SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (2) समय भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध जैसी प्रबल व्यः क्तियों का प्रादुर्भाव हुश्रा। उन्होंने यज्ञ यागादिक का जोरशोर से विरोध किया। धर्म के नाम पर होने वाले प्रत्याचारों को नेस्तनाबूद कर दिया। धर्म तीर्थ व्यवस्था पूर्वक चलता रहे इसके लिये साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध श्रीसंघ की स्थापना की। दीर्घ काल तक उस संघ का नेतृत्व समर्थ मुनियों द्वारा होता रहा, और संघ का कार्य सुचारु रूप से चलता रहा / किन्तु धीरे-धीरे संघ में मत भिन्नता होने लगी, और उस मत भिन्नता ने कदाग्रह का रूप पकड़ कर एकता की शंखला को तोड़ डाला। यहां से अवनति का श्री गणेश हुा / जब साधुओं में आपस में भिन्नता हो गई तर स्वच्छन्दता के वातावरण का उन पर भी असर हुए बिना नहीं रहा। आखिरकार किसी समर्थ पुरुष का दबाव नहीं रहने से स्वछन्दता युक्त शिथिलाचार बढ़ने लगा। बढ़ते बढ़ते श्रीमान् हरिभद्रसूरि के समय में तो प्रकट रूप से बाहर भागया। उस समय शिथिलता का कितना दौर दौरा था, इसका वर्णन हम अपने शब्दों में नहीं करते हुए श्रीमान् हरिभद्रसूरि के ही शब्दों में बताते हैं। प्राचार्य हरिभद्रसूरिजी ने "संबोधप्रकरण" में बहुत कुछ लिखा है उसके थोड़े से वाक्य यहां उद्धत किये जाते हैं। ___ "श्रा लोको चैत्य अने मठ मां रहे छ / पूजा करवानो प्रारम्भ करे छे / फल फूल अने सचित्त पाणी नो उपयोग करावे छे / जिन मन्दिर अने शाला चणावे छ / पोतानो जात माटे देव द्रव्यनो उपयोग करेछ / तीर्थना पंड्या लोकोनी माफक अधर्म थी धननो संचय करे छे / पोताना भक्तो पर भभूति पण नाखे छ, सुविहित साधुश्रोनी पासे पोताना
SR No.004485
Book TitleLonkashahka Sankshipta Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunamchandra, Ratanlal Doshi
PublisherPunamchandra, Ratanlal Doshi
Publication Year
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy