________________ ( 23 ) विश्रलाणतेणं बालवित्तएवा, संलवित्तएवा, तेसि असणंवा, पाणंवा, खाइमंवा, साइमंवा, दाउंवा अणुप्पदाउंवा'। __ अर्थात-इसमें प्रानन्द श्रावक प्रतिज्ञा करता है किनिश्चय से आज पश्चात मुझे अन्य तीर्थिक, अन्य तीर्थ के देव, और अन्य तीर्थी के ग्रहण किये हुए साधु को बंदन नमस्कार करना, उनके बोलाने से पूर्व बोलना, बारंबार बो. लना, असण, पाण, खादिम, स्वादिम, देना, बारंबार देना, यह नहीं कल्पता है। अब कल्पता क्या है सो कहते हैं-- 'कप्पड़ मे समणेणिग्गन्थे फासूएणं ऐसणिज्जेणं, असण, पाण, खाइम, साइम, वत्थ, पड़ि. ग्गह, कंवल, पादपुच्छणेणं, पीढ, फलग, सिन्जा, संथारेणं, ओसह, भेसज्जेणं, पडिलाभेमाणे विहरित्तए'। ___ अर्थात्--प्रानन्द श्रावक प्रतिज्ञा करता है कि-मुझे श्रमण निग्रंथ को प्रासुक एषणिक असण पाण, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पात्रपुच्छना, पीठ, फलक, शया, संथारा, औषधि, भेषज्य प्रतिलाभते हुये विचरना कल्पता है। यहां प्रानन्द श्रावक सम्बन्धी कल्पनीय तथा अकल्पनीय विषयक दोनों पाठ दिये गये हैं, इस पर से मूर्तिपूजा कैसे सिद्ध हो सकती है ? मूर्तिपूजक लोग अर्वाचीन प्रति ओं