________________ ( 116 ) की अधिकता है क्या अब भी अनर्थ में कुछ कसर है ? कि इसका अर्थ जो प्रकरण संगत वह मूल पाठ और उस शुद्ध अर्थ निम्न प्रकार से है देखियेकल्लारणं, मंगलं, देवयं, चेइयं, पज्जुवासामि अर्थ-श्राप कल्याणकर्ता हैं, मंगल रूप हैं धर्मदेव हैं, ज्ञानवंत हैं, मैं आप की सेवा करता हूं। यह अर्थ शुद्ध और प्रकरण संगत है, स्वयं राज प्रश्नीय के टीकाकार आचार्य भी उक्त पाठ की टीका इस प्रकार करते हैं देखिये---क०कल्याण करित्वात मं० दुरितोपशम कारि त्वात् दे० त्रैलोक्याधि पतित्वात् चैत्यं सुप्रशस्त मनोहेतुत्वात् ___ यहां स्वयं प्रभु को वन्दना करने के विषय में उक्त शब्द का टीकाकार ने सुप्रशस्त मन के हेतु कहकर स्वयं सर्वज्ञ प्रभु को ही इसका स्वामी माना है और प्रभु अनन्त ज्ञानी है अतः हमारा उक्त अर्थ ही सिद्ध हुआ। इसका प्रतिमा अर्थ इनके माननीय टीकाकार के मन्तव्य से भी बाधित हुआ। श्रतएव इस युक्ति से जिन प्रतिमा को जिन समान कहना व्यर्थ ही ठहरता है। जब कल्लागणं, मंगलं, दो शब्दों का अर्थ तो आपभी क ल्याणकारी, मंगलकारी करते हैं, तब देवयं, चेइयं, इन दो शब्दों का देवता सम्बन्धी चैत्य जिन प्रतिमा की तरह ऐसा अघटित अर्थ किस प्रकार करते हैं ? देवयं, चेहयं, भी कल्लाणं, मंगलं की तरह पृथक दो शब्द है वहां दोनों का स्व.