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________________ ( 158 ) ब्यापारिक समाज तो सदैव सस्ते सौदे को ही पसन्द करती है। अधिक खर्च कर थोड़ा लाभ प्राप्त करना और थोड़े खर्च से होने वाले अधिक लाभ को छोड़ देना व्यापारियों के लिये तो उचित नहीं है / इसलिए इन्हें अन्य तीर्थों में जाना एक दम बन्द कर देना चाहिए / अब जग सम्हल कर पढ़िये - चरण रहियाई संजय, विमल गिरि गोयमस्स गणि प्रो। पडिला भेय मेग साहण', अड्ढी दीव साहू पडिल भई // अर्थात्-चारित्र से रहित (केवल वेषधारी ) ऐसे साधु को भी विमल गिरि पर गौतम गणधर के समान म्.मझना चाहिए ऐसे एक साधु को प्रतिलाभने से अढ़ाई द्वीप के सभी साधुओं को प्रतिलाभने का फल होता है। (ऐसा ही फल विधान श्रावकों के लिये भी है।) - उक्त गाथा से हमारे मूर्ति पूजक बन्धुओं के लिये अब विनकुल सरल मार्ग हो गया है, न तो गृहस्थाश्रम छोड़ने की आवश्यकता है, और न मेरु समान कठिन पंच महाव्रत पालना भी आवश्यक है, निरर्थक कष्ट सहन करने की प्रा. वश्यकता ही क्या है ? जबकि केवल शत्रुजय पर्वत पर साधु वेष पहन कर कोई भी व्यलिंगी चला श्रावे तो वह गौतम गणधर जैसा बन जाता है इससे अधिक तब चाहिये ही क्या? और भावुक भक्तों को भी किसी ऐसे द्रव्यलिंगी को बुलाकर शीघ्र ही मिष्टान्न से पात्र भर देना चाहिये, बस होगया बेड़ापार / विश्व भर के सुविहित साधुओं को दान देने का महाफज सहज ही प्राप्त होगया, कहिये कितना सस्ता सौदा है ? क्या ऐसा सहज, सुखद, सस्ते से सस्ता और
SR No.004485
Book TitleLonkashahka Sankshipta Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunamchandra, Ratanlal Doshi
PublisherPunamchandra, Ratanlal Doshi
Publication Year
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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