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________________ (26) चैत्य शब्द समवायांग में भी पाया है जब उपासगदशांग में ही स्वामीजी के कथनानुसार मूर्ति पूजा का लेख नहीं है तब समवायांग में केवल इसी शब्द से प्रत्यक्ष और खुल्ला मूर्ति पूजा का पाठ कैसे हो सकता है ? अतएव उपासगदशांग की तरह समवायांग का पाठ भी इसमें प्रमाण नहीं हो सकता। (श्रा) स्वामी जी ने उपासगदशांग में अपने मत के अ. नुकूल 'अरिहंत चेइयाई पाठ माना है, किन्तु स्वामी जी के दिये हुए इस समवायांग के प्रमाण पर विचार करने से वह भी उड़ जाता है, क्योंकि___ स्वामीजी तथा इनके अनुयायियों की मान्यतानुसार जो 'अरिहंत चेइयाई' यह शब्द असल मूल पाठ का होता तो इससे मूर्ति वन्दन नहीं मात कर इन्हें समवायांग के केवल 'चेइयाई' शब्द (जो व्यन्तरायतन अर्थ को बताने वाला है) की और प्राथा से तरसना नहीं पड़ता। समवायांग के पाठ का प्रमाण देना ही यह बता रहा है कि उपासगदशांग में मूर्ति पूजा का वर्णन ही नहीं है . या प्रक्षिप्त (अरिहंत चेह. याई ) पाठ में खुद इन्हें भी संदेह ज्ञात हुआ है। इस पर से भी उक्त पाठ क्षेपक सिद्ध होता है / (3) स्वामीजी के लिखे हुए उपासगदशांग में मूर्ति पूजा का पाठ नहीं होकर समवायांग में है' इससे तो उल्टी एशियाटिक सोसायटी कलकत्ता वाली प्रति का अरिहंत चेइ. याई बिना का पाठ ठीक जान पड़ता है, क्योंकि उपासगदशांग और समवायांग इन दोनों में मात्र 'चेइयाई' शब्द ही चैत्यं-व्यन्तरायतनं, समवा० टीका पत्र १०८सूत्र 141 श्रा. स.
SR No.004485
Book TitleLonkashahka Sankshipta Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunamchandra, Ratanlal Doshi
PublisherPunamchandra, Ratanlal Doshi
Publication Year
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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