________________ (36) केवलज्ञानादि भावगुणयुक्त अरिहन्त और अरिहन्त चैत्य से छदमस्थ अवस्था में रहे हुए द्रव्य अरिहन्त अर्थ होना चाहिये यहां यही अर्थ प्रकरण संगत इसलिए है कि-चमरेन्द्र छद. मस्थ महावीर प्रभु का ही शरण लेकर गया था, और इसी लिए यह दूसरा अरिहन्त चैत्य शब्द लेना पड़ा / यदि अरिहन्त चैत्य से मूर्ति अर्थ करेगे ती चमरेन्द्र पास ही प्रथम स्वर्ग की मूर्तियां छोड़कर व अपने जीवन को संकट में डाल कर इतनी दूर तिरछे लोक में क्यों आता ? वहां तो यह भयाकुल बला हुआ था इसलिए समीप के श्राश्रय को छोड़ कर इतनी दृर श्राने की जरूरत नहीं थी, किन्तु जब मूर्ति का शरण ही नहीं तो क्या करें ? चार मांगलिक चार उत्तम शरणों में भी मूर्ति का कोई शरणा नहीं है, फिर यह व्यर्थ का सिद्धांत कहां से निकाला गया ? जब कि मूर्ति स्वयं दूसरे के श्राश्रय में रही हुई है / और उसकी खुद की रक्षा भी दूसरे द्वारा होती है, फिर भी मौका पाकर आततायी लोग मूर्ति का अनिष्ट कर डालते हैं तो फिर ऐसी जड़ मूर्ति दूसरों के लिए क्या शरण भूत होगी? / __ आश्चर्य होता है कि ये लोग खाली शब्दों की स्त्रींचतान करके ही अपना पक्ष दूसरों के सिर लादने की कोशिष करते हैं और यही इनकी असत्यता का प्रधान लक्षण है, इस प्रकार किसी धार्मिक व सर्वमान्य, श्राप्तकथित कहे जाने वाले सिद्धांत की सिद्धि नहीं हो सकती, उसके लिए तो श्राप्तकथित विधि विधान ही होना चाहिये। -