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________________ पर के द्वेष को शान्त कर उसे जैन धर्मी बना दिया, यह कथन भी ठीक नहीं, क्योंकि-जैन धर्म का प्रभाव फूलों या फलों से मूर्ति पूजने में नहीं किन्तु, इसके कल्याणकारी प्राणीमात्र को शान्तिदाता ऐसे विशाल एवं उदार सिद्धांत से ही होता है। वज्र स्वामी पूर्वधर और अपने समय के समर्थप्रभावक आचार्य थे, वे चाहते तो अपने प्रकाण्ड पांडित्य और महान् आत्मबल से धर्म एवं जिन शासन की प्रभावना करके जैनत्व की विजय वैजयंति फहरा सकते / क्या लाखों फूलों की हिंसा करने में ही धर्म एवं शासन की प्रभावना है / क्या श्रीमद्वज्रस्वामीजी में शान और चारित्र बल नहीं था, जो वे लाखों पुष्पों के प्राण लूट का असाधुता का कार्य करते। यदि सत्य कहा जाय तो दशपूर्वधर श्रीमवज्राचार्य ने साधुता का घातक और आस्रव वर्धक ऐसा कार्य किया ही नहीं न कल्प सूत्र के मूल में ही यह बात है, किन्तु पीछे से किती महामना महाशय ने इस प्रकार की चतुराई किली गुप्त आशय से की है ऐसा मालुम होता है, इस प्रकार समर्थ आचार्यों के नाम लेकर अन्ध श्रद्धालुओं से आज तक मनमानी क्रियाएं करवाई जा रही हैं। इसी प्रकार त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र, जैन रामायण, पाण्डव चरित्र समरादित्य चरित्र आदि ग्रंथों की कथाओं में सैंकड़ों स्थानों पर मूर्ति की कल्पित कथाएं गढ़ी गई हैं, श्री हेमचन्द्राचार्य ने महावीर चरित्र में तो यहां तक लिख दिया कि “इन्द्रशर्मा ब्राह्मण ने साक्षात प्रभु को भी सचित्त फूलों से पूजा की थी " जो अनन्त चारित्रवान प्रभु सचित्त पुष्प, बीज मादि का स्पर्श भी नहीं करते उनके लिए ऐसा कहना असत्य नहीं तो क्या है ? सूत्रों में अनेक स्थानों पर एक सम्राट से लेकर सामान्य जन समुदाय ट्रक के प्रभु भक्ति का अर्थात् वन्दन
SR No.004485
Book TitleLonkashahka Sankshipta Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunamchandra, Ratanlal Doshi
PublisherPunamchandra, Ratanlal Doshi
Publication Year
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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