________________ ( 105) वीर प्रभु के शासन में ही होना प्रतीत होता है / अनुयोग द्वार सूत्र में षडावश्यक के नामों का पृथक 2 उल्लेख किया गया है, वहां दूसरे आवश्यक का नाम चतुर्विंशतिस्तव नहीं बताकर 'उत्कीर्तन' (उक्कित्तण) कहा है, अतएव चतुर्विंशतिस्तव नाम वर्तमान २४वें तीर्थकर के शासन में होना सिद्ध होता है। चतुर्विंशतिस्तव का पाठ भी भूतकाल में बीते हुए तीर्थकरों की स्तुति को ही स्थान देता है, इसके किसी भी शब्द से भविष्यकाल में होने वाले की स्तुति सिद्ध नहीं होती भूतकालीन जिनेश्वरों की स्तुति रूप निम्न वाक्यों पर ध्यान दीजिये: "विहूय-रयमला, पंहिण जरमरणा, चउविसपि जिणवरा तित्थयरा मेपसियंतु कित्तिय, वन्दिय, महिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा. आरुग्ग बोहिलाभ, समाहिवर-मुत्तमंदितु, चन्देसु निम्मलयग, प्राइच्चेसु अहियं पयासयरा, सागरवरगम्भीरा, 'सिद्धा' सिद्धि मम दिसंतु, अर्थात्-चौवीसों ही जिनेश्वरों ने कर्म रजन्यायमल को दूर कर दिया है, जन्म मरण का क्षय किया है, अहो तीर्थंकरों मुझ पर प्रसन्न होवो / मैं आपकी स्तुति वन्दना और पूजा ( भावद्वारा) करता हूं। श्राप लोक में उत्तम हैं। अहो सिद्धों! मुझे आरोग्य और बोधि लाभ प्रदान करो / तथा प्रधान ऐसी समाधि दो / श्राप चन्द्र से अधिक निर्मल और सूर्य से