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________________ ( 157 ) होता है उतना ही पुण्य शत्रुजय पर मात्र एक उपवास करने से ही हो जाता है। ___ हां, है ही बड़े मतलब की बात पैसे बचे और लाखों रुपये के खर्च के बराबर पुण्य भी मिल गया, फिर व्यर्थ ही द्रव्य व्यय कर भूखों को अन्नदान देने की आवश्यकता ही क्या है ? ऐसा सस्ता सौदा भी नहीं कर सके वैसा मूर्ख कौन है ? भाग्य फूटे बेचारे दीन दुखियों के कि जिनके पेट पर यह फल विधान की छुरी फिरी / आगे बढ़िये अठावयं समेए पावा चंाई उज्जत नगेय / वंदित्ता पुन्नं फलं, सयगुणंतपि पुंडरिएं // अर्थात्-अष्टापद जहां श्री ऋषभ देवजी, समेदशिखर जहां बीस तीर्थंकर पावापुरी में श्री महावीर प्रभु चम्पा में श्री वासु पज्यजी गिरनार जहां श्री नेमिनाथजी मोक्ष पधारे इन सभी तीर्थों के वन्दन का जो पुण्य फल होता है उससे भी सो. गुण अधिक फल पुंडरिक गिरि के दर्शन से होता है। __घर और व्यापार के कार्यों को छोड़ कर दूर दूर के अन्य तीर्थों में भटकने वाले शायद मूर्ख ही हैं, जो केवल एक बार शत्रंजय के दर्शन कर अन्य तीर्थों से 'सोगुण अधिक लाभ प्राप्त नहीं कर लेते ! इस विधान से गुजरात, काठियावाड़, महाराष्ट्र, मालवा, आदि देशों के रहने वाले मूर्ति पूजक भाइयों के लिए तो पूरे पौवारह है, इन्हें अब अपने समय और द्रव्य का विशेष व्यय कर बिलकुल थोड़े लाभ के लिए दूर के तीथों में जाने की जरूरत नहीं रही, थोड़े समय और द्रव्य खर्च से अपने पास ही के शत्रुजय पर एक बार जाकर इस विधान के अनुसार महान लाभ प्राप्त कर लेना चाहिये।
SR No.004485
Book TitleLonkashahka Sankshipta Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunamchandra, Ratanlal Doshi
PublisherPunamchandra, Ratanlal Doshi
Publication Year
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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