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________________ (156) नमन सेवा करने का कथन मिलता है, किन्तु किसी भी स्थान पर किसी अन्य सचित्त या अचित्त पदार्थ से पूजा करने का उल्लेख नाम मात्र भी नहीं है, फिर श्रीमद् हेमचन्द्रजी ने जो कि से 1700 वर्ष पीछे हुए हैं, सचित्त फूलों से पूजने का हाल किस विशिष्ठ ज्ञान से जान लिया / खैर। अब पाठक इनके पहाड़ों की प्रशंषा दर्शक बचनों की भी कुछ हालत देखें-शत्रुजय पर्वत की महत्ता दिखाते हुए लिखा "ज लहइ अन्न तित्थे, उग्गेण तवेण बंम चरेण / तं लहइ पयत्तेण सेत्तंज गिरिम्मि निवसन्तो॥" ___ अर्थात्-जो फल अन्य तीर्थों में उत्कृष्ट तप और ब्रह्मचर्य से होता है, वही फल उद्यम करके शत्रंजय में निवास करने से होता है। ___ बस चाहिये ही क्या ? फिर तप ब्रह्मचर्य पालन कर काय कष्ट कयों किया जाता है ? जव भयंकर कष्ट सहन करने का भी फल मात्र शत्रंजय पर्वत पर निवास करने समान ही हो तो फिर महान तपश्चर्या कर व्यर्थ शरीर और इन्द्रियों को कष्ट क्यों देना चाहिये ? इस विधान से तो साधु होकर संयम पालन करने की भी आवश्यकता नहीं रहती / और देखियेजंकोड़ीए पुन्नं कामिय-आहार भोइ आजेउ / जं लहइ तत्थ पुन्न, एगो वासेण सेतुंजे // . अर्थात्--क्रोडी मनुष्यों को भोजन कराने का जितना पुण्य
SR No.004485
Book TitleLonkashahka Sankshipta Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunamchandra, Ratanlal Doshi
PublisherPunamchandra, Ratanlal Doshi
Publication Year
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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