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________________ ( 72) प्रभोः समवसरण, स्थितस्य परमेष्ठिनः / / 6 / / सीतिशय युक्तस्य केवल ज्ञान भास्वतः / अर्हतो रुपमालव्य, ध्यानं रूपस्थ मुच्यते // 7 // ____ इन सात श्लोकों में बताए अनुसार साक्षात् समवसरण में बिराजे हुए सम्पूर्ण अतिशय वाले नरेन्द्र, देवेन्द्र तथा पशु पक्षी मनुष्य प्रादि से सेवित तीर्थकर प्रभु का ही अव. लंबन कर जो ध्यान किया जाता है उसे रूपस्थ ध्यान कहते ___ उक्त प्रकार से सच्ची प्राकृति को लक्ष्य कर उत्तम ध्यान किया जासकता है। ऐसे ध्यान में मूर्ति की तनिक भी प्रा. वश्यकता नहीं, स्वयं चारों निक्षेप की मात्र प्राकृति ही श्रा. लंबन बन जाती है, ऐसे ध्यान कर्ता को कोई बुरा नहीं कह सकता। जो मूर्ति का श्रालंबन लेकर ध्यान करने का कहते हैं। वे ध्यान नहीं करके लक्ष्य चूक बन जाते हैं, क्योंकि ध्याता का ध्यान तो मूर्ति पर ही रहता है, वह मूर्ति ध्याता को अपने से आगे नहीं बढ़ने देती, ध्याता के सम्मुख मूर्ति होने से ध्यान में भी वही पाषाण की मूर्ति हृदय में स्थान पा लेती हैं, इससे वह ध्येय में प्रोट बन कर उसको वहां तक पहुंचने ही नहीं देती, जैसे एक निशाने बाज किसी वस्तु को लक्ष्य कर निशाना मारता है तो लक्ष्य को वेध सकता है। अर्थात् उसका निशाना लक्षित वस्तु तक पहुंच सकता है,
SR No.004485
Book TitleLonkashahka Sankshipta Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunamchandra, Ratanlal Doshi
PublisherPunamchandra, Ratanlal Doshi
Publication Year
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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