________________ ( 137 ) मनोरथ करते हैं, श्रावक के तीन मनोरथों में सर्व प्रथम मनोरथ यही है ऐसे श्राद्धवर्य कभी भी आवश्यकता से अ. धिक प्रारम्भ नहीं करते, ऐसी हालत में निरर्थक व्यर्थ का प्रारम्भ तो वे विवेकी श्रावक करें ही कैसे ? व्यवहारिक कार्यों में जहां द्रव्य व्यय होता है, वहां भी सुज्ञ मनुष्य आवश्यकतानुसार ही खर्च करता है, निरर्थक एक कौड़ी भी नहीं लगाता। और ऐसे ही मनुष्य संसार में आर्थिक संकट से भी दूर रहते हैं / जो निरर्थक आंख मूंद कर द्रव्य उड़ाते हैं, उनको अन्त में अवश्य पछताना पड़ता इसी प्रकार निरर्थक प्रारम्भ करने वाला भी अंत में दुःखी होता है। __मूर्ति पूजा में जो भी प्रारम्भ होता है वह सब का सब निरर्थक व्यर्थ और अन्त में दुःख दायक है। विवेकी श्रावक जो गृहस्थाश्रम में स्थित होने से प्रारम्भ करता है, वह भी प्रारम्भ को पाप ही मानता है, और इस प्रकार अपने श्रद्धान को शुद्ध रखता हुधा ऐसे पाप से पिण्ड छुडाने की भावना रखता है। किन्तु मूर्ति पूजा में जो प्रारम्भ होता है वह हेय होते हुए भी उपादेय (धर्म, माना जाकर श्रद्धान को बिगाड़. ता है। और जब प्रारम्भ को उपादेय धर्म ही मानलिया तब उसे स्यागने का मनोरथ तो हो ही कैसे ? अतएव मूर्ति-पूजा में होने वाला प्रारम्भ निरर्थक अनावश्यक है तथा श्रद्धान को अशुद्ध कर सम्यक्त्व से गिराने वाला है अतएव शीघ्र स्यागने योग्य है।