________________ (28) है ? इस पर से तो मू० पू० बंधुओं को यह समझना चाहिये कि जिस विस्तृत कथन में ऐसी छोटी 2 बातों का कथन हो, और मूर्तिपूजा जैसे धार्मिक कहे जाने वाले दैनिक कर्तव्य के लिये बिन्दु विसर्ग तक भी नहीं,, यह साफ बता रहा है कि वे आदर्श श्रावक मूर्तिपूजक नहीं थे। (2) स्वामीजी ने हिम्मत पूर्वक यह डींग मारो है कि 'समवायांग में यह बात प्रत्यक्ष है' यह लिखना भी झूठ है, क्योंकि समवायांग में प्रानन्द श्रावक का वर्णन तो ठीक पर नाम भी नहीं है, हां समवायांग में उपासगदशांग की नोंध अवश्य है, उस नोंध में यह बताया गया है कि 'उपासगदशांग में श्रावकों के नगर, उद्यान, व्यन्तराय तन, बनखण्ड, राजा, माता पिता, समवसरण, धर्मावार्य धर्मकथा, इह लोक, परलोक आदि का वर्णन है' बस समवायांग में यही नोंध है और इसी को विजयानन्दजी मू० पू० का प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं ? हां यदि इसमें यह कहा गया होता कि उपासगदशांग में श्रावकों के मन्दिर मूर्ति पूजने दर्शन करने यात्रार्थ संघ निकालने श्रादि विषयक कथन है मू० पू० के लिये यह खास प्रमाण रूप मानी जासकती थी, किन्तु जब इसकी कुछ गंध ही नहीं फिर कैसे कहा जाय कि समवायांग में प्रत्यक्ष है ? विजयानन्दजी के उक्त उल्लेख का अाधार वहां श्राया हुआ एक मात्र 'चैत्य' शब्द ही है। जिसका शुद्ध और प्रकरण संगत अर्थ 'व्यन्तरायतन' नहीं करके स्वामी जी ने जो जिन मन्दिर अर्थ किया यह इन की उक्ति से भी बाधित होता है क्योंकि- . (अ) उपासगदशांग में जो चैत्य शब्द पाया है वही