________________ ( 194) हिंसा को हेय ( छोड़ने योग्य ) कहने का क्या अधिकार है ? वे मी तो उन जीवों को खाने के लिये मारने वालों से बचा कर यज्ञ में होम कर देव पूजा करना चाहते हैं ? और उसी प्रकार उन जीवों को भी स्वर्ग में भेजना चाहते हैं ? _ महानुभावों ? पक्ष व्यामोह के वश होकर क्यों हिंसाको प्रोत्साह देते हो? आपकी पुष्प पूजा में उक्त दलील को सुनकर जब याशिक लोग आपसे पूछेगे कि महाशय ? हमको खोटे बताने वाले अप खुद देव पूजा के लिए हिंसा करके उसमें धर्म कैसे मानते हो? मार डालने पर उन जीवों की दया कैसे हो सकती है ? हमारी हिंसा तो हिंसा और साथ ही निन्दनीय और आपकी हिंसा दया और सराहनीय यह कहां का न्याय है ? तब श्राप क्या उत्तर देंगे? क्या आपको वहां अधो दृष्टि नहीं करनी पड़ेगी? ___ क्या कभी सरल बुद्धि से यह भी सोचा कि फूल भले ही भोग के लिये तोड़े जांय या इत्र फुलेलादि के या भले ही पूजा के लिए, उनकी हत्या तो अनिवार्य है, हत्या होने के बाद भले ही उनसे शय्या सजावे, हार बनावें या पूजा के काम में लेवें, उन्हें तो जीवन से हाथ धोना ही पड़ा न? पूजा या भोग के लिये तोड़ने में उन्हें कष्ट तो समान ही होता है, दोनों में अत्यन्त दुख के साथ मृत्यु निश्चित ही है फिर इस में दया हुई ? ___ पुष्पों से पूजा करने का उपदेश और आदेश देने वाले श्रमण अपने प्रथम और तृतीय महाव्रत का स्पष्ट भङ्ग करते हैं / यदि इसमें संदेह होतो पुष्प पूजा में दया मानने वाले आपके विजयानन्दसूरिजी ही हिंदी जैन तत्त्वादर्श पृ० 327