________________ ( 106) अधिक प्रकाशमान हैं, सागर से भी अधिक गम्भीर हैं। अहो सिद्ध प्रभो ? मुझे सिद्धि प्रदान करो।" . यह स्तुति ही भाव प्रधान जीवन को बता रही है। अब हमारे प्रेमी पाठक जरा शान्त चित्त से विचार करें और बतायें कि-चतुर्विंशतिस्तव (लोगस्स) का कौनसा शब्द चतुर्गति में भ्रमण करने वाले द्रव्य तीर्थंकरों को वंदना. दि करना बतलाता है ? यह पाठ तो स्पष्ट 'सिद्ध' विशेषण लगाकर यह सिद्ध कर रहा है कि-जिन तीर्थंकरों की स्तुति की जा रही है वे सिद्ध हो चुके हैं, जिन्होंने जन्म मरण का अन्त कर दिया है, जिनकी आत्मा रज, मल रहित अर्थात् विशुद्ध है श्रादि वाक्य प्रश्नकार की कुयुक्ति का स्वयं छेदन कर रहे हैं, अतएव यह स्पष्ट हो चुका कि-द्रव्य निक्षेप वंदनीय पूजनीय नहीं है। और जब द्रव्य निक्षेप ( जोकिभाव का अधिकारी किसी समय था, या होगा) भी वंदनीय पूजनीय नहीं तो मन कल्पित स्थापना-मूर्ति अवंदनीय हो इसमें कहना ही क्या है ? यहां तो शंका को स्थान ही नहीं होना चाहिये।