________________ ( 117) तन्त्र भिन्न अर्थ करके यहां दोनों को सम्बन्धित करके बाद में उपमावाची वाक्य की तरह लगा देना क्या मत मोह नहीं है ? फिर भी अर्थ तो अलंगत ही रहा, टीकाकार के मत से भी बाधित ठहरा / अतएव उक्त मनमाने अर्थ से प्रश्न को सिद्ध करने की चेष्टा विफल ही है। मूर्ति पूजक समाज के प्रसिद्ध विद्वान पं० वेवरदासजी को भी चैत्य शब्द का जिन मूर्ति अर्थ मान्य नहीं, इस अर्थ को पंडितजी नूतन अर्थ कहते हैं देखो जन माहित्य मां विकार थवाथी थये ली हानि ) ___ इसके सिवाय जिन-मूर्ति को जिन समान मानने वाले बन्धु राजप्रश्नीय की साक्षी देते हुए कहते हैं कि यहां जिन प्रतिमा को जिन समान कहा है किन्तु यह समझना उनका भूल से भरा हुआ है, गजप्रश्नीय में केवल शब्दालंकार है, किन्तु उसका यह श्राशय नहीं कि मू साक्षात् के समान एक साधारण बुद्धि वाला मनुष्य भी यह जानता है कि पत्थर निर्मित गाय साक्षात् गाय की बराबरी नहीं कर सक. ती, साक्षात् गाय से दूध मिलता है, और पत्थर की गाय से बस पत्थर ही। जब साक्षात् फूलों से मोहक सुगन्ध मिलती है तब कागज़ के बनाये हुए फूलों से कुछ भी नहीं / साक्षात् सिंह से गजराज भी डरता है किन्तु पत्थर के वनाघटी सिंह से भेड़, बकरी भी नहीं डरती। असली रोटी को खाकर सभी सुधा शान्त करते हैं किन्तु चित्रनिर्मित कागज की रोटी को खाने का प्रयत्न तो मूर्ख और बालक भी नहीं करते / इस प्रकार असल नकल के भेद और उसमें रहा हुमा महान् अन्तर स्पष्ट दिखाई देता है, असल की बराबरी नकल कभी नहीं कर सकती, फिर धुरंधर विद्वान और शास्त्र कहे जाने