________________ ( 118) वाले मूर्ति को अनंत ज्ञानी, अनंत गुणी ऐसे तीर्थकर प्रभु समान ही माने और वंदना पूजादि करे, यह कितनी हास्य जनक पद्धति है। जबकि-साक्षात् हाथी का मूल्य हजारों रुपया है उसका दैनिक खर्च भी साधारण मनुष्य नहीं उठा सकता, राजा महाराजा ही हाथी रखते हैं, हाथी रखने में बहुत बड़ी आर्थिक शक्ति की आवश्यकता है, इससे उल्टा मूर्ति की ओर देखिये, एक कुम्हार मिट्टो के हजारों हाथी बनाता है और वे हाथी पैसे 2. में बाजार में बालकों के खेलने के लिए बिकते हैं / इस पर ही यदि विचार किया जाय तो असल व नकल में रही हुई भिन्नता स्पष्ट दिखाई देती है। जब साक्षात एक हाथी का ही मूल्य हजारों रुपया है, तब हाथी की एक हजार मूर्तियों का मूल्य हजार पैसे भी नहीं / असल हाथी के रखने वाले राजा महाराजा होते हैं, तब मिट्टी के हजारों हाथी रखने वाले कुम्हार को भर पेट अन्न और पूरे वस्त्र भी नहीं / यदि ऐसे हजारों हाथी वाला कुंभकार राजा महाराजा की बराबरी करने लगे और गर्व यक्त कहे कि-'राजा के पास तो एक ही हाथी है किन्तु मेरे पास ऐसे हजारों हाथी हैं इसलिए मैं तो राजाधिराज (सम्राट) से भी अधिक हूं" ऐसी सूरत में वह कुंभकार अपने मुंह भले ही मियाँ मिट्ट बनजाय किन्तु सर्व साधारण की दृष्टि में तो वह सिर्फ "शेखचिल्ली" ही है। - बस यही हालत "जिन प्रतिमा जिन सारखी" कहने वालों की है यद्यपि मूर्ति को साक्षात् के सदृश मानने का कथन