावीने गृहस्थो पासे थी पैसानी आकांक्षा राखे छे / ते बधामां कोई नो समुदाय परस्पर मलतो नथी। बधा अहमिंद्र छे / यथा छन्दे वर्ते छ / " आदि, इस प्रकार बतला कर अन्त में वे प्राचार्य ऐसा कहते हैं कि "श्रा साधुओ नथी पण पेट भराशोनुं टोलुं छे / " श्रीमान् हरिभद्रसरि के समय में ही जब स्वच्छन्दता एवं शिथिलता इतनी हद तक अपनी जड़ जमा चुकी थी तब श्रीमान् लोंका. शाह के समय तक यह कितनी बढ़ गई होगी, इसका अनुमान पाठक स्वयं ही कर सकते हैं। श्रीमान लोकाशाह को भी इसी शिथिलाचार को हटाने के लिए क्रान्ति मचानी पड़ी। उनसे ऐसी भयंकर परिस्थिति नहीं देखी गई। उन्होंने देखा, धर्म के नाम पर पाखण्ड हो रहा है। अव्यवस्था, रूढियों के ताण्डव नृत्य, स्वार्थ और विलास का श्रमणों पर अत्य. धिक अधिकार हो गया है। इसी के फल स्वरूप जैन धर्म का महत्व एक दम उतर गया। धर्म के नाम पर गरीब और निर्दोष प्रजा पर अत्याचार हो रहा है। कुरूढ़िये, वहम, अन्ध श्रद्धा और सत्ताशाही श्रादि से जनता त्रास को प्राप्त हो चुकी / शांति के उपासक श्रमण प्रचण्ड बन गये / समाज सर्व संघ के रक्षक होकर संघ की शक्तियों का भक्षण करने लगे। ऐसी हालत, वह भी धर्म के नाम पर, भला इसे एक सत्य धर्म का उपासक कैसे सहन कर सके ? श्रीमान शाह भी स्वच्छन्दता के ताण्डव को सहन नहीं कर सके / यही कारण है कि उन्होंने स्वछन्दता को दूर करने के लिये अपना तन, मन, धन,