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________________ ( 151) माश्रव वर्द्धक कथन जैन मुनि तो कदापि नहीं कर सकता। मेरे विचार से उक्त कथन केवल इन्द्रियों के विषय पोषण रूप स्वार्थ से प्रेरित होकर ही किया गया है, सुगन्धित पुष्पों से घाणेन्द्रिय के विषय का पोषण होता है, और इसी लिए अरुचि कर खट्टी गंध वाले, सड़े बिगड़े ऐसे फूलों का बहिष्कार किया गया है, श्रवणेन्द्रिय के विषय का पोषण करने के लिए वाजिंत्र युक्त, गान, तान पर्याप्त है, नेत्रों का विषय पोषण, सुन्दर अंगी पत्र भंगी. दीप गशि. मनोहर सजाई, यंत्र से जलका विचित्र प्रकार से होड़ना, और नृत्त्य आदि से हो ही जाता है, रसेन्द्रिय के विषय पोषण के लिए तो चरू कढ़ाई आदि की सूचना हो ही गई है, इसी से रूदोष आहार भी उपादेय माना जा रहा है और भक्तों को तांबूल प्रधान करने का संकेत भी कुछ थोड़ा महत्त्व नहीं रखता, शारीरिक सुखों की पूर्ति की तो बात ही निराली है, इसीलिए तो "जैन तत्वादर्श पृ० 462 में यह भी लिख दिया गया है कि- .. ११-साधुओं की पगचंपी करे। इस प्रकार सभी कार्य पांचों इन्द्रियों के विषय पोषक हैं, यदि ऐसे कार्यों के लिए भी ग्रन्थों में विधान नहीं होतो इच्छा पूर्ण किस प्रकार हो सके / धर्म की ओट में सब चल सकता है, नहीं तो व्यापारी समाज अपनी गाढ़ी कमाई के पैसे को कभी भी ऐसे नुकतानकारी कार्य में खर्च नहीं करे, वणिक लोगों से जाति या धर्म के नाम से ही इच्छित ख़र्च करवाया जा सकता है। ऐसे ही कार्यों में यह समाज उदार है। बन्धुओ ? आप केवल विजयानन्दजी के उक्त अवतरण देख कर यह नहीं समझे कि-इनके सिवाय और किसी मूर्ति पूजक
SR No.004485
Book TitleLonkashahka Sankshipta Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunamchandra, Ratanlal Doshi
PublisherPunamchandra, Ratanlal Doshi
Publication Year
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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